इंडिया गठबंधन की चुनौतियाँ

सत्ताधारी गठबंधन एनडीए के ख़िलाफ़ बने विपक्षी महागठबंधन इंडिया में दरार की चर्चा के बाद अखिलेश यादव ने खुलकर साफ़ कर दिया है कि कांग्रेस की विधानसभा में सीटों को न बाँटने की स्थितियाँ  लोकसभा में भी बनी रहेंगी। अखिलेश ने कहा है कि अगर अभी विधानसभा चुनाव में गठबंधन नहीं होगा, तो भविष्य में भी प्रदेश स्तर का गठबंधन नहीं होगा। इंडिया से पहले पीडीए बन गया था। पीडीए ही एनडीए को हराएगा।

मुझे लगता है कि यह अपने-अपने वर्चस्व को बचाये रखने की लड़ाई है; जो हर राज्य में सामने आनी ही है। और यह लड़ाई यूपीए से लेकर इंडिया गठबंधन तक ही नहीं, बल्कि एनडीए में भी शुरू से ही रही है। इसलिए मध्य प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी (सपा) के बीच सीटों के बँटवारे के लेकर बात नहीं बनना कोई नयी बात नहीं है और न ही इस पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं को बहुत ख़ुश होने की ज़रूरत है।

हालाँकि जिस प्रकार से मध्य प्रदेश में कांग्रेस और सपा के बीच सीटों को लेकर नोकझोंक हुई, दोनों तरफ़ से बयानबाज़ी सामने आयी और जिस प्रकार से दोनों पार्टियों ने अपने-अपने उम्मीदवारों को अपनी मर्ज़ी से मैदान में उतारते हुए चुनाव लडऩे का निर्णय लिया, उससे आगामी चुनावों में इंडिया गठबंधन की फूट के संकेत मिलते हैं। राजनीति के जानकारों का मानना है कि गठबंधन में मध्य प्रदेश के अंदर कांग्रेस और सपा में पड़ी दरार यह साबित करती है कि गठबंधन में शामिल सभी 26 पार्टियों के बीच इस तरह की चुनौतियाँ आगे भी आड़े आएँगी-ही-आएँगी। इसकी वजह यह है कि जहाँ जिस पार्टी का वर्चस्व होगा, वो वहाँ की सीटों पर समझौता करने को राज़ी नहीं होगी और जहाँ जिस पार्टी का कोई वर्चस्व नहीं होगा, वो वहाँ पर सीटों की माँग करेगी। इस प्रकार से सभी पार्टियों का हर चुनाव में अपनी अलग राह होगी और इससे नुक़सान भी इंडिया गठबंधन को ही होगा, जो कि भाजपा के नेता भी चाहते हैं। इसलिए कांग्रेस को अभी से यह मान लेने की बजाय कि उसकी जीत के रास्ते खुल चुके हैं और उसे अब किसी के सहारे की ज़रूरत नहीं है, यह समझना चाहिए कि उसे अपने साथ इंडिया गठबंधन में आयी सभी पार्टियों को एकजुटता के धागे में बाँधे रखना है और किसी भी तरह से केंद्र की सत्ता में वापसी करना है।

दरअसल कांग्रेस देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। ऐसे में उसे लगता है कि उसके पीछे कोई भी पार्टी मजबूरन लगी रहेगी, चाहे वो जिस प्रकार भी सीटों का बँटवारा करे। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कहीं-न-कहीं मिजोरम में भी सर्वे के आँकड़े सामने आने के बाद कांग्रेस में इस प्रकार का विश्वास, जिसे मैं ख़ुशफ़हमी कहना ज़्यादा बेहतर समझूँगा; बढ़ा है। लेकिन उसे समझना होगा कि क्षेत्रीय पार्टियाँ, जहाँ उनका वर्चस्व होगा, वो भी फिर कांग्रेस के साथ अपने-अपने राज्यों में यही बर्ताव करेंगी। और अगर इसी प्रकार से मध्य प्रदेश की तरह सब कुछ चलता रहा, तो हर राज्य के चुनावों में तो यह दिक़्क़त आने ही वाली है, 2024 के लोकसभा चुनाव में भी सीटों के बँटवारे को लेकर यह दिक़्क़त इंडिया गठबंधन के सामने आएगी। क्योंकि जिस राज्य में कोई राज्य स्तरीय पार्टी मज़बूत होगी, वो वहाँ विधानसभा सीटों को लेकर तो कांग्रेस पर अपनी मर्ज़ी थोपेगी ही, साथ ही लोकसभा की सीटें भी अपनी मर्ज़ी से ही देने पर राज़ी होगी। अखिलेश इसका इशारा कर चुके हैं। ज़ाहिर है कि कांग्रेस को इससे अपना क़द घटने का एहसास होगा और वो फिर वहाँ अपनी मर्ज़ी चलाने के लिए मैदान में अपनी मनचाही सीटों पर अलग से टिकट देने की कोशिश करेगी। क्योंकि उसे हर जगह अपने बड़े होने का रुतबा भी क़ायम रखना है।

कांग्रेस की दावेदारी मध्य प्रदेश से भी ज़्यादा राजस्थान में है। राजस्थान में कांग्रेस को वापसी की पूरी उम्मीद है, क्योंकि वहाँ मौज़ूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मज़बूती और वसुंधरा राजे की भाजपा शीर्ष नेतृत्व से नाराज़गी, पार्टी में स्थानीय उम्मीदवारों के टिकट काटकर नये चेहरों और सांसदों को मैदान में उतारना भाजपा को भारी पड़ सकता है। मध्य प्रदेश में भी भाजपा की यही स्थिति बनी हुई है। रही बात छत्तीसगढ़ की, तो वहाँ भी कांग्रेस को जीत का पक्का भरोसा है। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल एक मज़बूत नेता हैं और सरकार को वहाँ भी वापसी का विश्वास है, जिसकी पुष्टि सर्वे ने भी कर दी है। ज़ाहिर है कि कांग्रेस वहाँ भी अपने किसी सहयोगी दल को ज़्यादा सीटें देने से बचेगी।

इसी प्रकार से मिजोरम में भी कांग्रेस को जीत का भरोसा है। क्योंकि उसके पड़ोसी राज्य मणिपुर में जिस प्रकार से हिंसा का माहौल है, उससे पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा के लिए मुसीबत खड़ी हुई है और लोगों में उसके प्रति जिस प्रकार से ग़ुस्सा देखने को मिल रहा है, उससे लगता है कि मिजोरम में कांग्रेस मज़बूत हो सकती है। सर्वे के आँकड़े भी कुछ इसी प्रकार का इशारा कर रहे हैं।

रही तेलंगाना की बात, तो वहाँ की सबसे मज़बूत पार्टी भारत राष्ट्र समिति है, जिसके मुखिया के. चंद्रशेखर राव वर्तमान में तेलंगाना के मुख्यमंत्री भी हैं। के. चंद्रशेखर राव की ग्रामीण क्षेत्रों में तो इतनी पकड़ है कि उन्हें कोई भी पार्टी वहाँ आसानी मात नहीं दे सकती। क्योंकि तेलंगाना को बनाने में के. चंद्रशेखर राव का जो योगदान है, वो किसी का नहीं है। शहरों में कांग्रेस को थोड़ा समर्थन मिल सकता है, जिसके बूते वो कुछ सीटें वहाँ जीत सकती है; लेकिन अगली सरकार भी के. चंद्रशेखर राव की ही बनने की उम्मीद ज़्यादा है। हालाँकि के. चंद्रशेखर राव की पार्टी इंडिया गठबंधन का हिस्सा नहीं है; लेकिन तेलंगाना में कांग्रेस पहले से मज़बूत बतायी जा रही है, जिससे उसे लगता है कि वो वहाँ भी बहुमत से अगर नहीं भी जीती, तो भी मज़बूत विपक्ष के रूप में उभरेगी। लेकिन वहाँ दिक़्क़त यह हो सकती है कि अगर कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही, जिसकी संभावनाएँ काफी हैं, तो उसके विधायक टूटकर के. चंद्रशेखर की पार्टी में जाने का डर रहेगा, जैसा कि पहले भी हो चुका है। ऐसे में वहाँ इंडिया गठबंधन में सीटों का बँटवारे को लेकर शायद ही किसी दूसरी सहयोगी पार्टी को वह सीटें दे।

बहरहाल ये तो रही उन राज्यों की बात, जिनके चुनाव इसी नवंबर के महीने में ही होने हैं। इसके अलावा अगर हम 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद होने वाले विधानसभा चुनावों की बात करें, तो देखेंगे कि कई राज्य ऐसे हैं, जहाँ क्षेत्रीय पार्टियाँ बहुत मज़बूत हैं। मसलन उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद है। ऐसे में अगर गठबंधन की बात करें, तो वहाँ कांग्रेस को सीटें देने में अखिलेश और जयंत मुसीबत खड़ी करेंगे, क्योंकि वे फिर उसी राह पर चलेंगे, जिस राह पर मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस चल रही है। इसी प्रकार से दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी किसी भी हाल में किसी भी पार्टी को सीटें देने से बचना चाहेगी। पश्चिम बंगाल में भी तृणमूल कांग्रेस सबसे मज़बूत पार्टी है। ज़ाहिर है कि वहाँ तृणमूल की मुखिया और प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जो एक राष्ट्रीय छवि की मज़बूत नेता हैं; अपनी वर्चस्व वाली सीटें छोडऩे पर शायद ही राज़ी हों।

इसी प्रकार से बिहार में लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सबसे मज़बूत पार्टी है और उसके बाद नीतीश की जनता दल (यूनाइटेड) यानी जद(यू) दूसरी सबसे मज़बूत पार्टी बिहार की है। इसके अलावा वहाँ क्षेत्रीय पार्टियाँ बड़ी संख्या में हैं, जिनका अपने-अपने क्षेत्रों में भरपूर वर्चस्व है। कांग्रेस को वहाँ भी थोड़े में सब्र करना पड़ेगा। झारखण्ड में भी शिबू सोरेन की पार्टी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के आगे कांग्रेस वहाँ उतनी मज़बूत नहीं है। इसी प्रकार से महाराष्ट्र में शिवसेना और नेशनल कांग्रेस पार्टी ज़्यादा मज़बूत हैं, और वो वहाँ कांग्रेस को अपनी मर्ज़ी से ही सीटें देंगी। लेकिन पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद अगर तीन से चार राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनती है, तो कांग्रेस का हौसला बढ़ेगा और कांग्रेस इन प्रदेशों में बहुत ज़्यादा समझौता न करते हुए, अकेले चुनाव के मैदान में जाने का फैसला भी ले सकती है। जैसे कि उत्तर प्रदेश की बात करें, तो उत्तर प्रदेश में मुस्लिम और दलित समाज कहीं-न-कहीं कांग्रेस की तरफ़ आकर्षित होता नज़र आ रहा है।

दरअसल, पिछले दिनों आज़म खान की गिरफ्तारी पर अखिलेश यादव का घर से न निकलना कहीं-न-कहीं मुस्लिम समाज में नाराज़गी का एक कारण है। मुस्लिम समाज को लगता है कि कांग्रेस ही उसके लिए बेहतर विकल्प है। दूसरी ओर दलितों के लिए मायावती का कोई निर्णय न लेना भी कांग्रेस की राह खोलता नज़र आ रहा है। तो इससे लगता है कि आने वाले समय में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार तेज़ी से बढ़ सकता है। सूत्र बताते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के दिन ही राहुल गाँधी की पैदल यात्रा भी अयोध्या पहुँचेगी; क्योंकि अब कांग्रेस भी अयोध्या मंदिर की बात कर रही है। उसका कहना है कि इसकी शुरुआत राजीव गाँधी ने राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खोलकर की थी, जिसका लाभ उसको भी मिलना चाहिए। अब कांग्रेस को इसका कितना लाभ मिलता है? यह तो समय ही तय करेगा।

बहरहाल, अगर कांग्रेस अपने मज़बूती वाले राज्यों में अपने सहयोगी दलों को सीटें देने से कतरा रही है, जिससे राज्यों में मज़बूत अन्य पार्टियाँ भी कांग्रेस को सीटें देने से कतराएँगी। वर्तमान में इंडिया गठबंधन में कांग्रेस के अलावा सपा, राजद, जद(यू), आम आदमी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव गुट), एनसीपी (शरद पवार गुट), सीपीआई, सीपीआईएम और डीएमके के अलावा छोटे क्षेत्रीय दल शामिल हैं। ज़ाहिर है जो पार्टियाँ क्षेत्रों में सिमटी हैं, वो अपने वर्चस्व वाले राज्यों में सीटें देने के बदले राष्ट्रीय स्तर पर उभरने की कोशिश करेंगी, जिससे उन्हें राष्ट्रीय पार्टी के रूप में पहचान मिले। कांग्रेस इसमें रोड़ा बनेगी। क्योंकि उसे पता है कि राष्ट्रीय स्तर पर सबसे ज़्यादा उसी का वर्चस्व है, जिसे वो किसी भी हाल में कम नहीं करना चाहेगी। इससे इंडिया गठबंधन में दरार पड़ सकती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)