अपने डकैत जीवन के दौरान लगभग 250 लोगों की हत्या कर पूरी चंबल घाटी को आतंकित करने वाले 80 वर्षीय मोहर सिंह आज भी अपनी बंदूक कंधे से नीचे नहीं उतारते. भिंड जिले मेंे मेहगांव स्थित अपने भैसों के तबेले में बैठे इस पूर्व डकैत से जब हमने उनकी बंदूक की चर्चा छेड़ी तो उनके बेटे शक्ति सिंह ने चंद घंटे पहले घटी एक घटना के बारे में हमें बताया, ‘अभी कुछ देर पहले इन्होंने एक कौवे को गोली मार दी.असल में वह कौआ बार-बार सामने खड़ी भैसों की पीठ में अपनी चोंच मारकर उन्हें परेशान कर रहा था. इन्हें गुस्सा आ गया और गोली से उड़ा दिया उसको.’
चंबल के डाकुओं की दूसरी पीढ़ी के प्रमुख दस्यु सरगनाओं में से एक और बीहड़ों में कुल 12 सालों तक अपने आतंक का डंका बजाने वाले मोहर सिंह घाटी में सक्रिय आज के डकैतों को डकैत ही नहीं मानते. वे कहते हैं, ‘ हम 60 में बागी हुए और 72 में हाजिर हो गए (आत्मसमर्पण कर दिया). हमारे गांव में जमीन का विवाद हो गया था. पुलिस सुन नहीं रही थी, इसलिए बागी बनना पड़ा. पर हम लोग बागी थे और ये आज के डाकू तो हिजड़े हैं. अगर ‘पकड़'(अपहृत व्यक्ति) गरीब हो तो उससे ज्यादा पैसा नहीं लिया जाता था. गावंवालों से जो भी समान लेना होता, गांव के बाहर ही मंगवा लेते. न हम किसी गांव के भीतर जाते थे और न हमें औरतों से ही कोई मतलब था.’
सन 1960 में पहली बार कल्ला-पुतली के गैंग में शामिल हुए मोहर सिंह ने बाद में अपना अलग गैंग बना लिया और भिंड-मुरैना से लेकर गुना-शिवपुरी तक के जंगलों में लगभग 1,000 से ऊपर वारदातों को अंजाम दिया. सरेंडर के बाद मोहर सिंह स्थानीय राजनीति में भी सक्रिय रहे और उन्होंने दो बार मेहगांव नगरपालिका का चुनाव निर्विवाद रूप से जीता. चंबल में इतने ज्यादा डाकुओं के होने के कारणों के बारे में पूछने पर वे क्षेत्र की पुलिस और राजनीतिज्ञों के साथ-साथ चंबल के पानी को भी दोष देते हुए कहते हैं, ‘चंबल का पानी बहुत तेज है. यहां के लोग बहादुर भी होते हैं, इसलिए अन्याय बर्दाश्त नहीं कर पाते और बागी बन जाते हैं.’