शिवेन्द्र राणा
केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने पिछले दिनों एक विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में गाँवों की समृद्धि के लिए आदिवासी, ग्रामीण और कृषि केंद्रित अनुसंधान को आवश्यक बताया। हालाँकि वे इस बुनियादी विमर्श को पहले भी आवाज़ देते रहे हैं। इस वर्ष जून माह में भी उन्होंने कहा था कि देश में सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को ख़त्म किये बिना आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य सम्भव नहीं है और इस लक्ष्य के लिए कृषि, आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों का विकास ज़रूरी है। लेकिन सवाल यह है कि स्वतंत्रता के सात दशकों से अधिक की लम्बी यात्रा के बावजूद भारतीय लोकतंत्र के समक्ष ये मुद्दा अब भी इतनी गम्भीर प्रश्नवाचक स्थिति में क्यों खड़ा है? प्रख्यात दार्शनिक दिदरो कहते हैं- ‘निरंतर प्रश्नों के माध्यम से ही यथार्थता का ज्ञान सम्भव है।
ग्रामीण सभ्यता मूलत: कृषि आधारित होती है और कृषि अधिशेष पर शहरीकरण की नींव पड़ी है। लेकिन आधुनिक युग में प्राथमिक आधार और सभ्यता यानी कृषि और ग्राम द्वितीयक स्थिति में आ चुके हैं। कृषि तो अब आधुनिक ढंग की सभ्यता में ‘एग्रीकल्चर इज द बिजनेस ऑफ लॉस गर्वोक्ति बन चुकी है। आज मानव जीवन एवं सभ्यता-संस्कृति का आधार कृषि घाटे का धंधा बन गयी है। इस अशुभ स्थिति के मूल में एमएसपी, कृषि क़ानून, कृषि क़ज़र्, खाद और बीज का संकट, वैश्विक कम्पनियों का आर्थिक साम्राज्य, कृषि के व्यावसायीकरण का दबाव जैसे कारणों की लम्बी सूची है, जिनमें गहन विमर्श और सुधार होना चाहिए। लेकिन वास्तविकता यह है कि द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में जब कृषि के ऊपर औद्योगीकरण को वरीयता देने की शुरुआत हुई, तबसे आज तक जितनी भी सरकारें आयीं, उनके लिए कृषि क्षेत्र कभी प्राथमिकता में नहीं रहा। इसलिए जब मूलाधार पिछड़ता गया, तो उस पर आधारित समाज भी विकास के पैमाने पर पिछड़ता और टूटता-बिखरता रहा। अत: यह कहना उचित है कि ग्रामीण समाज के लिए विकास की योजनाओं और प्रयासों से अधिक लफ़्फ़ाज़ी ही हुई है, और यही अनाचार मध्यकालीन युग से कृषक प्रभावी ग्रामीण समाज को विद्रोही बनाता है। सत्ता के विरुद्ध इसकी अभिव्यक्ति कबीर जैसे संतों द्वारा यूँ व्यक्त की गयी है :-
‘बाबू ऐसा है संसार तिहारो, ईहै कलि ब्यौहारो।
को अब अनरव सहत प्रतिदिन को, नाहिन रहनि हमारो।’
मोटे तौर पर भारत अपनी कृषि-जीडीपी का मात्र 0.7 फ़ीसदी कृषि अनुसंधान और विकास पर ख़र्च करता है। वित्त वर्ष 2023-24 में देश की आर्थिक विकास दर (जीडीपी) 6.0 से 6.3 फ़ीसदी रहने का अनुमान है। देश की आर्थिक विकास दर कमज़ोर रहने का मुख्य कारण कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर में कमी ही तो है। वित्त वर्ष 2019-20 के लिए कृषि विकास दर घटकर मात्र 2.8 फ़ीसदी पर आ गयी थी। दूसरी ओर नीति आयोग का मानना था कि 2017-18 में किसानों की आय में वास्तविक बढ़ोतरी लगभग शून्य हुई है। वहीं समग्रता में 1993-94 से 2015-16 के बीच देश में किसानों की आय में केवल 3.31 फ़ीसदी की वार्षिक वृद्धि हुई है। यही कारण है कि नयी पीढ़ी के लिए खेती के प्रति आकर्षण कम होने का। भारत की क़रीब 54.6 से 58 फ़ीसदी आबादी खेती और उससे जुड़े हुए क्षेत्रों से संबद्ध है; लेकिन देश के बड़े कृषि शिक्षा संस्थानों में केवल 1.65 लाख छात्र ही स्नातक, परास्नातक और शोध कर रहे हैं। कृषि की दुर्गति ने ग्रामीण विकास को नकारात्मक दिशा में धकेला है, जिसकी परिणति है- बेहिसाब प्रवासन। ग्रामीण क्षेत्र से शहरों में पलायन को जनगणना के आँकड़ों से समझिए- सन् 1971 से 1981 के बीच 9.3 मिलियन प्रवासी थे, तो सन् 1980 से 1991 के बीच कुल 10.6 मिलियन शहरों की ओर प्रवासन हुआ। सन् 1991 से 2001 के बीच कुल 14.2 मिलियन प्रवासी और शहरों की ओर गये। आबादी के हिसाब से देखें, तो सन् 1971 से 2001 के बीच तीन दशकों में ग्रामीण क्षेत्र से नगरीय इलाक़ों में पलायन ने शहरी आबादी के लिए औसतन 19.36 फ़ीसदी का योगदान दिया। सन् 2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार, भारत की लगभग 31 फ़ीसदी आबादी शहरों में निवास कर रही थी। वहीं अगले 35 वर्षों में 400 मिलियन से अधिक लोगों के शहरों का रुख़ करने की संभावना है, जो कि कमज़ोर शहरी बुनियादी ढाँचे वाले एवं विश्व की सर्वाधिक आबादी वाले देश के लिए विकट चुनौती है। इसी के अनुरूप 25 जून, 2015 को विकसित शहरीकरण हेतु दो चरणों में स्मार्ट सिटी मिशन प्रारम्भ हुई। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, अगले 15 वर्षों में प्रति वर्ष अमेरिकी डॉलर 55 बिलियन डॉलर की दर से अपने शहरी विकास के क्षेत्र में भारत को कुल यूएस 840 बिलियन डॉलर की दरकार होगी। सितंबर, 2023 में इंदौर में आयोजित नेशनल स्मार्ट सिटी कॉन्क्लेव में उपस्थित अधिकारियों के अनुसार उक्त योजना के लिए अब तक 1.70 लाख करोड़ की राशि आवंटित हुई है।
एक तरफ़ आबादी के बोझ से कराहते शहरों को बचाने के लिए सरकारें अवसंरचना, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास आदि पर हज़ारों करोड़ फूँकने को तत्पर हैं, किन्तु उसका एक हिस्सा भी ग्रामीण विकास पर ख़र्च कर प्रवासन रोकने को तैयार नहीं हैं। इस बुनियादी मुद्दों के अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्र से पुरुष प्रवासन की अधिकता के कारण लैंगिक असंतुलन, महिलाओं के प्रति अपराध, कच्ची बस्तियों की समस्या, रोज़गार की कमी से उपजा संगठित अपराध, सुरक्षा व्यवस्था के ख़र्च, सामाजिक असुरक्षा जैसे मसले भी उत्पन्न होंगे, जिन्हें वातानुकूलित कमरों में बैठे नहीं समझा जा सकेगा। और ग्रामीण समाज पलायन न करे, तो क्या करे? बढ़ती महँगाई, घटते रोज़गार और न्यूनतम आमदनी के मकड़जाल में वह घुट रहा है। ग्रामीण महँगाई दर जुलाई में 7.63 फ़ीसदी, तो अगस्त में 7.02 फ़ीसदी थी। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में खुदरा महँगाई दर 5.33 फ़ीसदी, तो खाद्य महँगाई दर 6.65 फ़ीसदी पर बनी हुई है। निजी शोध संस्थान सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आँकड़ों से पता चलता है कि कुल ग्रामीण बेरोज़गारी अगस्त माह में 6.20 फ़ीसदी थी। इतना ही नहीं, चिकित्सीय असुविधाएँ और बच्चों की शिक्षा जैसे दूसरे पहलू भी उन्हें शहरों की ओर प्रवासन को उकसाते हैं। नौकरशाही एवं प्रशासन का रवैया भी इसके प्रति उपेक्षापूर्ण है। स्मार्ट शहरों के लिए चिन्तित सरकार ने स्मार्ट गाँवों के उन्नयन पर ध्यान दिया होता, तो गाँव भी जी उठते और पलायन पर रोक लगती।
हालाँकि ऐसा नहीं है कि इसकी कोशिश नहीं हुई; पर जो हुई, उनमें न लोकतांत्रिक निष्ठा थी और न वैचारिक ईमानदारी। जैसे ग्रामीण विकास के प्रति प्रतिबद्धता का एक उदाहरण देखिए- अक्टूबर, 2014 में तीन चरणों में संकल्पित सांसद आदर्श ग्राम योजना प्रारम्भ हुई। आँकड़ों के मुताबिक, पहले चरण में सांसद आदर्श ग्राम योजना के पहले चरण में लोकसभा के 543 सांसदों में से 500 सांसदों तथा राज्यसभा के कुल 254 सदस्यों में से 203 सदस्यों ने एक-एक गाँव को गोद लिया। वहीं लगभग ढाई साल बाद भी 93 सांसदों ने अपने लिए किसी गाँव का चयन नहीं किया। दूसरे चरण में योजना की हालत और भी ख़राब थी। शुरुआत में लोकसभा के 545 सांसदों में महज़ 286 सांसदों ने, वहीं राज्यसभा के 243 सांसदों में से महज़ 94 सांसदों ने गोद लेने वाले गाँवों का चयन किया।
आदर्श ग्राम योजना का तीसरा चरण इसकी सार्थकता पर गम्भीर सवाल खड़े करता है। प्राप्त सूचना के मुताबिक, लोकसभा के 545 सांसदों में महज़ 34 सांसदों ने तथा राज्यसभा के 243 सांसदों में से महज़ 11 सांसदों ने एक-एक गाँव को गोद लेने का निर्णय किया। जहाँ राजस्थान के 35 में से केवल 14 सांसद और 2020 तक झारखण्ड के 14 सांसदों में से केवल तीन सांसद इसके तहत गाँवों को गोद लेते हैं। इन आँकड़ों से ग्रामीण विकास के प्रति सरकार और जनप्रतिनिधियों की गम्भीरता का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है। ऊपर से जिन गाँवों को गोद लिया गया, उनके विकास एक अलग तरह की बहस हो सकती है। कोरोना संकट ने गाँवों की महत्ता का सबसे बेहतरीन संदेश दिया। जब महामारी के दौर में आधुनिक सभ्यता के प्रतिमान शहरों ने लोगों को अस्वीकृत कर दिया, तब वर्षों से भूले-बिसरे गाँवों ने उन्हें शरण दी। लेकिन सत्ता-समाज फिर भी दीवार पर लिखी इबारत को नहीं पढ़ पाया। असल समस्या यह है कि 200 वर्षों की मानसिक ग़ुलामी एवं यूरोपीय सभ्यता की श्रेष्ठता की कुंठा से उपजे वैचारिक रोग ने स्वतंत्र भारत की सभी सरकारों की प्राथमिकता से ग्रामीण विकास को बाहर रखा। ऐसा न होता, तो पंचायतों को संवैधानिक स्वीकृति मिलने में चार दशक से अधिक का समय न लगता। सन् 1947 में आज़ाद देश में 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से सन् 1992 में ही पंचायतों को संवैधानिक सम्मान मिला।
हालाँकि भारतीय लोकतंत्र की यह विडंबना है कि चुनावों में सबसे अधिक मतदान करने वाले ग्रामीण क्षेत्र विकास की दौड़ में शहरी क्षेत्रों से पिछड़े ही रहते हैं। सरकारों का व्यवहार ग्रामीण क्षेत्रों के साथ दोयम दर्जे का तथा नीतियाँ उनके हितों के प्रतिकूल होती हैं; चाहे वह अवसंरचना विकास के नाम पर कृषि भूमि का अधिग्रहण हो या सैन्य बजट सुधार के नाम पर अग्निवीर जैसी योजनाएँ। उदाहरणस्वरूप ग्रामीण क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा आधार सशस्त्र बलों की सेवाएँ हैं। किन्तु सैन्य सेवा के व्यवसायीकरण ने ग्रामीण युवाओं का मनोबल तोड़ा है, जिससे सैन्य सेवा के प्रति उनका आकर्षण कम हुआ है। आर्थिक पहलू से देखें, तो अग्निवीर योजना ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर कुठाराघात किया है। अत: जब ग्रामीण क्षेत्र की आय का स्तर गिरेगा, तो उसकी क्रय शक्ति भी न्यूनतम ही रहेगी और तब विकास के आधारभूत मानक भी सिकुड़ेंगे। इतनी सामान्य-सी बात अगर सरकार में बैठे लोग नहीं समझ पा रहे हैं, तो यह स्थिति बहुत विद्रूप है।
महात्मा गाँधी भारत की आत्मा को गाँवों में तलाशते रहे और उनके चेले सत्ता मिलने के बाद उसी आत्मा को दफ़नाने में लगे रहे। यह प्रक्रिया आज भी बदस्तूर जारी है; चाहे सत्ता शीर्ष पर किसी भी विचारधारा के लोग हों। यही लोकतंत्र का कटु यथार्थ है। पर हमें इस निष्कर्ष को समझना है कि यदि गाँव मर जाएँगे, तो राष्ट्र की आत्मा एवं संस्कृति का अवसान सुनिश्चित है। साथ ही यह समझना होगा कि ग्रामीण सभ्यता एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सुरक्षा और संवर्धन ही इस लोकतंत्र की सार्थकता सिद्ध करेगी। यह ज़िम्मेदारी समाज से अधिक सरकार की है, जिसे शाब्दिक द्वंद्व से अधिक व्यावहारिक होकर स्वीकार करना होगा।