गुरुजी के सबक का सबब

सात जनवरी को झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) प्रमुख शिबू सोरेन के रांची आवास पर गहमागहमी थी. नेताओं-कार्यकर्ताओं की भीड़ में सरकार रहेगी या जाएगी, इस पर तरह-तरह की चर्चाएं हो रही थीं. तभी मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा वहां पहुंचे. यह दिन के करीब साढ़े बारह बजे की बात है. आधा घंटे तक वे अपने मूल राजनीतिक गुरु शिबू सोरेन के आवास पर रुके. बात फैली कि यह सत्ता बचाने की आखिरी कोशिश है. यह भी कि अर्जुन मुंडा क्राइसिस मैनेजमेंट में माहिर हैं, बात बन जाएगी. अंदरखाने से निकले एक झामुमो नेता बोले, ‘शिबू सोरेन तीन दिन का और समय देने पर राजी हो रहे हैं.’ मोहलत की इस खबर से कुछ लोगों ने राहत की सांस ली.
मामला सुलझता दिख रहा था, लेकिन पार्टी नेताओं की बैठक शुरू होने के बाद अचानक बात गड़बड़ा गई. एक वरिष्ठ झामुमो नेता बताते हैं, ‘झामुमो खेमे के मंत्रियों में अधिकांश ने सरकार नहीं गिराने की बात कही थी. परेशान शिबू सोरेन बैठक से उठकर अपने कमरे में गए. वहां उनकी नजर टीवी पर आ रही खबरों पर पड़ी. एक नेता का बयान आ रहा था कि झामुमो की कोई बात नहीं मानेंगे. शिबू ने पूछा कि यह कौन नेता है! बताया गया कि झारखंड भाजपा के प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान हैं. कमरे से निकलकर शिबू सोरेन ने कहा कि ‘अब तीन दिन का समय नहीं दिया जाएगा,  सरकार से समर्थन आज ही वापस लेंगे.’ सूत्रों के मुताबिक शिबू के ऐसा कहने से वे मंत्री भी हक्के-बक्के रह गए जो सरकार गिराने के फैसले का विरोध कर रहे थे.

लेकिन ऐसा लगा जैसे शिबू सोरेन के बेटे और राज्य के उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस इशारे के इंतजार में ही थे. वे बाहर निकले और मीडियाकर्मियों को बयान दे दिया कि पार्टी सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा करती है. हेमंत जब यह एलान कर रहे थे तब झामुमो के ही दो वरिष्ठ नेताओं साइमन मरांडी और हेमलाल मुर्मू के चेहरे पर उभरा तनाव साफ दिख रहा था. सूत्रों के मुताबिक इसके बाद भीतर हो रही बैठक में वे बिफरे भी कि हेमंत कौन होते हैं यह एलान करने वाले. बेटे की घोषणा पर अंदरूनी विवाद और न गहराए, इसलिए आधे घंटे में शिबू खुद मीडिया के सामने आए और उन्होंने बेटे हेमंत की बात पर मुहर लगा दी.

एक पखवाड़े से अधिक समय से सरकार पर संकट छाया था. इसके बावजूद भाजपा का कोई केंद्रीय नेता इसके हल की कोई संभावना तलाशने रांची नहीं आया

झामुमो के वरिष्ठ नेता यह किस्सा ऐसे सुनाते हैं जैसे टीवी पर दिखे झारखंड भाजपा प्रभारी के बयान की वजह से सरकार चली गई. जबकि उस दिन अपने ही नेताओं से घिरते जाने के बाद परेशान शिबू सोरेन की छटपटाहट और हेमंत सोरेन में सत्तापलट करने की अकुलाहट साफ-साफ दूसरी कहानी बयान कर रही थी.

खबर लिखे जाने तक झारखंड के राज्यपाल सैय्यद अहमद राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर चुके हैं. अपने 12 वर्षों के सफर में झारखंड आठ मुख्यमंत्री और दो राष्ट्रपति शासन देख चुका है. इस बार सत्ता की सियासत साधने के लिए चले खेल के आखिरी परिणाम से यह बात साफ हुई है कि एक समय सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन में संघर्ष के जरिए अहम भूमिका निभाने के चलते गुरुजी और दिशोम गुरु के नाम से प्रतिष्ठित हुए और बाद में पूरी तरह से परिवारवाद के पोषक बने शिबू सोरेन की आखिरी महत्वाकांक्षा यही है कि उनका बेटा उनके सामने एक बार मुख्यमंत्री जरूर बने. जानकारों के मुताबिक शिबू ऐसा इसलिए भी चाहते हैं कि झामुमो में बुजुर्ग-वरिष्ठ हो चले नेताओं से लेकर नए-नवेले कार्यकर्ता भी यह मान लें कि उनके बाद झामुमो के तारणहार सिर्फ और सिर्फ उनके बेटे हेमंत ही हैं और उन्हें ही उनका असली उत्तराधिकारी माना जाए.
लेकिन क्या सरकार की असामयिक बलि तीन बार मुख्यमंत्री बनने का मौका जुगाड़ लेने के बावजूद एक साल भी उस पद पर रह पाने में नाकाम शिबू सोरेन, उनके बेटे हेमंत सोरेन और पार्टी झामुमो को इस मकसद में सफल होने देगी? जानकार बताते हैं कि इतनी आसानी से नहीं, क्योंकि झामुमो अब बैकफुट पर है और गेंद पूरी तरह कांग्रेस के पाले में जा चुकी है. कांग्रेस झामुमो को अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल करना जानती है, इसलिए हेमंत की रांची-दिल्ली दौड़ और छटपटाहट के बाद भी कांग्रेसी नेता इत्मीनान के मूड में दिखे. झारखंड कांग्रेस के प्रभारी शकील अहमद का कहना था, ‘हमें कोई जल्दबाजी नहीं, भाजपा और झामुमो की अंदरूनी लड़ाई में सरकार गई है और इसमें हम किसी भी तरह की पहल तभी करेंगे जब पूरी तरह से आश्वस्त हो जाएं.’

कांग्रेस अपनी सुविधानुसार पूरी तरह आश्वस्त होने की प्रक्रिया में है. झामुमो समेत दूसरे कई दलों के नेता और मौके की ताक में बैठे निर्दलीय सरकार बनवाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर एक किए हुए हैं जबकि भाजपा, सरकार की दूसरी सहयोगी पार्टी आजसू और राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा फिर से चुनाव के पक्ष में हैं. मरांडी कहते हैं कि फिर से सरकार बनने देने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि इसके लिए तमाम समझौते होंगे इसलिए बेहतर है कि नया जनादेश प्राप्त किया जाए. सरकार में तीसरी साझेदार रही आजसू के प्रमुख और राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो भी कहते हैं कि फिर से चुनाव हो. फिलहाल 81 सदस्यों वाली राज्य विधानसभा में भाजपा और झामुमो, दोनों के पास 18-18 विधायक हैं.

सरकार के तीसरे सहयोगी आजसू के पास छह विधायक हैं. झारखंड विकास मोर्चा के 11 और कांग्रेस के 13 विधायक हैं. राजद के पांच विधायक हैं, भाकपा माले के पास एक सीट है और शेष पर निर्दलीयों का कब्जा है. झामुमो और कांग्रेस के पास यह आसान विकल्प है कि फिर से चुनाव की मांग कर रहे भाजपा, आजसू और झाविमो को छोड़कर भी आपस में तमाम किस्म के समझौते करके सरकार बना ली जाए. लेकिन ऐसी सरकार का क्या होगा और वह कितनी कारगर होगी, झारखंड के लोगों को इसका लंबा अनुभव रहा है. भाकपा माले के विधायक विनोद सिंह कहते हैं, ‘अब फिर से समझौतावादी रुख से सरकार बनाने के बजाय जनता पर फैसला छोड़ा जाए क्योंकि यह तो साफ हुआ कि झामुमो और भाजपा के मेल से यह सरकार राज्यहित में नहीं बनी थी. समझौते के तहत अगली सरकार भी राज्यहित में नहीं बनेगी.’

आगे क्या होगा यह तो दिल्ली में तय होगा, लेकिन सरकार बनाने-बिगाड़ने के इस खेल के बाद राज्य की राजनीति में झामुमो और भाजपा का क्या होगा, यह झारखंड में ही तय होना है क्योंकि सरकार के बनने और अब चले जाने की अंदरूनी कहानी से लोग धीरे-धीरे वाकिफ होते जाएंगे. अंदरूनी कहानियां कई तरह की हैं. एक बड़ी बात तो शिबू सोरेन का पुत्रमोह है ही, उसके समानांतर ही सरकार जाने के पीछे और भी कई चर्चाएं राजनीतिक गलियारों में हैं. एक तो यह कि शिबू सोरेन और उनके बेटे हेमंत सोरेन के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति से लेकर कोयला घोटाले तक में सीबीआई का शिकंजा कसने की संभावना बढ़ती जा रही थी, इसलिए याचक की तरह केंद्र सरकार की शरण में जाना झामुमो की मजबूरी हो गई थी.

दूसरी चर्चा यह चल रही है कि झारखंड का संथाल परगना झारखंड मुक्ति मोर्चा का गढ़ रहा है और  वहां भाजपा लगातार झामुमो को कमजोर करने के अभियान में लगी हुई थी. उदाहरण के लिए, भाजपा के राज्यसभा सांसद निशिकांत दुबे वहां लगातार झामुमो पर वाकप्रहार कर रहे थे, शिबू सोरेन को भ्रष्ट नेता बता रहे थे. उधर, भाजपा-झामुमो की अंदरूनी लड़ाई का फायदा उठाने के लिए राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी लगातार संथाल परगना में कैंप भी करने लगे थे. संथाल में बाबूलाल की मजबूत पकड़ रही है और जानकारों के मुताबिक झामुमो को यह डर सताने लगा था कि भाजपा वहां अगर झामुमो के खिलाफ काम करती रही तो वह अपना कुछ भला करे ना करे, बाबूलाल मरांडी जरूर मजबूत होते जाएंगे. जानकारों के मुताबिक ऐसे में जरूरी था कि अपना गढ़ बचाने के लिए झामुमो सरकार से अलग हो जाए. 

चर्चा यह भी चल रही है कि इस सरकार को झामुमो ने भाजपा को समर्थन देकर बनवाया ही इसलिए था ताकि समय आने पर बदला लिया जा सके. दरअसल 2010 में शिबू सोरेन राज्य के मुख्यमंत्री बने थे और तब भाजपा समर्थन दे रही थी. भाजपा ने भी तब झामुमो को बैकफुट पर लाकर समर्थन वापस ले लिया था और 30 मई, 2010 को आखिरकार सोरेन को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था. उसके बाद फिर दोनों दलों के सहयोग से सरकार बनी. इस बार झामुमो भाजपा को बैकफुट पर लाई और बीच में समर्थन वापसी करके उसने अपने नेताओं को सत्ताच्युत करने से उभरे जख्मों को भरते हुए हिसाब-किताब बराबर किया. एक जानकार यह भी बताते हैं कि खनन और दूसरे किस्म के ठेकों में भाजपा और आजसू के कार्यकर्ताओं-नेताओं का दबदबा बढ़ता जा रहा था. ऐसे में झामुमो कार्यकर्ता और नेता लगातार अपने नेताओं पर दबाव बना रहे थे कि ऐसी सरकार का क्या मतलब जब कोई फायदा ही न हो.

संकेत साफ है कि सरकार जाने की पृष्ठभूमि पहले से ही तैयार हो रही थी. हो सकता है, इनमें से कोई वजह सही हो या एक-एक कर सभी वजहें सही हों. झामुमो ने इसके लिए पहले राज्य में स्थानीय नीति तय करने से लेकर अल्पसंख्यकों के मसले को उठाकर एक पत्ता फेंका था लेकिन इस पर भी उसकी भद ही पिटी. सवाल उठे कि इन दोनों मसलों पर अगर सरकार कुछ नहीं कर रही तो उसमें झामुमो भी बराबर की दोषी है. तब झामुमो ने कहा कि समन्वय ठीक से नहीं हो रहा, इस पर भी उसकी हंसी उड़ी क्योंकि सरकार के समन्वयक खुद शिबू सोरेन थे. इसी बीच शिबू सोरेन काफी दिनों से 28-28 माह की सरकार का वास्ता देकर मीडिया को बयान दे रहे थे. हालांकि तब हेमंत ने तहलका से बातचीत में भी कहा था कि ऐसा कोई करार सरकार के लिए नहीं हुआ है.

संकेत साफ है कि सरकार जाने की पृष्ठभूमि पहले से ही तैयार हो रही थी. हो सकता है, इनमें से कोई वजह सही हो या एक-एक कर सभी वजहें सही हों.

लेकिन बाद में हेमंत ने भी अपने पिता का राग दोहराना शुरू कर दिया. एक सीडी भी जारी की गई, जिसमें 28-28 माह के करार की बात सामने आई लेकिन तुरंत ही उस सीडी की बात भी खंडित हो गई क्योंकि वह बातचीत वर्तमान सरकार के बजाय इसके पहले सरकार बनाने की पहल के लिए की गई थी. बात खंडित हो गई लेकिन यह साफ हुआ कि अर्जुन मुंडा ने ऐसे समझौते से सरकार बनाने की कोशिश की थी.

अभी जो सरकार चल रही थी वह भी भाजपा संसदीय बोर्ड के फैसले के उलट जाकर बनाई गई थी. अर्जुन मुंडा की यह सरकार नहीं बचे, इसे लेकर राज्य के कुछ भाजपाई नेता तो बहुत दिनों से भीतरघात कर ही रहे थे लेकिन इस संकट के दौरान यह भी साफ हुआ कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भी इस सरकार को ज्यादा पसंद नहीं कर रहा था. एक पखवाड़े से अधिक समय से सरकार पर संकट छाने के बावजूद पार्टी का कोई केंद्रीय नेता इसमें पहल करने को नहीं आया. जानकारों का मानना है कि अर्जुन मुंडा आखिरी दिन तक शिबू सोरेन के आवास पर जिस तरह से अपनी सत्ता बचाने की ललक लिए हुए पहुंचे थे, उससे यह भी साफ होता है कि झामुमो की लाख लताड़ के बावजूद वे सत्ता के लिए बेचैन थे.

आखिर में सवाल उठता है कि अगर चुनाव हो तो कोई स्थायी सरकार बनने की कितनी संभावना है. जानकारों के मुताबिक फिलहाल जो राजनीतिक हालात हैं उनमें यह कतई संभव नहीं दिखता. तो फिर क्या रास्ता है जिससे झारखंड राजनीतिक प्रयोगशाला बनने से मुक्त हो जाए? इसका एक जवाब बिहार के दो नेताओं के बयान से आता है. लालू प्रसाद कहते हैं कि बिहार-झारखंड को फिर से एक कर दिया जाए. और नीतीश कुमार का मानना है कि झारखंड में विधानसभा सीटों की संख्या कम से कम 150 की जाए नहीं तो यह संकट बना ही रहेगा.