भाजपा नेता सुषमा स्वराज का यह तमतमाया हुआ एतराज बिल्कुल जायज है कि राजघाट पर सत्याग्रह के दौरान अपने कार्यकर्ताओं के अनुरोध पर उन्होंने दो-तीन मिनट तक जो नृत्य किया, उसे मीडिया गैरजरूरी तूल दे रहा है. हालांकि मीडिया किस मामले को ऐसा तूल देकर उसका तेल नहीं निकाल देता है? बल्कि भारतीय राजनीति को भी यह बात समझ में आ चुकी है कि मीडिया का कैसे और कितना इस्तेमाल करना है. इसी इस्तेमाल के तहत बाबा रामदेव रामलीला मैदान पहुंचे थे और भाजपा उनके समर्थन में राजघाट. गड़बड़ सिर्फ यह हो गई कि 24 घंटे जागने वाले मीडिया के रिपोर्टरों ने रात के दो बजे भी राजघाट में चल रहे सांस्कृतिक कार्यक्रम को शूट कर लिया और सबको समझ में आ गया कि भाजपा के 24 घंटे के प्रदर्शन में महत्व की चीज बस यही चंद लम्हों का टुकड़ा है.
यह कांग्रेस या भाजपा का नहीं, उस सांस्कृतिक बंजर का मामला है जो हमारे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में लगातार बड़ा होता जा रहा है
फिर भी सुषमा स्वराज के साथ हमदर्दी होती है और एक हद तक उनकी बात सही मालूम पड़ती है. इस छोटे से दृश्य के आधार पर भाजपा को नचनियों की पार्टी बताने वाले दिग्विजय सिंह को भी उन्होंने उचित ही याद दिलाया है कि इंटरनेट पर इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी तक के नृत्य के कई दृश्य मौजूद हैं. सुषमा स्वराज का कहना है कि वे एक देशभक्ति गीत पर नृत्य कर रही थीं और ऐसा करने में शर्म की कोई बात नहीं है. यह सारी बातें एक स्तर पर ठीक हैं. लेकिन इन सबके बावजूद सुषमा स्वराज का नृत्य हो या दिग्विजय सिंह की छींटाकशी- इन दोनों में कोई ऐसी चीज है जो लोगों को खटकती मालूम पड़ती है. ध्यान से देखें तो ये दोनों चीजें दरअसल एक ही तरह के सांस्कृतिक सतहीपन की उपज हैं जो हमारी राजनीति में इन दिनों बहुत गहरे व्याप्त है. इस सतहीपन में समझ जितनी कम है, सरोकार उससे भी कम, और संवेदना सबसे कम, जिसका नतीजा यह होता है कि हर चीज- चाहे वह नाच हो या उस पर दिया गया बयान- या तो प्रदर्शन की वस्तु मालूम होती है या पाखंड की.
दरअसल इस प्रक्रिया को करीब से समझने की जरूरत है. सुषमा स्वराज का तर्क है कि वे एक देशभक्ति गीत पर नृत्य कर रही थीं. सबको मालूम है कि यह देशभक्ति गीत, ‘यह देश है वीर जवानों का’ मूलतः एक फिल्मी गीत है जो अक्सर शादियों के सड़क-नाच में बैंड बाजे के साथ खूब बजाया जाता है और जिस पर देश के वीर जवानों और अब वीरांगनाओं का आड़े-तिरछे उछलना और हाथ-पांव फेंकना हुआ करता है जिसे वे डांस कहते हैं.
कुछ ऐसा ही डांस राजघाट के सामने रात दो बजे के आसपास सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ध्वजधारी पार्टी भाजपा करे और उसमें अपने कार्यकर्ताओं का मन रखने के लिए पार्टी की सबसे बड़ी नेत्री कुछ ठुमके लगा लें तो इसमें अश्लील या एतराज लायक भले कुछ न हो, लेकिन एक सांस्कृतिक दीवालियापन दिखाई पड़ता है. निश्चय ही यह दीवालियापन सिर्फ भाजपा के भीतर नहीं है, बल्कि उतनी ही मात्रा में कांग्रेस के भीतर भी है, यह दिग्विजय सिंह की टिप्पणी बताती है.
इसी सांस्कृतिक दीवालियेपन का एक दूसरा प्रमाण सुषमा स्वराज की यह जवाबी छींटाकशी है कि सोनिया गांधी और इंदिरा गांधी तक के क्लिप इंटरनेट पर मौजूद हैं. सोनिया गांधी और इंदिरा गांधी ने कहां ये नृत्य किए? राजघाट के सामने नहीं, बल्कि उन जन सभाओं और कार्यक्रमों के दौरान, जब उनके सामने ऐसी नृत्यरत टीमें आईं. निश्चय ही इसके पीछे भी इन नेताओं की अपनी प्रदर्शनप्रियता रही होगी, लेकिन अगर सुषमा को अपने कार्यकर्ताओं का मन रखने के लिए राजघाट के सामने एक फिल्मी धुन पर थिरकने का अधिकार है तो सोनिया और इंदिरा गांधी को अपने लोगों के बीच जाकर उनके ढंग से उनके नृत्य में शामिल होने का हक भी है. अफसोस यह है कि अपने नृत्य को लेकर मीडिया के अतिचार और दिग्विजय सिंह की अनावश्यक टिप्पणी में निहित एक लैंगिक पूर्वाग्रह को सुषमा ठीक से समझ तक नहीं पाईं और इसे दलगत मुद्दे की तरह पेश करते हुए उन्होंने वैसे ही लैंगिक पूर्वाग्रह का परिचय दिया.
आखिर सुषमा के नृत्य पर यह बवाल बस इसलिए नहीं हुआ कि यह भारतीय जनता पार्टी की नेता का नृत्य है, यह इसलिए भी हुआ कि कहीं मेल शॉवेनिज्म यानी पुरुष मदांधता की मारी हमारी मानसिकता को अब भी यह गवारा नहीं है कि स्त्री सार्वजनिक तौर पर नृत्य करे और अपने पुरुष हमजोलियों के साथ करे. हो सकता है, यह भी एक वजह हो कि भाजपा के अन्यथा वाचाल नेताओं में कोई एक भी सुषमा के बचाव में खड़ा होता नजर नहीं आया.
लेकिन यह कांग्रेस या भाजपा का नहीं, उस सांस्कृतिक बंजर का मामला है जो हमारे राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में लगातर बड़ा होता जा रहा है. एक समाज के तौर पर हमने अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति खो दी है. गीत-संगीत, कविता, चित्र या नाटक जैसी विधाएं बहुत ही छोटे-से वर्ग तक सिमट कर रह गई हैं. भारतीय मध्यवर्ग पहले भी गाने-बजाने को शरीफ घरानों की चीज नहीं मानता था. हालांकि आधुनिकता के साथ-साथ जो बदलाव हमारे समाज में आए थे, उनके बीच शास्त्रीय विधाओं के प्रति एक नयी समझ और संवेदना पैदा हुई थी. लेकिन नया उपभोक्ता दौर इस समूची समझ और संवेदना पर हावी है और इस दौर में नृत्य संगीत अगर कामयाबी और शोहरत दिला सकें तो उनका बस इतना ही इस्तेमाल है. टीवी चैनलों पर दिखने वाले टैलेंट हंट्स की मार्फत निश्चय ही कई प्रतिभाएं दूर-दूर से उभरी हैं, लेकिन अंततः इनकी वजह से नृत्य-संगीत में संस्कृति घटी है, दिखावा बढ़ा है और इससे भी ज्यादा नकल की प्रवृत्ति बढ़ी है.
हमारे राजनीतिक दलों के पास ऐसी कोई परिकल्पना ही नहीं बची है कि उन्हें कहां पहुंचना है. यह बहुत खतरनाक किस्म की सांस्कृतिक जड़ता है
कुल मिलाकर हमारी समूची सांस्कृतिक समझ हॉलीवुड की तर्ज पर पुकारे बॉलीवुड से बुरी तरह आक्रांत है. संस्कृति के नाम पर हमारे पास बस हिंदी फिल्में हैं जो ज्यादातर बुरी और बेशर्म नकल का नतीजा होती हैं. यह सिनेमा भी अब संस्कृति नहीं, उद्योग है जो जैसे प्रयत्नपूर्वक हमारे मूल सांस्कृतिक उपादानों को नष्ट कर मनोरंजन का एक ऐसा सपाट मैदान बना रहा है जिसमें जवान और बदनाम होती नायिकाओं पर ताली पीटते और पैसे फेंकते एक अघाए हुए उपभोक्तावादी वर्ग का मजमा लगाने की गुंजाइश हो. इस मजमे में देशभक्ति की भी छौंक होती है और प्रेम का मसाला भी मिला होता है.
मुश्किल यह है कि अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति खो चुके समाजों को भी उनकी जरूरत तो पड़ती ही है. अपनी खुशी या उदासी या तकलीफ या उपलब्धि के एहसास को सबके साथ साझा करने के लिए वे एक माध्यम खोजते हैं. ऐसे में उन्हें एक शून्य हाथ लगता है और इस शून्य को भरती हुई हिंदी फिल्मों के गाने मिलते हैं. राजघाट के सामने दो बजे रात को भाजपा और सुषमा स्वराज को भी अपनी देशभक्ति के इजहार के लिए दरअसल ऐसी ही सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की जरूरत पड़ी और उन्होंने एक फिल्मी गाने की शरण ली. सुषमा स्वराज का कहना है कि बापू भी इस पर खुश होते कि उन्होंने देशभक्ति गीत पर नृत्य किया. लेकिन सुषमा को यह ध्यान नहीं आया कि गांधी बहुत सख्त किस्म के प्रयोगकर्ता थे और अपने आंदोलन की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के लिए वे बहुत जतन से कविताएं, भजन और गीत चुना करते थे. फिल्में तब भी बनती थीं और चुनने लायक लुभावने गाने तब भी हुआ करते थे, लेकिन गांधी ने वैष्णव जण को चुना, क्योंकि उन्हें मालूम था कि उनकी राजनीति को जहां पहुंचना है, वहां उनके साथ ऐसा ही करुण गान होना चाहिए.
दुर्भाग्य से हमारे राजनीतिक दलों के पास ऐसी कोई परिकल्पना ही नहीं बची है कि उन्हें कहां पहुंचना है. 2020 या 2050 की एक महाशक्ति के तौर पर जिस तरह के भारत की वे कल्पना करते हैं, उसमें मॉल और दुकानें है, उछलता हुआ शेयर बाजार और समृद्धि के कालीन पर लोटता हुआ एक उपभोक्ता वर्ग है और वह सारा अपसांस्कृतिक कचरा है जो इन दिनों मनोरंजन उद्योग के नाम पर आयात किया जा रहा है. लेकिन उसमें किसी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की जगह नहीं है.
भारतीय जनता पार्टी कभी खुद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पार्टी बताया करती थी. लेकिन उसका राष्ट्रवाद इतना इकहरा है कि उसमें दूसरों के लिए तो दूर, अपने लिए भी गुंजाइश नहीं रहती. यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बाबरी मस्जिद तोड़ता है, हबीब तनवीर के नाटकों पर हमले करता है, मकबूल फिदा हुसेन जैसे कलाकार को 90 पार की उम्र में देश छोड़ने और बाहर मरने को मजबूर करता है और फिर मनोज कुमार की 40 साल पुरानी फिल्मों की धुन पर थिरकता हुआ अपनी देशभक्ति जगाता है. यह एक बहुत खतरनाक किस्म की सांस्कृतिक जड़ता है, जिसमें नयी सोच, नयी विधाओं, नये रूपाकारों और प्रयोगों के लिए कोई गुंजाइश नहीं है. चाहें तो जोड़ सकते हैं कि यह जड़ता सिर्फ भारतीय जनता पार्टी में नहीं है, कांग्रेस में भी है जिसे वह अपने ढुलमुलपन से ढकती भर है.
कुल मिलाकर हम एक ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं जो न खुद को पहचानता है, न खुद पर भरोसा करता है.
ऐसे आत्महीन समाज से जो सरोकारहीन राजनीति पैदा होती है, उसमें हम सुषमा का डांस देखते हैं और दिग्विजय सिंह की छींटाकशी. निश्चय ही गांधी होते तो इन सब पर खुश नहीं होते. उनमें एक विश्वजनीनता थी, लेकिन वह निहायत भारतीय परिस्थितियों की उपज थी. वे सुषमा स्वराज को सलाह देते कि वह कोई अच्छा-सा नृत्य सीखें या खुद न करें तो भाजपा के भीतर ऐसी नृत्यांगनाओं की टीम तैयार करें जिसे लोक और शास्त्रीय धुनों की ठीक से समझ हो. लेकिन क्या सुषमा बापू की सलाह मानतीं? यह उम्मीद नहीं लगती. भारतीय जनता पार्टी महात्मा गांधी को ढाल की तरह इस्तेमाल करना चाहती है, हथियार की तरह नहीं. वरना सुषमा स्वराज और भाजपा अगर गांधी का मान रखना चाहती तो सिर्फ अपने नृत्य पर नहीं, अपनी पूरी राजनीति पर पुनर्विचार करने को बाध्य होती.