गरीबी को समझने का ककहरा

देश में गरीबी है? कितने होंगे गरीब? कितनी दिहाड़ी होनी चाहिए? पहले कभी 20 रुपये रोज़ की बात थी? क्या वाकई महँगाई बढ़ी है?

ये कुछ सवाल हैं, जिनसे भारत देश की बहुसंख्यक जनता रोज़ जूझती है। सत्ता सँभालने वाले नीति आयोग और बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों से सलाह लेते हैं। वे किताबों, फाइलों में अपनी बात तलाशते हैं। केन्द्रीय वित्त मंत्री कहती हैं कि विकास भले कुछ धीमा हुआ हो, लेकिन बाज़ार में न मंदी है और न रोज़गार में कमी। अब नया शिगूफा यह शुरू हुआ है कि कैसे गरीबी की मापजोख की जाए? दिहाड़ी की न्यूनतम दर क्या तय की जाए?

देश में शिक्षा आज भी बदहाल अवस्था में है। देहाती क्षेत्रों में तो प्राइमरी और हाई स्कूल भी बच्चों को करा पाना कठिन हो रहा है। अभी ऊँची शिक्षा में जो नीति है, उसका खासा विरोध पूरे देश में छात्रों ने संसद के बाहर तक जताया है। देश की समस्याएँ, जिन्हें बीतते समय के साथ हल होना था, आज विकराल हो गयी हैं। हर कहीं छोटे-छोटे गुट मािफया बन गये हैं। एक व्यवस्थित प्रणाली का विकास नहीं हुआ। एएसईआर (ग्रामीण) की 2018 की रिपोर्ट में बताया गया है कि कक्षा चार के 50 फीसद ही बच्चे काबिल हैं। किसी व्यवस्थित प्रणाली के न होने से शिक्षा, आहार, स्वास्थ्य, रोज़गार, उद्योग, निर्माण, कृषि आदि क्षेत्रों के लिए नियत राशि का योगदान भी विकास की बुनियाद में नहीं लग पाता। हुनरमंद होने की शिक्षा भी कुछ तक ही पहुँच पाती है। बेरोज़गारी का आँकड़ा आसमान छू रहा है। लेकिन वित्तमंत्री को लगता है कि विकास धीमा ज़रूर है; लेकिन मंदी नहीं है।

पिछले दिनों विश्व बैंक की एक रिपोर्ट आयी है। इसमें साफतौर पर बताया गया है कि गरीबी को जानने का पैमाना यह होना चाहिए कि जिससे यह देखा जाए कि 10वीं पास छात्र ठीक तरह से पढ़-लिख पाता है या नहीं। विद्यार्थी भले ही वह लडक़ा हो या लडक़ी; यदि वह अपने विषय को समझते हुये ठीक-ठाक जवाब नहीं दे पाता, तो ज़ाहिर है उसका पढऩा-लिखना बेकार गया। दरअसल, माना जाता है कि शुरुआती शिक्षा पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जिससे आगे चलकर बच्चा अपने परिवार के और समाज के विकास में योगदान कर सके। जिन देशों में शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया, वहाँ एक पूरी जमात पढ़े-लिखे लोगों की विकसित हुई, जो अच्छे श्रमिक भी बने। लेकिन हम अभी इस ओर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। आप देखें कि 70 के दशक में ही लैटिन अमेरिकी देशों, चीन और दक्षिण कोरिया आदि में प्राथमिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया। उनकी अर्थ-व्यवस्था भी हमारे देश की तुलना में खासी मज़बूत दिखती है।

हमारे देश में भी नये शिक्षामंत्री जो जाने-माने साहित्यकार हैं; वे नयी शिक्षा नीति जल्द जारी करने को हैं। उनकी शिक्षा नीति किस हद तक लोगों को प्रशिक्षित करेगी कि वे कुशल श्रमिक भी बनें और देश की अर्थ-व्यवस्था भी सुधार सकें। कुशल श्रमिक बनना तभी सम्भव है, जब प्राथमिक शिक्षा, सेकेंडरी शिक्षा में सर्वोच्च अंक आयें और इसके लिए शिक्षा विभाग में बाबुओं की जमात नहीं, बल्कि कुशल और रुचि लेकर बच्चों की विकसित करने की नज़र रखने वाले अधिकारियों की संख्या बढ़े। पूरे देश में बदलाव की धारा बड़ी ज़रूरी है; लेकिन अभी बहुत कुछ होना है। मोटे तौर पर देश में शहरी और ग्रामीण भारत में एक बड़ी खाई भी नज़र आती है। जिसे पाटने का काम नीति आयोग का है। मोटे तौर पर देश में जो आर्थिक-सामाजिक खाई है, उसको जाननेे की कोशिश में देखिए। एक शहरी परिवार है। परिवार में माता-पिता और तीन किशोरियाँ हैं। एक लडक़ी हाई स्कूल में है। मार्च-अप्रैल में परीक्षा है; लेकिन वह अब पढ़ नहीं सकेगी। परीक्षा की बढ़ी हुई राशि जुटा पाने में परिवार असमर्थ है। परिवार के मुखिया की कमाई पहले अच्छी थी। परिवार खुशहाल था। लेकिन अब 10-15 हज़ार भी नहीं जुटा पाते। कोई पैसा देने को राज़ी नहीं। माँ की एक नौकरी है। प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की। पाँच हज़ार आ जाते हैं। लेकिन कितनी महँगी है पढ़ाई-लिखाई। खाना-पीना। बच्चों पर आधुनिक बदलते भारत की तस्वीर है; पर करें क्या?

गाँव का एक परिवार। परिवार में बुजुर्ग माता-पिता। घर में एक नौजवान और उसकी पत्नी। गोद में एक बच्चा। एक लडक़ी और लडक़ा। दोनों बच्चे प्राइमरी में पढ़ते थे। गाँव में ही। लेकिन बड़ी मुश्किल से सातवीं तक पढ़ पाए। घर में बस इतनी खेती, जिससे गुज़र-बसर हो जाए। जब कहीं कोई मज़दूरी का काम पड़ता है, तो पूरो परिवार जाता है। नौजवान को काम मिलता है, पर पैसा अटकता है। दाल-चावल के अलावा बाकी सब तो खरीदना ही पड़ता है। पढऩा-लिखना बन्द। मदद के लिए बड़ी-बड़ी बात बोलने वाले आते हैं। पर कोई कुछ नहीं करता।

शहरी भारत और ग्रामीण भारत की ये दो तस्वीरें हैं। आज़ादी के 72 साल बाद भी भारतीय समाज की बेचारगी कि इन तस्वीरें का उभरना ठीक नहीं है। सरकारी विज्ञापनों में अलबत्ता खुशहाल भारत, शिक्षित भारत स्चच्छ भारत की रंगबिरंगी मनमोहक तस्वीरें दिखती हैं, घोषणाएँ होती हैं; लेकिन भारत के आम नागरिक के चेहरे पर दु:ख, हताशा के ही भाव क्यों दिखते हैं? इस पक्ष प्रश्न का जवाब बड़ा कठिन है। पक्ष और विपक्ष ज़रूर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करते हैं। लेकिन समस्या के निदान पर दोनों को कहीं एक होना ही होगा।

यूनेस्को की किसी एजेंसी ने भी भारत में गरीबी की पड़ताल की है और खासी चिंता जताई है। गरीब देशों की संख्या में भारत का स्तर और भी नीचे •यादा आता जा रहा है। देश में जिस तरह स्वच्छता अभियान की जागरूरता कुछ तो बढ़ी। उसी तरह ज़रूरत है कि शिक्षा, स्वास्थ्य अभियान की; न केवल शहरों, बल्कि गाँवों में भी। गाँवों मेें ठीक शिक्षा प्रसार होने पर ही बदलते भारत को मज़बूत प्रतिभाशाली श्रमिक ताकत हासिल होगी। देश एक मज़बूती पा सकेगा।

इंस्टीट्यूट ऑफ  इकोनॉमिक ग्रोथ की एक रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा के समुचित विकास से भ्रष्टाचार के मामलों में भी कुछ कमी हुई है। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना का ठीक तरह से ग्रामीण इलाकों में विकास किया जाना चाहिए, जिससे गाँव-गाँव में जल संचय के लिए साफ तालाब बनें, अच्छी सडक़ें, स्कूल और अच्छे घर बनें और गाँवों में ही गौशालाएँ हों। इससे न केवल गाँव के गरीबों के सामने काम के मौके बनेंगे, बल्कि उनका पारिवारिक जीवन स्तर भी सुधरेगा।

जीवन स्तर सुधरता है आमदनी से। आमदनी हो इसमें सक्रियता दिखाने का काम पंचायत और उसके मुखिया का है। निर्देश देने और नज़र रखने के लिए पूरा एक प्रशासनिक तंत्र है, जो विकसित है। ज़रूरत है इस तंत्र को इतना काबू में रखा जाए, जिससे सिर्फ सपने न दिखाये जाएँ, बल्कि ज़मीन पर विकास हो और जनता भी खुशहाल हो।