खोया हुआ भारत खोजने की चुनौती

पांच दिन तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई गांवों की खाक छानने के बाद कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने माना कि जमीन की समस्या के बारे में उनकी जो समझ गांववालों से बात करके बनी है वह संसद में बैठे-बैठे या फिर अफसरों से बात करके नहीं बनती. हालांकि अभी तक उन्होंने बताया नहीं है कि उनकी यह नयी समझ क्या है और उसके हिसाब से उनकी राजनीति कैसे बदलेगी, लेकिन इसमें शक नहीं कि राहुल गांधी की कोशिश में या उनके बयानों में एक निजी ईमानदारी दिखाई पड़ती है. जिस दौर में नेता औद्योगिक घरानों की, बड़े सौदों की और मीडिया-राजनीति की ज्यादा परवाह करते हैं, राहुल गांधी किसानों की, जमीन की, कायदे के मुआवजे की बात कर रहे हैं. बेशक, पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर जो संवेदना उन्होंने दिखाई है वह कुछ अपवादों के सिवा मूलतः जनपक्षीय जान पड़ती है. वे कांग्रेस शासित हरियाणा के मिर्चपुर में दलितों के घर जलाए जाने की खबर सुनकर वहां पहुंचते हैं और बाद में राज्य के दलित विधायकों के साथ अलग से बैठक करते हैं. वे नियामगिरि के जंगलों में जाकर खुद को आदिवासियों का सिपाही बताते हैं और घोषणा करते हैं कि उनकी जमीन देसी या विदेशी पूंजीशाहों के हवाले नहीं की जाएगी. वे जगह-जगह नौजवानों से मिलते हैं और उन्हें राजनीति में आने को प्रेरित करते हैं.

सवाल है, राहुल गांधी की इन कोशिशों को हम कितनी संजीदगी से देखें. यह सच है कि उन्हें गांधी-नेहरू परिवार की विरासत ने एक विशेषाधिकार वाली हैसियत दी है जो इस देश के दूसरे नेताओं को हासिल नहीं है. दूसरी बात यह कि संयोग से उनकी राजनीति ऐसे समय परवान चढ़ रही है जब केंद्र में यूपीए का शासन है जिसकी अध्यक्ष उनकी मां सोनिया गांधी हैं और जिसमें उस कांग्रेस का दबदबा है जिसके नेता बार-बार राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का चापलूसी भरा बयान देकर गांधी-नेहरू परिवार के प्रति अपनी वफादारी की होड़ लगाते हैं. लेकिन कमाल यह है कि सरकार पर सीधी पकड़ के बावजूद राहुल गांधी के बयानों और सरकार की नीतियों में गहरा फासला दिखाई पड़ता है. नियामगिरि में वेदांता पर लगी पहली रोक के बाद लगातार ऐसी परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई जा रही है जिनकी वजह से जंगल कटेंगे, खेत छिनेंगे, लोग उजड़ेंगे और उनके लिए बेदखली और विस्थापन की एक नयी और तकलीफदेह प्रक्रिया शुरू होगी. इसी तरह मिर्चपुर के दलित अब भी अपनी सम्मानजनक वापसी का रास्ता खोज रहे हैं और हरियाणा की कांग्रेस सरकार के मुखिया भूपिंदर सिंह हुड्डा के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं दिखती.

यह शक करने की पूरी-पूरी वजह है कि राहुल गांधी जो कुछ कर और कह रहे हैं, उसका वास्ता सिर्फ उनकी राजनीति से है, किसानों या लोगों की भलाई से नहींयानी यह शक करने की पूरी-पूरी वजह है कि राहुल गांधी जो कुछ कर और कह रहे हैं, उसका वास्ता सिर्फ उनकी राजनीति से है, किसानों या लोगों की भलाई से नहीं. या फिर उनकी राजनीति मूलतः सदाशय बयानों की राजनीति है जिसका कोई ठोस वैचारिक आधार नहीं है और जिसके साथ कोई संपूर्ण राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है. कुल मिलाकर उनकी राजनीति एक लोकप्रियतावादी राजनीति है जिसमें लुभावने वादों और कभी-कभी फौरी राहतों की गुंजाइश तो है, बदलाव की किसी मूलभूत परियोजना की नहीं.

लेकिन क्या लोगों और नेताओं को उनकी राजनीति ही बनाती और बदलती नहीं है? एक मध्यमार्गी कांग्रेसी नेता के तौर पर अपनी राजनीतिक पारी शुरू करने वाले और राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व में वित्त मंत्री रहते हुए उदारीकरण की बिल्कुल पहली ईंटें लाने-लगाने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह अगर बाद में मंडल के मसीहा और पिछड़ी जातियों के राजा नहीं फकीर के तौर पर उभरे तो इसके पीछे उनकी राजनीति ही थी. मूलतः आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष जीवनशैली के आदी और हामी मोहम्मद अली जिन्ना अपनी राजनीति की वजह से ही सांप्रदायिक नेता बन गए. अपनी राजनीति की सांध्य बेला में जिन्ना की तारीफ करके अपनी पार्टी की ही दुश्मनी मोल लेने वाले लालकृष्ण आडवाणी अपनी शुरुआती उदारता और खुलेपन के बावजूद राममंदिर आंदोलन की वजह से एक कट्टर हिंदूवादी नेता के तौर पर विकसित हुए.

यानी लोगों को उनकी राजनीति बदलती है. कबीर के दोहे की यह सच्चाई बड़े मार्मिक ढंग से हम सब पर लागू होती है कि कुम्हार ही मिट्टी को नहीं गढ़ता, मिट्टी भी कुम्हार को गढ़ती है. इस लिहाज से पूछा जा सकता है कि राजनीति की जिस मिट्टी को राहुल हाथ लगाने की कोशिश कर रहे हैं, क्या वह उन्हें बदल पायेगी? क्या दलित घरों में रात गुजारने के राहुल गांधी के जिस उपक्रम को नाटक कहा जाता है वह एक नयी हकीकत बनाएगा? क्या नाटक- अगर यह नाटक भी हो तो- का यह अभिनेता अपने किरदार के रंग में भी कुछ रंग जाएगा?

इस सवाल का जवाब ठीक-ठीक राहुल गांधी ही दे सकते हैं. लेकिन उनके राजनीतिक अश्वमेध की राह में रोड़े बहुत हैं. एक तो यह कि राज्यों में एक से एक क्षत्रप हैं जो उनका घोड़ा पकड़ने की ताकत रखते हैं. उत्तर प्रदेश में मायावती, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, बिहार में नीतीश कुमार और गुजरात में नरेंद्र मोदी अपने इलाकों में उन्हें आसानी से दाखिल नहीं होने देंगे. दूसरी मुश्किल यह है कि राहुल को अपना सेनापतित्व बाद में साबित करना है, सेना पहले जुटानी है. यानी इन तमाम राज्यों में कांग्रेस का सांगठनिक आधार इतना लुंजपुंज है कि राहुल गांधी भीड़ तो जुटा सकते हैं, लेकिन कांग्रेस इस भीड़ को किसी कार्यक्रम से जोड़ नहीं सकती, उसे चुनाव के वक्त मतदान केंद्रों तक आने की प्रेरणा नहीं दे सकती.

लेकिन सांगठनिक आधार न भाषण देने से बनेगा और न ही फॉर्म भराकर, रसीद कटवा कर सदस्यों की संख्या का आंकड़ा बढ़ाने से. वह ऐसे कार्यक्रमों से बनेगा जिस पर जनता भरोसा करे, जिनके लिए लोग कोई लड़ाई लड़ने को तैयार हों. दरअसल यह राहुल गांधी की महाचुनौती है. कांग्रेस अपने कार्यक्रम भी खो बैठी है अपना भरोसा भी. वह किसानों की बात करती है तो किसान यकीन नहीं करते, वह अल्पसंख्यकों की बात करती है तो अल्पसंख्यक बिदकते हैं, वह दलितों की बात करती है तो दलित दूसरी तरफ देखने लगते हैं. कभी कहा जाता था कि कांग्रेस एक राजनीतिक दल नहीं है, वह भारत की विशालता और विविधता का आईना है- एक विशाल सतरंगी छतरी जिसके नीचे हर रंग की विचारधारा के समूह इकट्ठा हो सकते हैं, जहां जर जमात के लिए पंगत लगती है और जो विरुद्धों के बीच सामंजस्य का काम करती है. वह सतरंगी छतरी भौगोलिक स्तर पर कट-छंट कर कई रंग-बिरंगे रुमालों में बंट चुकी है और वैचारिक स्तर पर एक ऐसी अवसरवादी राजनीति में जो पंख लगाकर चिड़िया बनना चाहती है और पांव लगाकर जानवर कहलाना चाहती है. अब तो इस छतरी का इतिहास भी छिन्न-भिन्न दिखता है. वह 1885 में एओ ह्यूम की पहल पर शुरू हुई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नहीं है. 1969 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में अलग हुई इंदिरा कांग्रेस भी नहीं. यह 1991 में मनमोहन सिंह की नीतियों से साथ आगे बढ़ने वाली और 1998 से सोनिया के नेतृत्व में चलने वाली एक नयी कांग्रेस है जिसमें पुराना ढुलमुलपन तो है लेकिन पुरानी ताकत नहीं.

अगर राहुल गांधी कांग्रेस को उसकी पुरानी ताकत लौटाना चाहते हैं तो उन्हें अपनी राजनीति से ज्यादा अपने समाज पर नजर रखनी होगीअगर राहुल गांधी को इस कांग्रेस को उसकी पुरानी ताकत लौटानी है तो उन्हें काफी कुछ करना होगा. उन्हें तय करना होगा कि 1991 में मनमोहन सिंह द्वारा शुरू किए गए उदारीकरण को क्या वे उसी निर्बाधता से जारी रखेंगे या फिर जमीन और जंगल का खयाल रखते हुए विकास का कोई वैकल्पिक नक्शा बनाएंगे. उन्हें तय करना होगा कि गठजोड़ की राजनीति में वे भ्रष्टाचार के सामने घुटने टेकने की यथास्थितिवादी मजबूरी का सहारा लेंगे या अपने साथी सावधानी से चुनने का अपेक्षाकृत मुश्किल और जोखिम भरा रास्ता लेंगे. उन्हें तय करना होगा कि उन्हें बड़ी पूंजी के सहयोग से बड़े कारखाने लगवाने हैं या छोटी-छोटी योजनाओं के सहारे खेती और सामुदायिक उद्योगों का अब लगभग यूटोपियाई लगने वाला सपना पूरा करना है. उन्हें तय करना होगा कि नक्सलवादी समूहों का वे भरोसा जीतेंगे या उन पर गोली चलाएंगे.

ऐसे फैसले आसान नहीं होंगे. इसके लिए नीतिगत समीकरण बैठाने की जगह यह समझने की जरूरत पड़ेगी कि आखिर वे किस समाज के लिए, किस देश के लिए काम करना चाहते हैं. अगर उनके सामने इस देश का नक्शा साफ होगा, इस समाज की जरूरतें साफ होंगी तो अपने आप उनका कार्यक्रम बनता चला जाएगा, उनकी प्राथमिकताएं तय होती चली जाएंगी. अभी की मुश्किल तो यह है कि कांग्रेस के पास से अपने देश और समाज का नक्शा ही खो गया है- दुर्भाग्य से ऐसा नक्शा दूसरे दलों के पास भी नहीं बचा है. इसलिए जो सरकारी किस्म के कार्यक्रम बनते हैं, उनके लाभ कुछ गिने-चुने औद्योगिक घरानों, शासक समूहों, उनके कारिंदों और उनके दलालों तक चले जाते हैं, जिस किसान के नाम पर, जिस गरीब के नाम पर वे कार्यक्रम बनाए जाते हैं, वह और लुटता है, वह और ठगा जाता है, और गुस्से में बंदूक उठाकर कभी नक्सली हो जाता है और कभी अपराधी. वैसे भी सरकार दोनों को एक निगाह से देखती है.

दरअसल राहुल गांधी की पश्चिमी उत्तर प्रदेश यात्रा का एक लक्ष्य यह हो सकता था- अपने देश और समाज का खोया हुआ नक्शा खोजना. हालांकि इतने बड़े उद्यम के लिए यह यात्रा समय और सीमा- दोनों लिहाजों से छोटी है. राहुल को बड़ी पदयात्राएं करनी होंगी. क्या इतना धीरज उनमें है? अपने पिता राजीव गांधी की तुलना में राहुल ने जरूर ज्यादा धीरज दिखाया है जो महज दो साल के राजनीतिक अनुभव की पूंजी पर देश के प्रधानमंत्री बन बैठे थे. कम से कम 2009 में राहुल ने यह चूक नहीं दुहराई. निश्चय ही आज की तारीख में राजनीतिक अनुभव की संपदा उनके पास अपने पिता से ज्यादा है. लेकिन इस अनुभव को सच्चे सरोकार में बदलना और उस समाज की खोज करना जिसके लिए वे राजनीति करें, अभी शेष है. उत्तर प्रदेश का दौरा इसकी शुरुआत हो सकता है, बशर्ते राहुल गांधी अपनी राजनीति से ज्यादा अपने समाज पर नजर रखें.