पहले-पहल जब मैंने भगत सिंह को लेकर एक फिल्म की संभावनाओं पर शोध करना शुरू किया तो मुझे उनके बारे में कुछ खास जानकारी नहीं थी.मैं उनकी तरफ उसी वजह से आकर्षित हुआ था जिस वजह से हम जैसे बाकी दूसरे लोग हुए-एक रूमानी व्यक्तित्व, मिथक जैसा चरित्र जिसने सिर्फ 23 साल की उम्र में देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. जो फिल्म मैं बनाना चाहता था उसका नाम था आहुति यानी बलिदान. इसकी कल्पना एक विशेष समय पर आधारित एक्शन फिल्म के रूप में थी और इसके शोध पर मैंने तकरीबन तीन साल लगाए. जल्द ही मुझे अहसास होने लगा कि यह सिर्फ एक साधारण युवक नहीं था जिसने अपने हाथों में बंदूक उठा ली. मुझे लगने लगा कि ऐसा उसने केवल उत्साह के अतिरेक में नहीं किया था.
भगत सिंह के लिए हमारी सोच फिल्मों में उनकी छवि से प्रभावित है. उनका जिक्र आते ही हमारे दिमाग में चेहरे पर तेज लिए फांसी की ओर बढ़ते और जोशीला गीत गाते युवक की तस्वीर उभरती है. हम इसके परे तो जा पाए लेकिन मुझे पता था कि हम अभी भी बिल्कुल सही जगह नहीं पहुंच पाए थे. कहानी तैयार थी, हम सभी काफी उत्साहित भी थे लेकिन कुछ चीजें मुझे कचोट रही थीं. मेरे मन में कई तरह के सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे. उनमें से एक यह भी था कि आज के दौर में क्या लोग इस तरह की फिल्म को देखने थियेटर में आएंगे. जवाब की तलाश में हमने इस विचार को युवाओं के सामने रखा. इसके लिए हमने दिल्ली-मुंबई के 18 से 23 साल के युवाओं को चुना. जवाब हमें मिल गया था- किसी को इसमें रुचि नहीं थी.
ऐसा लगा कि भगत सिंह अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं. आज का युवा उन चीजों से जुड़ा महसूस ही नहीं करता जिनके लिए भगत सिंह जिए और लड़े. मुझे गहरा धक्का लगा. भगत सिंह पर की गई तीन साल की रिसर्च का कोई फायदा नहीं हुआ था. मैं उधेड़बुन में था कि तभी मेरे दिमाग में एक बात कौंधी. जब भगत सिंह ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की शुरुआत की तो उन्होंने कहा था कि उनकी लड़ाई सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ नहीं है बल्कि यह लड़ाई एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के शोषण के खिलाफ है. उन्होंने चेतावनी दी थी कि अंग्रेजी दासता से मुक्ति पाने के बाद हम अपने लोगों द्वारा ही दास बना दिए जाएंगे. 21 साल के युवा की ये सूफियाना दूरदृष्टि अभिभूत कर देने वाली थी. मेरे दिमाग में कौंधा कि क्यों न भगत सिंह की कहानी को आज के युवाओं के साथ रख दिया जाए. इस विचार ने एकदम सही तार छेड़ा. आहुति, रंग दे बसंती में तब्दील हो गई. मैंने यही दिखाने की कोशिश की कि अंग्रेजों के जाने के बाद हम अब अपने ही लोगों के गुलाम हो गए हैं. फिल्म की जबर्दस्त सफलता ने मुझे तरोताजा कर दिया.
रंग दे बसंती ने काफी समय तक युवाओं को झिंझोड़ा, गुस्सा दिलाया, उत्साहित किया और उनमें बेचैनी भरी. एक तरह से देखा जाए तो इस फिल्म ने मुझे बेहतर इंसान बनाया है. इससे भी ज्यादा अहम यह कि इसने मुझे यह सिखाया कि एक फिल्मकार लोगों का मनोरंजन करने के साथ-साथ बदलाव की बयार भी ला सकता है. वैसे तो यह बात सैद्धांतिक रूप से मुझे पहले भी पता थी लेकिन इसे अनुभव करना कुछ अलग ही था. हालांकि अभी भी मुझे लगता है कि हम भगत सिंह को सही तरह से नहीं जान पाए हैं. वे एक बुद्धिजीवी थे, एक पत्रकार भी थे जो प्रताप नाम के अखबार के लिए बलवंत सिंह के नाम से लिखते थे. उन्होंने नेशनल ड्रैमेटिक क्लब की स्थापना की और चंद्रगुप्त और राणाप्रताप पर आधारित ऐसे नाटकों का इतना सफल और जोरदार मंचन किया कि सरकार ने इस क्लब को ही बंद कर दिया.
वे शादीपुर के एक स्कूल के प्रिंसिपल थे और मार्क्स, एंजल्स और लेनिन को पढ़ा करते थे. दूसरी तरफ उन्होंने अपना घर छोड़ दिया, शादी तोड़ दी और मौत को गले लगा लिया ताकि लोगों तक अपने विचार पहुंचाने के लिए वे अपने मुकदमे को मंच के रूप में इस्तेमाल कर सकें. वे सिर्फ 23 साल के ही तो थे. सांन्डर्स को मारने के बाद भगत सिंह और उनके साथी भागे-भागे फिर रहे थे, उन्होंने हफ्तों से खाना नहीं खाया था. एक दिन चंद्रशेखर आज़ाद उनसे मिलने आए और उन्हें दो रुपए दिए. भगत सिंह और साथियों ने उन्हें गले लगा लिया और खींचते हुए उन्हें एक हलवाई की दुकान पर ले गए.सड़क के दूसरे छोर पर एक सिनेमा हॉल था. इधर, हलवाई उनके आॅर्डर ले रहा था उधर, भगत सिंह जिनके पास पैसे थे सड़क पार करके सिनेमाहॉल पहुंचे और फिल्म देखने के लिए टिकट खरीद लिया. इस घटना सेज्यादा मुझे कुछ भी ये नहीं बताता कि भगत सिंह असल में क्या थे.
उन्होंने चेतावनी दी थी कि अंग्रेज़ी दासता से मुक्ति पाने के बाद हम अपने लोगों द्वारा ही दास बना दिए जाएंगे. 21 साल के युवा की यह सूफियाना दूरदृष्टि अभिभूत कर देने वाली थी