इन दिनों हर तरफ़ नफ़रत भरी बातें करते हुए लोगों की भीड़ आसानी से दिखायी दे जाती है। नफ़रत का यह ज़हर लोगों के दिमाग़ में ठीक उसी तरह बढ़ता जा रहा है, जिस तरह रक्त में कैंसर। यह दिमाग़ी ज़हर दो तरफ़ा घातक सिद्ध होगा- एक तरफ़ उनके लिए, जिनके प्रति लोगों के दिमाग़ में यह ज़हर भरा है। और दूसरी तरफ़ उनके लिए, जिनके दिमाग़ में यह ज़हर भरा है। लेकिन जिनके दिमाग़ में यह नफ़रत का ज़हर भरा है, उन्हें इसका अहसास नहीं है कि यह ज़हर उनके शरीर में कई तरह के विकार पैदा कर रहा है। वे मज़हब (धर्म) को समझकर उस पर सच्चाई से अमल करने के बजाय उसे उसी तरह अपने कट्टरता रूपी दाँतों से झिंझोड़ रहे हैं, जिस तरह एक कुत्ता किसी हड्डी को झिंझोड़ता है और अपने ही रक्त के स्वाद के आनन्द में डूबा रहता है। उसे न तो हड्डी का कोई फ़ायदा मिलता है और न ही वह हड्डी को कभी चबा पाता है।
मैंने ऐसे कई लोगों को देखा है, जो अपने मज़हब से ऐसे लिपटे रहते हैं, जैसे चंदन से कोई साँप। इससे वे और ज़हरीले होते जाते हैं। ऐसे लोग अपने मज़हब का किसी भी तरह से कोई फ़ायदा स्वयं भी नहीं ले पाते और दूसरों को भी नहीं लेने देते। उनकी नज़र में मज़हब उनके पाखण्ड और शारीरिक सजधज की वस्तु हैं। वे उसे सीने से लगाये रहने; उनके अनुसार उपासना का दिखावटी प्रयास करने; उनके अनुसार निर्धारित वेशभूषा में रहने और उन्हीं के अनुसार शारीरिक बनावट में ख़ुद को ढालकर रखने को ही सर्वोपरि समझते हैं। ये वे लोग हैं, जिन्होंने अपने-अपने मज़हबों के चारों तरफ़ इतनी ऊँची-ऊँची दीवारें उठा रखी हैं कि न तो वे दूसरे मज़हबों की अच्छाइयों को देखना चाहते हैं और न अपने मज़हब की अच्छाइयों तक दूसरे किसी मज़हब के लोगों को पहुँचने देना चाहते हैं। कुछ लोग तो इससे भी आगे बढ़कर अपने ही मज़हब के लोगों तक को अपने बनाये हुए उस दायरे तक नहीं पहुँचने देना चाहते, जो उन्होंने अपने को श्रेष्ठ साबित करने के लिए बना रखा है। ऐसे लोग अपने को दुनिया के सभी लोगों से श्रेष्ठ समझते हैं।
मज़े की बात तो यह है कि दुनिया में ऐसे लोगों की हर मज़हब में बहुतायत है, जो ख़ुद को ही सर्वश्रेष्ठ समझते हैं। हँसी इस बात पर आती है कि ये लोग उसी तरह खाते-पीते और गन्दगी करते हैं, जैसे बाक़ी सब करते हैं। उसी तरह पैदा हुए हैं, जैसे बाक़ी लोग और दूसरे प्राणी। ये लोग शारीरिक बनावट में भी किसी भी प्रकार से दूसरे लोगों से भिन्न नहीं हैं। सबकी तरह ही सम्भोग से ही पैदा हुए हैं और सम्भोग के बग़ैर अपना वंश बढ़ाने में असमर्थ हैं। फिर कोई श्रेष्ठ और कोई निकृष्ट कैसे हो सकता है? कोई ऊँच और कोई नीच कैसे हो सकता है? हाँ, ऊँच-नीच का एक पैमाना हो सकता है, और वो है- कर्मों का पैमाना। अगर कोई अपराधी है। निकृष्ट और घिनौने कर्म करता है। दूसरों पर अत्याचार करता है; तो वह नीच है। अगर कोई अच्छा है, तो वह श्रेष्ठ है।
आख़िर कोई नफ़रत फैलाकर ईश्वर का प्रिय कैसे हो सकता है? इसीलिए हर मज़हब में कहा गया है कि सबसे प्यार करो। सब पर दया करो। भूखों को भोजन कराओ। प्यासों को पानी पिलाओ। किसी का भी तन, मन और धन से बुरा मत करो। किसी को दु:ख मत पहुँचाओ। किसी का अनिष्ट मत करो और किसी पर अत्याचार मत करो। किसी की हत्या मत करो। घमण्ड मत करो। किसी से घृणा अथवा ईश्र्या मत करो। पाप से बचो। पुण्य के अवसर तलाशो। जब भी किसी का भला करो, तो यह समझकर करो कि यह ईश्वर का आदेश है। ईश्वर को सिवाय किसी से मत डरो।
एक कहावत है- ‘नेकी कर दरिया में डाल।‘ इसका अर्थ है कि नेकी करके भूल जाओ, उसे जताओ मत। लेकिन लोग यह अर्थ निकालते हैं कि किसी के साथ भला करो और उसके बुरे बनो। इसी के चलते लोगों ने इस तरह के मुहावरे भी बना रखे हैं कि ‘भलाई का ज़माना नहीं है।’ ‘अब तो भलाई के बदले बुराई मिलती है।’ ‘किसी का भला करोगे, तो बुरा फल ही मिलेगा।’ हो सकता है कि बहुत-से लोगों का यह अनुभव रहा हो। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि अपेक्षाएँ जहाँ होती हैं, वहाँ दु:ख स्वत: ही पैदा हो जाता है। क्या हम किसी को दान करते समय यह सोचते हैं कि वह भी हमें दान करेगा? कभी नहीं। तो फिर किसी का भला करते समय यह क्यों सोचते हैं कि उसे भी हमारा भला करना चाहिए? अगर सामथ्र्य नहीं है, तो भला मत करो। अथवा उतना ही भला करो, जितनी सामथ्र्य है। लेकिन यह सोचकर भलाई मत करो कि सामने वाला आपको इसके बदले में कुछ देगा। लेकिन कर्म एक ऐसी चीज़ है, जिसका फल आदमी को बिना माँगे भी ज़रूर मिलता है। लेकिन लोग प्यार के बदले प्यार की अपेक्षा तो करते हैं; जबकि नफ़रत, बुराई, गाली और ईष्र्या देकर इनकी वापसी नहीं चाहते। परन्तु इन सबकी वापसी तय है और हर हाल में मिलेगी।