जवाहर सरकार
सिनेमैटोग्राफ विधेयक का मुख्य ज़ोर फ़िल्मों की चोरी रोकने पर प्रतीत होता है। हालाँकि यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल है। यह विधेयक फ़िल्मों की अनधिकृत रिकॉर्डिंग और अनधिकृत प्रदर्शन या इसे बढ़ावा देने पर रोक के मक़सद से लाया गया है। ‘अर्नेस्ट एंड यंग’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पाइरेसी की वजह से 2019 में भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री को क़रीब 18,000 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ।
सरकार इस विधेयक के माध्यम से पाइरेसी की इस समस्या का समाधान करने का दावा करती है, जो मूल रूप से सेंसरशिप (पाइरेसी नहीं) पर है। इस परिष्कृत डिजिटल अपराध से निपटने के लिए उसके पास न तो जनशक्ति है और न ही विशेषज्ञता। इसके अप्रभावी होने की सम्भावना है; क्योंकि सेंसर बोर्ड जैसी अर्ध-न्यायिक संस्था एक पुलिसकर्मी की तरह काम नहीं कर सकती। फ़िल्मों की अनधिकृत रिकॉर्डिंग (धारा-6 एए) और उनके प्रदर्शन (धारा-6 एबी) को नियंत्रित करने वाले विधेयक में तीन महीने से तीन साल तक की क़ैद और 3,00,000 (तीन लाख) रुपये से 10,00,000 (10 लाख) रुपये तक के ज़ुर्माना प्रस्तावित है। ख़तरा यह है कि इतनी ज़्यादा शक्तियों के साथ भ्रष्ट इंस्पेक्टर उन लोगों को धमकियों और ब्लैकमेल के जंगल-राज में धकेल सकते हैं, जो वास्तव में दोषी नहीं हैं; ख़ासकर सिनेमा प्रदर्शक।
मुक़दमेबाज़ी में फँसने के कारण केंद्र सरकार ने इसकी अपीलीय शक्तियाँ हटा दी हैं। उसे क़ानूनी शक्तियों की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उसकी आदत अधिनियम के कामकाज और सीबीएफसी के प्रशासन में लगातार हस्तक्षेप करने की है। हाल ही में मंत्री ने उन अधिकारियों को धमकी दी थी, जिन्होंने हॉलीवुड फ़िल्म ‘ओपेनहाइमर’ में एक विशेष दृश्य को मंज़ूरी दे दी थी; क्योंकि उन्हें लगा कि यह अपमानजनक है।
वास्तव में यह वह शासन है, जिसने ‘द कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरल स्टोरी’ जैसी विभाजनकारी फ़िल्मों के प्रमाणीकरण और प्रचार (प्रचार और कर छूट के माध्यम से प्रोत्साहित करने) का निर्णय किया। यदि शासन नफ़रत फैलाने के अपने एजेंडे को आगे बढ़ा सकता है, तो संसद के अधिनियम या सीबीएफसी जैसी कथित स्वायत्त संस्था के क्या मायने हैं?
यदि मंत्रालय एक पुलिसकर्मी की ही भूमिका निभाना चाहता है, तो वह फ़िल्म निर्माताओं की रचनात्मकता को नष्ट करने वाली भीड़ को नियंत्रित करने के लिए इसे फ़िल्म बनाने की प्रक्रिया और पद्मावत जैसी फ़िल्मों के प्रदर्शन के दौरान क्यों नहीं निभाता? यह विधेयक आयु-उपयुक्तता को इंगित करने के लिए यूए श्रेणी को तीन श्रेणियों- ‘यूए 7+, यूए 13+ या यूए 16+’ से प्रतिस्थापित करता है।
यह सब बहुत जटिल है और उम्र सम्बन्धी मामलों में इस तरह की बारीकियाँ सिनेमा हॉल के मालिकों को परेशान करेंगी। वे या तो इसमें ढिलाई बरतेंगे या फिर इसकी क़ीमत चुकाएँगे या सख्ती करेंगे या फिर लोगों के गुस्से का सामना करेंगे।
‘ए’ या ‘एस’ प्रमाण-पत्र वाली फ़िल्मों को टेलीविजन या केंद्र सरकार के निर्धारित किसी अन्य माध्यम पर प्रदर्शन के लिए एक अलग प्रमाण-पत्र की आवश्यकता होगी। यह फिर टेलीविजन उद्योग में नौकरशाही और राजनीतिक लोगों का हस्तक्षेप होगा और नेटफ्लिक्स और अमेजॉन जैसी ओटीटी फ़िल्मों को प्रभावित कर सकता है। इसमें शासन बहुत अधिक ऊँच-नीच करेगा और ये नये प्रावधान जल्द ही काले क़ानून जैसे प्रतीत होने लगेंगे।