देश में लगातार आत्महत्या कर रहे छात्र-छात्राएँ 7 गहलोत ने कोटा के कोचिंग मालिकों को लताड़ा
आज़ादी की 77वीं वर्षगाँठ के मौके पर 15 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले की प्राचीर से देश के नाम अपने सम्बोधन में कहा- ‘हम सौभाग्यशाली हैं कि हम अमृत-काल में प्रवेश कर रहे हैं। इस कालखण्ड में हम जितना काम करेंगे, जो फ़ैसले लेंगे, आने वाले 1,000 साल का देश का स्वर्णिम इतिहास उससे अंकुरित होने वाला है। इस कालखण्ड में होने वाली घटनाएँ 1,000 साल तक प्रभाव पैदा करने वाली हैं। यह नया भारत है। आत्मविश्वास से भरा हुआ भारत है। संकल्पों को चरितार्थ करने के लिए जी-जान से जुटा हुआ भारत है। इसलिए यह भारत न रुकता है। न थकता है। न हाँफता है; और न ही यह भारत हारता है।’
राजस्थान के कोटा में दो छात्रों- आविष्कार शंबाज़ी कासले (17) और आदर्श राज (18) ने आत्महत्या कर ली। इससे पहले इंजीनियरिंग में दाख़िला लेने के लिए ज्वांइट एट्रेंस एग्जाम की तैयारी कर रहे वाल्मीकि जांगिड़ नामक एक छात्र ने 15 अगस्त की शाम को आत्महत्या कर ली। बिहार से कोटा अपना भविष्य गढऩे आये इस 18 वर्ष के छात्र को प्रधानमंत्री का भाषण कोरी शब्दावली लगा होगा। उसे नहीं लग रहा होगा कि वह अमृत-काल में प्रवेश कर रहा है। अगर उसे ऐसा लगता, तो वह ऐसा आत्मघाती क़दम क्यों उठाता?
ग़ौर करने वाली बात यह है कि कोटा में इस साल 15 अगस्त तक यानी साढ़े सात महीनों में अब तक 21 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। गत वर्ष यह संख्या 15 थी। कोचिंग सेंटर के नाम से भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया में अपनी पहचान बनाने वाले इस कोटा में फैले कोचिंग के इस धन्धे को जानना ज़रूरी है। कोटा भारत में संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) और राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) के अभ्यर्थियों का हब है, जिससे अनुमानित रूप से सालाना 5,000 करोड़ रुपये का राजस्व आता है। कोटा आने वाले छात्र-छात्राएँ मुख्य रूप से अपनी 12वीं की परीक्षा, नीट और जेईई जैसी महत्त्वपूर्ण प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग संस्थानों में पढ़ते हैं। एक अनुमान है कि कोटा अब देश भर में क़रीब तीन लाख नीट और जेईई छात्र-छात्राओं का केंद्र है। अगर आत्महत्या के आँकड़ों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि सन् 2015 में 18, सन् 2016 में 17, सन् 2017 में सात, सन् 2018 में 20, सन् 2019 में 18 छात्र-छात्राओं ने आत्महत्या की थी। सन् 2020 और सन् 2021 में कोरोना महामारी के कारण कोटा के कोचिंग संस्थानों कक्षाएँ नहीं लगीं। इन दो वर्षों में वहाँ से किसी छात्र के आत्महत्या के आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
तमिलनाडु की एक दु:खद ख़बर बताती है कि किस तरह देश के युवा देश की शिक्षा प्रणाली, अन्य ख़ामियों और मनोवैज्ञानिक सपोर्ट की ग़ैर-हाज़िरी में फाँसी लगाने का विकल्प चुन रहे हैं। दरअसल, तमिलनाडु में नीट की परीक्षा देने और सरकारी मेडिकल कॉलेज में सीट न मिलने पर आत्महत्या करने वाले छात्रों की सूची बहुत लम्बी है। लेकिन पहली बार ऐसा हुआ है कि एक छात्र के साथ-साथ उसके पिता ने भी आत्महत्या कर ली। 19 वर्षीय जगदीश्वरन ने बीते दो वर्षों में दो बार नीट की परीक्षा दी; लेकिन दोनों बार उसका स्कोर ऐसा नहीं था कि उसे सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाख़िला मिल पाता। दूसरे प्रयास में भी सफलता न मिलने पर उसने फाँसी लगा ली। वह जानता था कि उसके पिता सेल्वसेकर की आर्थिक हालत उतनी अच्छी नहीं है कि वह उसे किसी निजी मेडिकल कॉलेज में पढ़ा सकें।
जगदीश्वरन के एक दोस्त का कहना है कि वह पढ़ाई में बहुत अच्छा था। बेटे के अन्तिम संस्कार के बाद पिता सेल्वसेकर ने कहा था कि नीट की वजह से मैंने अपने बेटे को खो दिया। मेरे जैसा हाल किसी का न हो। और बेटे के दु:ख में उन्होंने भी आत्महत्या कर ली।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि छात्र-छात्राएँ केवल नीट और जेईई की परीक्षाओं में फेल होने पर ही आत्महत्याएँ नहीं करते, बल्कि इन परीक्षाओं में सफल होने के बाद जब आईईटी, आईआईटी, एनआईटी, आईआईएएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढऩे के लिए जाते हैं, तो वहाँ भी कई छात्र-छात्राएँ आत्महत्या कर लेते हैं। आईआईटी अपनी प्रवेश प्रक्रिया, प्लेसमेंट, शोध आदि के लिए प्रसिद्ध है। पर आत्महत्याओं के मामले वहाँ भी सामने आते हैं। सरकार ख़ुद इस तथ्य को स्वीकारती है। बीते दिनों राज्यसभा में शिक्षा मंत्रालय ने संसद में बताया कि सन् 2018 से मार्च, 2023 तक के आँकड़ों के मुताबिक, भारत के शीर्ष उच्च शिक्षा संस्थानों में आत्महत्या से होने वाली कुल मौतों की संख्या 98 है। इनमें से कम-से-कम 39 आत्महत्याएँ आईआईटी में हुईं। इसके बाद राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (एनआईटी) और केंद्र वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में 25-25 ने मौत को गले लगाया। वहीं सन् 2019 से अब तक अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में 13 मौतें दर्ज की गयीं।
मुख्य सवाल यह है कि आख़िर कई छात्र आत्महत्या का रास्ता क्यों चुनते हैं? इसके पीछे कोई एक नहीं, बल्कि कई कारण हो सकते हैं। मसलन, पढ़ाई का तनाव, अभिभावक का प्रतिष्ठित सस्ंथान में पढऩे का दबाव, निजी करियर व अच्छा पैकेज पाने की प्रबल चाह, भाई-बहन के साथ तुलनात्मक दबाव, सामाजिक दबाव आदि। कई बार जातिगत टिप्पणियाँ व इस कारण सामाजिक-सांस्कृतिक समावेशी माहौल नहीं मिलना भी अपना असर डालता है और ऐसा सामना करने वाले छात्र-छात्राएँ अलग तरह की प्रताडऩा सहते हैं, जिससे कई छात्र-छात्राएँ अपनी ज़िन्दगी का ही अन्त कर लेते हैं। सवाल उठता है कि जब छात्र कई तरह के तनाव से गुज़र रहे होते हैं, तो शैक्षणिक संस्थानों, सरकार के सम्बन्धित विभागों, अभिभावकों और समाज की भूमिका क्या होनी चाहिए? आख़िर बच्चे, किशोर, युवा किसी भी राष्ट्र की महत्त्वपूर्ण पूँजी हैं।
ग़ौरतलब है कि भारत इस समय आबादी में ही दुनिया में पहले नंबर पर नहीं है, बल्कि 15 से 30 वर्ष की आबादी में भी यह देश पहले नंबर पर है। देश की 52 प्रतिशत आबादी इसी आयु-वर्ग की है। शैक्षिक संस्थान ऐसे दर्दनाक हादसे होने पर कई बार जाँच समितियों का गठन कर देते हैं और कुछ ऐसे क़दम उठाने का ऐलान कर देते हैं, जिससे छात्र-छात्राएँ तनावमुक्त होकर ज़िन्दगी में आगे बढ़ सकें। लेकिन इसका बहुत असर नहीं होता। अधिकतर अभिभावक आत्महत्या की ख़बरें पढऩे-सुनने के बाद भी अपना नज़रिया नहीं बदलते। दरअसल वे ऐसी ख़बरों को दूर-दराज़ की ख़बर समझकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ऐसे में सामाजिक नज़रिये को बदलना एक बहुत बड़ी चुनौती है। पर कई अपवाद वाली आवाज़ें भी सुनायी पड़ती हैं।
हैदराबाद में रहने वाली डॉ. शुभ्रा, जिन्होंने ख़ुद कोटा में एक साल की मेडिकल परीक्षा की कोचिंग ली और उसी साल अच्छी रैंक आने पर सरकारी मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस किया। उसके बाद दिल्ली एम्स से एमडी की। वह कहती हैं कि वह अपने बेटे पर किसी भी तरह का दबाव नहीं डालेंगी। इसी तरह आईआईटी बॉम्बे से इंजीनियरिंग करने वाले मरीन का भी कहना है कि वह अपनी बेटी पर अपने सपने पूरे करने का दबाव नहीं डालेंगे। उसकी रुचि ही उनकी प्राथमिकता होगी। पर ऐसी सोच बहुत कम माता-पिता की होती है। शिक्षा मंत्रालयों, चाहे वो राज्यों के हों या केंद्र का; सभी का अहम दायित्व है कि वो बच्चों को ऐसा माहौल मुहैया कराएँ, जिसमें बच्चे किसी भी प्रकार का तनाव और दबाव महसूस न करें। अगर तनाव और दबाव में हैं, तो उन्हें समय पर सहायता उपलब्ध करायी जानी चाहिए।
रोपड़ आईआईटी में मैकिनकल इंजीनियरिंग के दूसरे साल की छात्रा वैष्णवी बताती हैं- ‘यह सच है कि यहाँ पहले साल बहुत-से छात्र-छात्राएँ तनाव महसूस करते हैं; क्योंकि उनका सामना कई मेधावी छात्रों से होता है। मैं भी तनाव से गुज़री हूँ। पर धीरे-धीरे ताना-बाना समझ में आने लगता है। और दूसरे साल तक धुन्ध साफ़ होने लगती है।’
इधर बॉम्बे, दिल्ली और मद्रास आईआईटी ने इस साल अगस्त में शुरू हुए नये शैक्षणिक सत्र से आत्महत्या रोकने सम्बन्धी नयी पहल की है। बॉम्बे आईआईटी ने एक अधिसूचना जारी करके कहा है कि अन्य छात्रों से उनके जेईई या गेट के स्कोर के बारे में पूछना अनुचित है। क्योंकि इससे उसकी जाति का भी पता चल सकता है। इधर तनावग्रस्त छात्र-छात्राओं में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने और तनाव कम करने के लिए दिल्ली आईआईटी ने मिड सेमेस्टर परीक्षा का एक सेट ड्रॉप करने का फ़ैसला लिया है। वहीं आईआईटी मद्रास के निदेशक वी. कामकोटि ने बताया कि एक ऐसा ऐप तैयार किया गया है, जो छात्रों के व्यवहार को ट्रैक करेगा और सप्ताह में दो बार अभिभावकों को रिमाइंडर भेजेगा कि वे अपने बच्चों से बात करें। बातचीत की रिकॉर्डिंग भी करनी होगी। निदेशक कामकोटि के अनुसार, घर से दूर रहकर पढ़ाई करने वाले बच्चों की परिजनों से बात होने पर उन्हें अकेलापन महसूस नहीं होता। अब देखना यह है कि ऐसी कोशिशें कितनी कारगार होती हैं। दरअसल इस बड़ी चुनौती का सामना करने के लिए सभी हितधारकों को मिलकर व्यापक स्तर पर बड़े फैसले लेने की दरकार है।
मैं कोटा में बच्चों को अब मरते हुए नहीं देख सकता। सिस्टम सुधारिए अब। एक भी बच्चे की मौत माता-पिता के लिए बहुत बड़ी क्षति है। कोचिंग संस्थानों में कक्षा-9 और 10 के छात्रों का नामांकन करने से उन पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। मैंने इस मामले को लेकर एक कमेटी बनाने की घोषणा की है। यह कमेटी 15 दिनों में अपनी रिपोर्ट देगी। यह माता-पिता की भी ग़लती है कि छात्रों पर बोर्ड परीक्षाओं को पास करने और प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने का बोझ है। यह सुधार का समय है।’’
अशोक गहलोत
मुख्यमंत्री, राजस्थान