कौन कितने पानी में?

न्यूज  चैनलों को अचानक इलहाम हुआ है कि उत्तर प्रदेश बलात्कार प्रदेश बन गया है. दलित और महिला मुख्यमंत्री होने के बावजूद राज्य में महिलाओं खासकर दलित और कमजोर वर्गों की महिलाओं की इज्जत सुरक्षित नहीं है. हर 24 घंटे में बलात्कार की पांच घटनाएं हो रही हैं. चैनलों के मुताबिक, मायावती के राज में कानून-व्यवस्था की स्थिति पूरी तरह से चरमरा गई है. बसपा से जुड़े गुंडे और अपराधी बेलगाम हो गए हैं. भ्रष्टाचार और अराजकता चरम पर है.

चैनलों ने जिस अंदाज में उत्तर प्रदेश से जुड़ी खबरों को उछाला है, उसमें उनकी अतिरिक्त आक्रामकता को अनदेखा करना मुश्किल है

अचानक छा गई इन सुर्खियों और प्राइम टाइम चर्चाओं से ऐसा लगता है जैसे उत्तर प्रदेश देश का सबसे असुरक्षित और कानून-व्यवस्था की दृष्टि से बदतर राज्य बन गया है. खुद मुख्यमंत्री का कहना है कि यह विपक्ष का कुप्रचार है. उत्तर प्रदेश में कानून- व्यवस्था की स्थिति दिल्ली, महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश से ज्यादा खराब नहीं है. बहन जी का सवाल है कि फिर उत्तर प्रदेश को लेकर इतना शोर क्यों मचाया जा रहा है? वे इसे सवर्ण मनुवादी मीडिया की साजिश बता रही हैं.

लेकिन क्या सचमुच मायावती के प्रति पूर्वाग्रह के कारण न्यूज चैनलों में ये घटनाएं उछाली जा रही हैं? सरसरी तौर पर देखने पर इस शिकायत में कोई खास दम नहीं दिखता. सच यह है कि चैनलों पर दिखाई जा रही रिपोर्टें तथ्यतः गलत नहीं हैं. इसे अनदेखा करना मुश्किल है कि बहन जी जिस गुंडाराज को खत्म करने के वायदे के साथ सत्ता में आई थीं, उसमें कोई खास कमी नहीं आई है. खासकर जिस तरह से बसपा से जुड़े विधायकों-सांसदों-मंत्रियों आदि के नाम संगीन अपराधों और भ्रष्टाचार के मामलों में आए हैं, उसे देखते हुए मीडिया और न्यूज चैनलों का शोर मचाना गलत कैसे कहा जा सकता है? आखिर सरकारों के कामकाज की पहरेदारी करना और उनकी कमियों-गलतियों-धतकरमों पर उंगली उठाना न्यूज चैनलों का काम है. अगर न्यूज चैनल अपना यह काम कर रहे हैं तो मायावती को नाराज क्यों होना चाहिए? चैनल आईना भर हैं. वे यह कहकर कैसे बच सकती हैं कि कानून-व्यवस्था की इतनी ही बदतर स्थिति अन्य राज्यों में भी है? अगर तथ्यतः यह सही भी है तो मुख्यमंत्री होने के नाते उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थिति बहाल करना, महिलाओं को पूरी सुरक्षा देना, अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करना और लूट-खसोट पर अंकुश लगाना उनकी जिम्मेदारी है. फिर बलात्कार और एक के बाद एक तीन वरिष्ठ डॉक्टरों की हत्याएं सामान्य अपराध की घटनाएं नहीं हैं. सिर्फ दलित होने के कारण मायावती के ‘सात खून’ माफ नहीं किए जा सकते.

कहने का मतलब यह कि न्यूज चैनलों की शिकायत करने से पहले बहन जी को अपने अंदर झांकना होगा. उन्हें भूलना नहीं चाहिए कि उन्हीं चैनलों पर आजकल उनकी सरकार की कामयाबियों का गुणगान करता सात मिनट से ज्यादा लंबा विज्ञापन धड़ल्ले से चल रहा है. लेकिन यह सब कहने का मतलब यह नहीं है कि सारे चैनल उत्तर प्रदेश के बारे में पूर्वाग्रह से मुक्त होकर जनहित में रिपोर्टिंग कर रहे हैं. यह मान भी लिया जाए कि तथ्यों के मामले में अधिकांश रिपोर्टें सही हैं तो भी उनकी भाषा, प्रस्तुति और टोन इस तरह का है कि उसमें पूर्वाग्रह सहज ही दिख जाता है. असल में, चैनलों ने जिस तरह और जिस अंदाज में उत्तर प्रदेश से जुड़ी खबरों को उछाला है, उसमें उनकी अतिरिक्त आक्रामकता को अनदेखा करना मुश्किल है. सवाल यह भी पैदा होता है कि चैनलों को केवल उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था, गुंडाराज और भ्रष्टाचार क्यों दिख रहे हैं? क्या दिल्ली, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में ‘रामराज्य’ है? जब चैनल उत्तर प्रदेश के गुंडाराज को लेकर सिर आसमान पर उठाए हुए थे, उसी समय बिहार के अररिया में पुलिस की गुंडागर्दी और अमानवीयता को लेकर नीतीश कुमार के ‘सुशासन’ पर चैनलों की चुप्पी हैरान करने वाली थी. यही नहीं, मुंबई की हाल की घटनाओं खासकर पत्रकार जेडे की दिन दहाड़े हत्या के बाद साफ हो गया है कि वहां का कुख्यात अंडरवर्ल्ड और उसके सरगना फिर जोर शोर से सक्रिय हो गए हैं. लेकिन वहां चैनलों की वह आक्रामकता नहीं दिखाई दे रही है जो उत्तर प्रदेश के मामले में छोटी से छोटी आपराधिक घटना पर दिखाई दे रही है. यानी उत्तर प्रदेश के मामले में कई हिंदी न्यूज चैनलों की रिपोर्टिंग और चर्चाओं में वह संतुलन और अनुपातबोध नहीं दिख रहा जो वस्तुनिष्ठ और पक्षपातविहीन पत्रकारिता के लिए जरूरी शर्त है. उलटे उनकी एकतरफा और अतिरिक्त रूप से आक्रामक रिपोर्टिंग के कारण कई बार वे सिर्फ रिपोर्टिंग करते नहीं बल्कि बसपा सरकार के खिलाफ अभियान चलाते मालूम होते हैं.

क्या इसका एक बड़ा कारण यह है कि चैनलों के अंदर काम करने वाले पत्रकारों-संपादकों-एंकरों में दलित और पिछड़े समुदायों की भागीदारी लगभग नगण्य है? निश्चय ही, चैनलों के न्यूज रूम और उसमें निर्णायक पदों पर बैठे संपादकों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि खबरों के चयन और उनकी प्रस्तुति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. उत्तर प्रदेश पर चैनलों की हालिया हाहाकारी रिपोर्टिंग इसका एक और सबूत है. साफ है कि मायावती के साथ चैनलों को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत है.