छत्तीसगढ़ में खनन कंपनियां धड़ल्ले से खनिज संपदाओं का दोहन कर रही हैं. इसकी वजह से प्रदेश की उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है. भूमि का प्रदूषण भयावह स्तर पर फैल गया है. इसका यहां की प्राकृतिक संपदा और निवासियों, दोनों पर बुरा असर हो रहा है.
बुद्धराम कडाती बस्तर के किरांदुल में रहते हैं और पेशे से किसान हैं. जब तहलका उनके गांव पहुंचा तब वे गांव के तालाब में मछली पकड़ने में व्यस्त थे. बुद्धराम उन हजारों गरीब आदिवासियों में से एक हैं जिनकी उपजाऊ जमीन लौह अयस्क निकालने के कारण अब बंजर हो गई है. उनका कहना है कि गांव के लोगों के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है. भयंकर रूप से प्रदूषित सनकिरी नदी के पानी का प्रयोग वे लोग अपनी दैनिक जरूरतों के लिए करते हैं. हालांकि इस दूषित पानी के प्रयोग से होनेवाली स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं. सालों से इस क्षेत्र में हो रहे खनन उद्योग के कारण नदी का पानी जहरीला हो चुका है.
नदी के पानी में लोहे (आयरन) की अधिक मात्रा के कारण पानी जहरीले लाल रंग में बदल गया है. बुद्धराम का कहना है कि इस गड़बड़ी के खिलाफ आवाज उठाना हमारे लिए आसान नहीं है. अगर हम कभी आवाज उठाते भी हैं तो खनन कंपनियां अपने सर्वे कराकर राज्य सरकार की तरफ से मुआवजे की घोषणा कर देती हैं. लेकिन मुआवजे की राशि मुश्किल से हम तक पहुंचती है. कडाती ने बताया कि अपनी जमीन के बदले मिले एक लाख के मुआवजे में से 50 हजार रुपये एजेंट को देने पड़े.
अवैध ढंग से हो रहे खनन कारोबार की वजह से सनकिनी नदी का पानी प्रदूषित हो गया है, इसके बारे में मीडिया में कोई खबर नहीं आती. दूसरी ओर राष्ट्रीय खनन विकास प्राधिकरण (एनएमडीसी) और इसकी सहयोगी एस्सार स्टील बड़ी मात्रा में लौह अयस्क का कचड़ा हर साल नदी में बहा देती हैं जिसके कारण उपजाऊ भूमि बंजर जमीन में तब्दील हो गई है, इस पर अब तक कोई भी कड़ा सरकारी कदम नहीं उठाया गया है.
बस्तर खनिज संपदा की दृष्टि से सर्वाधिक संपन्न क्षेत्रों में से एक है. एनएमडीसी और केंद्र सरकार की लौह अयस्क खनन की दो योजनाएं बछेली और बेलाडीला में पिछले पांच दशक से चल रही हैं. एनएमडीसी छह खदानों से लौह अयस्क का खनन करती है और प्रतिवर्ष इससे 90 लाख मीट्रिक टन कचड़ा पैदा होता है.
खनन से जमा होनेवाले कचड़े के निष्पादन के लिए एनएमडीसी के पास कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है. इस कारण इनमें से ज्यादातर कचड़ा नदी और किसानों की उपजाऊ भूमि पर फेंक दिया जाता है. यह अलग बात है कि नियमों के अनुसार किसी भी कंपनी के पास ऐसा करने का अधिकार नहीं है. स्थानीय लोगों के द्वारा लगातार विरोध करने के बाद भी इस दिशा में कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है. खनन के बाद बहाए जाने वाले कूड़े की वजह से नदी के किनारे दलदल बन गए हैं. एक दुर्घटना में पांच बच्चे इसमें बुरी तरह फंस गए थे. बच्चे नदी किनारे खेल रहे थे जब नदी किनारे जमा कीचड़ में फंस गए. ऐसी ही किसी और दुर्घटना की स्थिति यहां निरंतर बनी हुई है. उस दुर्घटना में फंसे बच्चों में से एक बच्चे के पिता एनएमडीसी में ही ड्राइवर की नौकरी करते हैं.
खनन से जमा होने वाले कचड़े के निष्पादन के लिए एनएमडीसी के पास कोई व्यवस्था नहीं है. ज्यादातर कचड़ा नदी और उपजाऊ भूमि पर फेंक दिया जाता है
आदिवासियों की अनदेखी
एनएमडीसी में काम करनेवाले कर्मचारियों के लिए आधुनिक सुविधाओं से युक्त दो टाउनशिप बनाए गए हैं. दूसरी तरफ जिन आदिवासियों की जमीन पर यह टाउनशिप खड़ी की गई हैं, उनके हितों की पूरी तरह अनदेखी की गई. पूरे क्षेत्र में उनके लिए एक अच्छा स्कूल और अस्पताल तक नहीं है. 60 किमी के क्षेत्र में एकमात्र अंग्रेजी मीडियम स्कूल केंद्र सरकार की योजना के तहत है. एनएमडीसी टाउनशिप में स्थित इस स्कूल में आदिवासी बच्चों की संख्या नगण्य है. एनएमडीसी ने क्षेत्र में एक अस्पताल बनाया है लेकिन गंभीर बीमारी के इलाज के लिए मरीज को जगदलपुर अस्पताल भेज दिया जाता है, जो यहां से करीब 100 किमी दूर है.
स्थानीय सीपीआई नेता एनआरके पिल्लई खुद इसके गवाह हैं. सड़क हादसे में पिल्लई का बेटा बुरी तरह जख्मी हो गया था. इलाज के लिए उसे जगदलपुर ले जाना पड़ा. रुंधे गले से पिल्लई बताते हैं कि एनएमडीसी के अस्पताल में यदि बेहतर सुविधाएं होतीं तो उनके बेटे को गंभीर हालत में जगदलपुर नहीं जाना पड़ता. शायद उसे बचाया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं हो सका. मुझे अपना बेटा खोना पड़ा. ऐसे लोगों की फेहरिश्त लंबी है जिन्हें इलाज की सुविधा के अभाव में अपने परिजनों को खोना पड़ा है.
सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सबिलिटी) के नाम पर एनएमडीसी और एस्सार ने क्षेत्र में बस स्टैंड और पार्क बनाए हैं. ये समय-समय पर खेल प्रतियोगिताएं आयोजित करती हैं. दंतेवाड़ा कलेक्ट्रेट में हमारे एक सूत्र ने बताया कि हर साल एनएमडीसी और एस्सार करोड़ों रुपये इन टूर्नामेंट के आयोजन के लिए देती हैं. लेकिन इन पैसों का इस्तेमाल कहां होता है, यह सोचने की बात है. जिले में एक कबड्डी टूर्नामेंट के आयोजन के लिए लाखों रुपये खर्च किए गए, जबकि हर रोज हजारों आदिवासी भूखे सोने के लिए अभिशप्त हैं. एनएमडीसी और एस्सार इलाके में आधारभूत संरचना के नाम पर बहुत कम पैसे खर्च करते हैं. कलेक्ट्रेट में हमारे दूसरे सूत्र ने बताया कि माओवादी क्षेत्र होने के कारण इलाका बेहद संवेदनशील है. इस कारण यहां विकास योजनाएं लागू नहीं हो पातीं.
नाम न छापने की शर्त पर हमारे सूत्र ने इलाके के पिछड़ेपन के बारे में बताया कि अगर क्षेत्र में विकास की कोई परियोजना शुरू भी होती है तो नक्सली हमलाकर उसे रोकने का प्रयास करते हैं. क्षेत्र में ऐसी किसी परियोजना की शुरुआत से पहले सरकार को कई बार सोचना पड़ता है.
सीपीआई नेता पिल्लई कहते हैं, ‘सीएसआर के नाम पर कलेक्ट्रेट को कंपनियों से मिलनेवाला पैसा अक्सर दूसरे कामों में खर्च कर दिया जाता है. स्थानीय लोगों ने इस पैसे के सही इस्तेमाल के लिए कई बार आवाज उठाई लेकिन अब तक कुछ नहीं हो सका. यह प्राथमिकता तय करने की बात है. शीर्ष पर बैठे लोगों को लगता है कि पार्क और बस स्टैंड, शिक्षा और स्वास्थ्य से ज्यादा बड़ी जरूरते हैं.
पर्यावरण पर बुरा प्रभाव
बड़े पैमाने पर होनेवाले खनन की वजह से पर्यावरण संतुलन भी डगमगाया है. दुग्ध उत्पादों का काम करनेवाले किसानों का कहना है कि पिछले एक दशक में दुधारू पशुओं की उम्र कम हुई है. पेशे से किसान जगजीवन का कहना है, ‘दो साल पहले मैंने जगदलपुर से गाय खरीदी थी लेकिन अब उसकी मौत हो गई. यह सब नदी के प्रदूषित पानी के कारण हुआ है. प्रदूषण का असर मछलियों के स्वास्थ्य और संख्या पर भी नजर आता है. हम अपने बचपन में हर रोज तकरीबन पांच किलो मछलियां पकड़कर बेचते थे लेकिन आज एक मछली भी नदी के पानी में नहीं मिलती.’
नौकरी के लिए भी रिश्वत
मुआवजे की राशि तो दूर की बात है, पिछले पांच दशक में एनएमडीसी ने जिन लोगों की जमीन ली, उन्हें नौकरी भी नहीं मिली. स्थानीय लोगों का कहना है कि 50 साल पहले जब उनकी जमीन ली जा रही थी, तब उनसे नौकरी का वादा किया गया था. लेकिन पहली बार 1985 में कुछ लोगों को नौकरी मिली जब दुबारा से एनएमडीसी ने बांध बनाने के लिए 600-700 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया. लेकिन तब भी महज चार लोगों को ही नौकरी दी गई. मंगल (परिवर्तित नाम) का कहना है, ‘मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है, 1985 से पहले किसी को भी एनएमडीसी में नौकरी नहीं मिली थी. 1985 में मैं उन चार लोगों में से एक था, जिसे मुआवजे के बदले नौकरी मिली.’
एनएमडीसी का दावा है कि केंद्रीय संस्थान होने के कारण उनके यहां आरक्षण की नीतियों का पूरी तरह पालन होता है. एनएमडीसी के एक अधिकारी के अनुसार देश-भर के अभ्यर्थी यहां नौकरी के लिए आवेदन करते हैं. चयन प्रक्रिया योग्यता के आधार पर होती है. भूमि अधिग्रहण बिल के मुताबिक स्थानीय लोगों को वरीयता देने की नीति यहां पर लागू नहीं है.
स्थानीय आदिवासियों के साथ अन्याय की कहानी यहीं खत्म नहीं होती. कुछ मजदूर यूनियन के अधिकारी नौकरी दिलाने के बदले एनएमडीसी के अधिकारियों से मिली-भगत कर लोगों से लाखों वसूलते हैं. मंगल के बेटे ने बातचीत में तहलका को बताया कि एनएमडीसी में मैकेनिकल असिस्टेंट की नौकरी के लिए मैंने एक लाख रुपये दिए. मैंने चार साल तक लगातार नौकरी की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली. तभी मैं समझ गया कि इस नौकरी के बदले मुझे रिश्वत देनी ही होगी. इसलिए मुझे पैसों का इंतजाम करना पड़ा. (रिश्वत की यह रकम पांच से आठ लाख तक भी हो सकती है. ऊंचे पद के लिए अधिक पैसे देने पड़ते हैं).
स्थानीय लोग एनएमडीसी में नौकरी के लिए लालायित रहते हैं. इसकी वजह वेतन के साथ मिलनेवाली सुविधाएं हैं. एनएमडीसी में मकैनिकल असिस्टेंट को 40 हजार प्रतिमाह वेतन के साथ तमाम सुविधाएं और भत्ते मिलते हैं.
मजदूर यूनियन के नेता ‘नौकरी के बदले घूस’ के मुद्दे पर बात करने के लिए राजी नहीं हुए. हालांकि कुछ युवा जिन्हें नौकरी नहीं मिल सकी, इस मामले की जांच करवाने की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि मजदूर यूनियन के लोग इस गड़बड़ी को क्यों स्वीकार करेंगे? अगर हम झूठ बोल रहे हैं तो इस मामले की सीबीआई जांच करवा लें, सच सामने आ जाएगा. अगर सच सामने आ गया तो बहुत से सफेदपोश सलाखों के पीछे होंगे.
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नौकरी के नाम पर मजाक
स्थानीय लोगों को नौकरी देने के नाम पर कंपनियां क्रूर मजाक कर रही हैं. एस्सार स्टील ने छत्तीसगढ़ के किरनदुल स्थित मदादी के 12 लोगों को महज एक महीने के लिए नौकरी पर रखा है. इन सभी लोगों को इसके बदले 5000 रुपये मिल रहे हैं. इन स्थानीय लोगों का काम अलग-अलग शिफ्ट में कंपनी की तरफ से लगाए गए पानी के पंप की देखभाल करना है. इनमें से हर आदमी को दूसरी बार ड्यूटी के लिए पूरे एक साल का इंतजार करना पड़ता है. एस्सार का इसके पीछे तर्क है कि एक-एक महीने के लिए 12 लोगों को रखकर वह ज्यादा से ज्यादा स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर दे रहे हैं.
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कानूनी तिकड़मों से जारी है शोषण प्रक्रिया
एनएमडीसी की छह लौह-अयस्क खदानों में से पांच की लीज इस साल दिसबंर में खत्म होनेवाली है. कंपनी सभी प्रभावित गांवों से सहमति लेने की पुरजोर कोशिश कर रही है, हालांकि दो गांवों ने पूरी तरह इनकार कर दिया है. पंचायत एक्ट (पेसा, पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल एरिया) 1996 के तहत किसी भी औद्योगिक गतिविधि, जिसमें खनन उद्योग भी शामिल है, के लिए ग्राम सभा से सहमति अनिवार्य है. हालांकि, लोकसभा में इसी साल पारित हुए दो बिल- खनिज और खनन संशोधन विधेयक और भूमि सुधार विधेयक पास हो चुका है, लिहाजा खनन कंपनियों के लिए आगे का रास्ता काफी आसान है.
बड़े पैमाने पर होने वाले खनन की वजह से पर्यावरण संतुलन डगमगाया है. दुग्ध उत्पादों का काम करने वालों का कहना है कि दुधारू पशुओं की उम्र घटी है
इस नए अधिनियम के तहत अब लीज 50 साल के लिए दी जाएगी और जिन्हें पहले से लीज मिली है, उनकी लीज आगामी 50 वर्षों के लिए बढ़ा दी जाएगी. इसी तरह भूमि अधिग्रहण विधेयक में भी जमीन लेने से पहले जमीन मालिक से सहमति की अनिवार्यता के नियम को हटा दिया गया है. राज्यसभा में पास हो जाने के बाद यह बिल आदिवासियों के हितों को अनदेखा करने का एक और माध्यम बन सकता है.