कुछ डाल पर मल्लू

पीजे थॉमस किसके उम्मीदवार हैं? उत्सुकता मिश्रित यह सवाल दिल्ली की सत्ता के गलियारों में तभी से उछलने लगा था जब सितंबर, 2010 में विवादास्पद परिस्थितियों में उनकी मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर नियुक्ति हुई थी. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी नियुक्ति रद्द किए जाने के बाद इस सवाल ने एक नयी अहमियत अख्तियार कर ली है. कई तरह की चर्चाएं हो रही हैं. कुछ का कहना है कि थॉमस या फिर उनकी पत्नी केरल से ताल्लुक रखने वाले एक कांग्रेसी नेता के रिश्तेदार हैं. कुछ दूसरों का इशारा पहले राजीव और फिर सोनिया गांधी के निजी स्टाफ में शामिल रह चुके गांधी परिवार के एक विश्वासपात्र के साथ थॉमस के कथित संबंधों की तरफ है.

का दबाव’ होने का मुद्दा उसमें भी उठा. माना जाता है कि प्रधानमंत्री ने पहले-पहल अपना बचाव कुछ इसी तर्ज पर करने की कोशिश भी की. सूत्र बताते हैं कि इस पर प्रधानमंत्री से कहा गया कि वे स्पष्ट तौर पर बताएं कि कांग्रेस में किसने थॉमस की दावेदारी को आगे बढ़ाया था. उनसे कहा गया कि इसकी बजाय उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में अपने इर्द-गिर्द के लोगों पर भी ध्यान देना चाहिए. देवास-इसरो समझौते से लेकर थॉमस की नियुक्ति तक पर सरकार की जैसी किरकिरी हुई है उससे प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रति कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का असंतोष बढ़ता ही जा रहा है.

सवाल कई हैं. पीएओ को आखिर चलाता कौन है? नौकरशाही के अलग-अलग हलकों में कुछ मजाक और कुछ तंज के साथ कही जाने वाली इस बात में कितना वजन है कि यूपीए के राज में मल्लुओं (मलयाली यानी केरल निवासी) की मौज है. क्या वास्तव में कोई केरल लॉबी है जो चुपचाप यूपीए सरकार के दिमाग के तौर पर काम कर रही है?

ये सारे सवाल एक ही शख्स की तरफ इशारा करते हैं और वह शख्स है टीकेए नायर. पीएमओ में प्रधान सचिव नायर पर ही थॉमस का मददगार और देवास का संरक्षक होने के आरोप लग रहे हैं. कुछ अपनी काबिलियत और कुछ परिस्थितियों की वजह से नायर पीएमओ में मौजूद सबसे ताकतवर व्यक्ति के रूप में उभरे हैं. 2004 में जब उन्हें प्रधान सचिव का पद दिया गया था तब यह स्थिति नहीं थी. नायर की इस अभूतपूर्व तरक्की से वे दो लोग भी हैरान हैं जिन्होंने उन्हें पीएमओ तक पहुंचाया. इनमें पहले हैं पूर्व गृह और सुरक्षा सचिव तथा वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोरा. दूसरे हैं सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एेंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट (क्रिड), चंडीगढ़ के एक्जीक्यूटिव वाइस चेयरमैन रशपाल मल्होत्रा. वोरा जाना-माना नाम हैं. मल्होत्रा उतने मशहूर तो नहीं हैं मगर मनमोहन के पीएमओ पर उनका असर काफी है. आपको बता दें कि हाल तक आईआईएम, कोच्चि के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में मल्होत्रा, थॉमस और नायर, तीनों साथ-साथ थे.

2004 में कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत के बाद जैसे ही मनमोहन सिंह को पता चला कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है तो उन्होंने वोरा को अपने कार्यालय में प्रधान सचिव बनाने की इच्छा जाहिर की. ऐसा होने पर वोरा, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेएन दीक्षित और आंतरिक सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन के साथ  एक जबर्दस्त तिकड़ी बनाने वाले बन जाते. मगर ऐसा हुआ नहीं. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व द्वारा इसमें अड़ंगा लगा दिया गया. कहा यह गया कि रक्षा सचिव के तौर पर वोरा बोफोर्स मामले में उतने मददगार साबित नहीं हुए थे. मनमोहन वोरा को तब से जानते हैं जब वे अमृतसर में लेक्चरर थे. उन्होंनेे वोरा से सुझाव मांगा. वोरा ने नायर का नाम सुझाया. नायर तब पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज बोर्ड के चेयरमैन थे और वोरा की तरह वे भी पंजाब के मुख्य सचिव रह चुके थे.

शुरुआती हफ्तों में मनमोहन के पीएमओ में वर्चस्व की लड़ाई रही. हालांकि नायर इस सब से अलग ही रहते दिखे. उनके पास न दीक्षित जैसा कद था और न ही नारायणन जैसा प्रोफाइल. हालांकि वे 1997-98 में इंद्रकुमार गुजराल की सरकार के दौरान पीएमओ में बतौर सचिव रह चुके थे लेकिन उनके पास वह विराटता नहीं आ पाई थी जो प्रधान सचिवों के नाम के साथ जुड़ी होती है. न उनके पास बृजेश मिश्रा (अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के प्रधान सचिव) जैसी रणनीतिक कुशलता थी और न ही वे एएन वर्मा (नरसिम्हा राव के प्रधान सचिव) की तरह आर्थिक नीति के पंडित थे. उनकी योग्यता बस यही थी कि उन्हें कैसे भी हालात में टिके रहना आता था.

हालांकि पीएमओ में आने के छह महीने बाद ही दीक्षित का निधन हो गया था, मगर नारायणन ने फुर्ती दिखाते हुए आंतरिक सुरक्षा और एनएसए के प्रभार मिला दिए. आईबी के पूर्व मुखिया और चतुर राजनीतिक बुद्धि वाले नारायणन अब एक तरह से सुपर प्रधान सचिव बन गए थे. सरकार और व्यवस्था कैसे काम करती है इसका उन्हें जबर्दस्त ज्ञान था और इसी की बदौलत उन्होंने खुद को मनमोहन सिंह के लिए अपरिहार्य बना लिया था.

इसके अलावा और भी लोग थे जिनका वजन ज्यादा लगता था. मनमोहन के शुरुआती दिनों में पीएमओ में दो आईएएस अधिकारी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में थे. इनमें पहले थे बीवीआर सुब्रमण्यम जो प्रधानमंत्री के निजी सचिव थे. दूसरे पुलक चटर्जी जो प्रधानमंत्री के अतिरिक्त सचिव थे. चटर्जी पहले राजीव गांधी और फिर राजीव गांधी के नाम वाली फाउंडेशन को अपनी सेवाएं दे चुके थे. वे सोनिया गांधी के भी विश्वासपात्र थे और इस नाते कांग्रेस अध्यक्ष तक पहुंचने वाला पुल बन गए थे. सोनिया और मनमोहन के बीच तालमेल में उनकी कितनी अहमियत थी यह इससे समझा जा सकता है कि अहमद पटेल जिन्हें सोनिया का राजनीतिक एडीसी कहा जाता है, उनसे मिलने खुद साउथ ब्लॉक जाया करते थे. एक और नाम संजय बारू का है जो प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हुआ करते थे. बारू ने यह साफ कर दिया था कि उनकी जवाबदेही और वफादारी सिर्फ प्रधानमंत्री के लिए है.

2008 की गर्मियों में इन तीनों दिग्गजों ने पीएमओ को अलविदा कह दिया. चटर्जी और सुब्रमण्यम विश्व बैंक में चले गए और बारू सिंगापुर में एक थिंक टैंक को अपनी सेवाएं देने. कुछ ही महीनों बाद मुंबई पर आतंकी हमला हुआ और नारायणन सवालों के घेरे में आ गए. करीब एक साल तक ही वे बच पाए और जनवरी, 2010 में उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाकर कोलकाता भेज दिया गया

इस तरह कुछ जगहें खाली हो गईं. उनकी जगह नये लोग आए मगर कुछ भूमिकाएं फिर भी खाली ही रहीं. नारायणन के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की जिम्मेदारी संभालने वाले शिव शंकर मेनन विदेश सेवा के पुराने तजुर्बेकार थे. उन्हें आंतरिक सुरक्षा से ज्यादा कूटनीतिक मामलों में सहजता महसूस होती थी. दूसरे जूनियर अधिकारी अभी पीएमओ में सेटल हो रहे थे. ऐसे में जो संभव था उस पर नायर ने कब्जा कर लिया. उनके सहयोगी केएम चंद्रशेखर थे. कैबिनेट सचिव के तौर पर कई सेवा विस्तार पाने वाले चंद्रशेखर भी आईएएस के केरल कैडर से आने वाले मलयाली हैं.

नायर वैसे तो पंजाब कैडर के आईएएस हैं और  राज्य के मुख्य सचिव भी रह चुके हैं पर इन दिनों पंजाब से ज्यादा केरल के उनके रिश्ते चर्चा में हैं. इन रिश्तों में व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों तरह के हैं. नायर ने केरल में भी अपने करियर का करीब एक दशक गुजारा है. वे राज्यों में नौकरशाहों की अदला-बदली के चलते 1980 के दशक में वहां गए थे. बाद में उन्होंने केंद्रीय प्रतिनियुक्ति मांगी और मरीन प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी के मुखिया के तौर पर पांच साल अपनी सेवाएं दीं. कोच्चि स्थित यह संस्था वाणिज्य मंत्रालय के अधीन आती है. उनके एक परिचित का अनुमान है कि इस तजुर्बे के बाद ही सिविल सेवा में केरल से ताल्लुक रखने वाले उनके दोस्तों की संख्या पंजाब कैडर के उनके दोस्तों से ज्यादा हो गई.

एक पूर्व आईएएस अधिकारी कहते हैं, ‘मलयालियों को अनुपात से ज्यादा फायदा मिला है. यहां तक कि जब महालेखा नियंत्रक (कैग) की नियुक्ति होनी थी तो नायर को विनोद राय मिले जो मलयाली नहीं हैं मगर केरल कैडर से जरूर हैं.’ लेकिन पंजाब से नायर का ताल्लुक खत्म नहीं हुआ. मनमोहन के पीएमओ में आने के लिए उन्हें चंडीगढ़ में मौजूद अपने नेटवर्क का इस्तेमाल करना पड़ा. बताया जाता है कि वोरा के साथ अब उनका उतना संपर्क नहीं है. उनके एक जानकार कहते हैं, ‘दिल्ली में जैसा चलन है, उन्होंने भी उस सीढ़ी को लात मारना सीख लिया है जिससे वे ऊपर गए हैं.’ हालांकि मल्होत्रा से उनका अपनापा बरकरार है. मल्होत्रा का प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री आवास में आना-जाना है और वे प्रधानमंत्री के पसंदीदा हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी में बतौर जूनियर अधिकारी करियर शुरू करने वाले मल्होत्रा कभी मनमोहन के चंडीगढ़ स्थित घर में किराएदार हुआ करते थे जो उनके ही एक परिचित के शब्दों में कारोबारी और खुफिया समुदाय के साथ अपने विकसित कए गए संबंधों के जरिए राजनीतिक उद्यमी और इंदिरा गांधी के आंख-कान बन गए. मल्होत्रा की अहम उपलब्धि रही क्रिड की स्थापना. आज यह सरकार से अच्छी-खासी रकम पाने वाला संस्थान है जिसे कांग्रेस सरकारों के शासनकाल में खूब फायदा होता रहा है. उर्दू में बीए और सियोल की सूकम्यूंग विमंस यूनिवर्सिटी से डॉक्टर की मानद उपाधि प्राप्त मल्होत्रा समाज विज्ञानी से ज्यादा राजनीति के खिलाड़ी हैं. उन्होंने मनमोहन और नायर, दोनों को ही क्रिड की गवर्निंग बॉडी में आमंत्रित किया (दोनों अब भी यहां हैं) और इस तरह दोनों को नजदीक लाए.

मल्होत्रा के दामाद डीपीएस संधू हैं. रेलवे सर्विस के अधिकारी संधू पीएमओ में निदेशक हैं. बिना अपने मूल कैडर में वापस आए सरकार के सबसे अहम दफ्तर में उन्होंने सात साल गुजार लिए हैं. और उनके ससुर के अलावा नायर का भी इसमें योगदान है. हाल के महीनों में संधू ने मीडिया को साधने का काम शुरू किया है और वे प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे को बाइपास कर रहे हैं. एक ऐसा पीएमओ जिसका असमंजस लगातार बढ़ता दिखाई दे रहा है, के इस दोहरे रवैये का श्रेय भी नायर को ही जाता है.
नौकरशाह के रूप में नायर न तो राजनीतिक रूप से इतने वजनदार हैं जितने बृजेश मिश्रा थे या एमके नारायणन या फिर एनके सिंह. लेकिन उन्होंने पीएमओ की ट्रांसफर, पोस्टिंग और प्रमोशन करने की क्षमताओं को काफी हद तक साध लिया है. जिससे नौकरशाही में उनका कद खूब बढ़ा. अगर उनका थॉमस वाला दांव भी सीधा पड़ जाता तो सीवीसी की कुर्सी पर भी उनका ही उम्मीदवार नजर आता.  कुल मिलाकर    

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पीजे थॉमस किसके उम्मीदवार हैं? उत्सुकता मिश्रित यह सवाल दिल्ली की सत्ता के गलियारों में तभी से उछलने लगा था जब सितंबर, 2010 में विवादास्पद परिस्थितियों में उनकी मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर नियुक्ति हुई थी. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी नियुक्ति रद्द किए जाने के बाद इस सवाल ने एक नयी अहमियत अख्तियार कर ली है. कई तरह की चर्चाएं हो रही हैं. कुछ का कहना है कि थॉमस या फिर उनकी पत्नी केरल से ताल्लुक रखने वाले एक कांग्रेसी नेता के रिश्तेदार हैं. कुछ दूसरों का इशारा पहले राजीव और फिर सोनिया गांधी के निजी स्टाफ में शामिल रह चुके गांधी परिवार के एक विश्वासपात्र के साथ थॉमस के कथित संबंधों की तरफ है.

का दबाव’ होने का मुद्दा उसमें भी उठा. माना जाता है कि प्रधानमंत्री ने पहले-पहल अपना बचाव कुछ इसी तर्ज पर करने की कोशिश भी की. सूत्र बताते हैं कि इस पर प्रधानमंत्री से कहा गया कि वे स्पष्ट तौर पर बताएं कि कांग्रेस में किसने थॉमस की दावेदारी को आगे बढ़ाया था. उनसे कहा गया कि इसकी बजाय उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में अपने इर्द-गिर्द के लोगों पर भी ध्यान देना चाहिए. देवास-इसरो समझौते से लेकर थॉमस की नियुक्ति तक पर सरकार की जैसी किरकिरी हुई है उससे प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रति कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का असंतोष बढ़ता ही जा रहा है.

सवाल कई हैं. पीएओ को आखिर चलाता कौन है? नौकरशाही के अलग-अलग हलकों में कुछ मजाक और कुछ तंज के साथ कही जाने वाली इस बात में कितना वजन है कि यूपीए के राज में मल्लुओं (मलयाली यानी केरल निवासी) की मौज है. क्या वास्तव में कोई केरल लॉबी है जो चुपचाप यूपीए सरकार के दिमाग के तौर पर काम कर रही है?

ये सारे सवाल एक ही शख्स की तरफ इशारा करते हैं और वह शख्स है टीकेए नायर. पीएमओ में प्रधान सचिव नायर पर ही थॉमस का मददगार और देवास का संरक्षक होने के आरोप लग रहे हैं. कुछ अपनी काबिलियत और कुछ परिस्थितियों की वजह से नायर पीएमओ में मौजूद सबसे ताकतवर व्यक्ति के रूप में उभरे हैं. 2004 में जब उन्हें प्रधान सचिव का पद दिया गया था तब यह स्थिति नहीं थी. नायर की इस अभूतपूर्व तरक्की से वे दो लोग भी हैरान हैं जिन्होंने उन्हें पीएमओ तक पहुंचाया. इनमें पहले हैं पूर्व गृह और सुरक्षा सचिव तथा वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोरा. दूसरे हैं सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एेंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट (क्रिड), चंडीगढ़ के एक्जीक्यूटिव वाइस चेयरमैन रशपाल मल्होत्रा. वोरा जाना-माना नाम हैं. मल्होत्रा उतने मशहूर तो नहीं हैं मगर मनमोहन के पीएमओ पर उनका असर काफी है. आपको बता दें कि हाल तक आईआईएम, कोच्चि के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में मल्होत्रा, थॉमस और नायर, तीनों साथ-साथ थे.

2004 में कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत के बाद जैसे ही मनमोहन सिंह को पता चला कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है तो उन्होंने वोरा को अपने कार्यालय में प्रधान सचिव बनाने की इच्छा जाहिर की. ऐसा होने पर वोरा, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेएन दीक्षित और आंतरिक सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन के साथ  एक जबर्दस्त तिकड़ी बनाने वाले बन जाते. मगर ऐसा हुआ नहीं. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व द्वारा इसमें अड़ंगा लगा दिया गया. कहा यह गया कि रक्षा सचिव के तौर पर वोरा बोफोर्स मामले में उतने मददगार साबित नहीं हुए थे. मनमोहन वोरा को तब से जानते हैं जब वे अमृतसर में लेक्चरर थे. उन्होंनेे वोरा से सुझाव मांगा. वोरा ने नायर का नाम सुझाया. नायर तब पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज बोर्ड के चेयरमैन थे और वोरा की तरह वे भी पंजाब के मुख्य सचिव रह चुके थे.

शुरुआती हफ्तों में मनमोहन के पीएमओ में वर्चस्व की लड़ाई रही. हालांकि नायर इस सब से अलग ही रहते दिखे. उनके पास न दीक्षित जैसा कद था और न ही नारायणन जैसा प्रोफाइल. हालांकि वे 1997-98 में इंद्रकुमार गुजराल की सरकार के दौरान पीएमओ में बतौर सचिव रह चुके थे लेकिन उनके पास वह विराटता नहीं आ पाई थी जो प्रधान सचिवों के नाम के साथ जुड़ी होती है. न उनके पास बृजेश मिश्रा (अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के प्रधान सचिव) जैसी रणनीतिक कुशलता थी और न ही वे एएन वर्मा (नरसिम्हा राव के प्रधान सचिव) की तरह आर्थिक नीति के पंडित थे. उनकी योग्यता बस यही थी कि उन्हें कैसे भी हालात में टिके रहना आता था.

हालांकि पीएमओ में आने के छह महीने बाद ही दीक्षित का निधन हो गया था, मगर नारायणन ने फुर्ती दिखाते हुए आंतरिक सुरक्षा और एनएसए के प्रभार मिला दिए. आईबी के पूर्व मुखिया और चतुर राजनीतिक बुद्धि वाले नारायणन अब एक तरह से सुपर प्रधान सचिव बन गए थे. सरकार और व्यवस्था कैसे काम करती है इसका उन्हें जबर्दस्त ज्ञान था और इसी की बदौलत उन्होंने खुद को मनमोहन सिंह के लिए अपरिहार्य बना लिया था.

इसके अलावा और भी लोग थे जिनका वजन ज्यादा लगता था. मनमोहन के शुरुआती दिनों में पीएमओ में दो आईएएस अधिकारी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में थे. इनमें पहले थे बीवीआर सुब्रमण्यम जो प्रधानमंत्री के निजी सचिव थे. दूसरे पुलक चटर्जी जो प्रधानमंत्री के अतिरिक्त सचिव थे. चटर्जी पहले राजीव गांधी और फिर राजीव गांधी के नाम वाली फाउंडेशन को अपनी सेवाएं दे चुके थे. वे सोनिया गांधी के भी विश्वासपात्र थे और इस नाते कांग्रेस अध्यक्ष तक पहुंचने वाला पुल बन गए थे. सोनिया और मनमोहन के बीच तालमेल में उनकी कितनी अहमियत थी यह इससे समझा जा सकता है कि अहमद पटेल जिन्हें सोनिया का राजनीतिक एडीसी कहा जाता है, उनसे मिलने खुद साउथ ब्लॉक जाया करते थे. एक और नाम संजय बारू का है जो प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हुआ करते थे. बारू ने यह साफ कर दिया था कि उनकी जवाबदेही और वफादारी सिर्फ प्रधानमंत्री के लिए है.

2008 की गर्मियों में इन तीनों दिग्गजों ने पीएमओ को अलविदा कह दिया. चटर्जी और सुब्रमण्यम विश्व बैंक में चले गए और बारू सिंगापुर में एक थिंक टैंक को अपनी सेवाएं देने. कुछ ही महीनों बाद मुंबई पर आतंकी हमला हुआ और नारायणन सवालों के घेरे में आ गए. करीब एक साल तक ही वे बच पाए और जनवरी, 2010 में उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाकर कोलकाता भेज दिया गया

इस तरह कुछ जगहें खाली हो गईं. उनकी जगह नये लोग आए मगर कुछ भूमिकाएं फिर भी खाली ही रहीं. नारायणन के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की जिम्मेदारी संभालने वाले शिव शंकर मेनन विदेश सेवा के पुराने तजुर्बेकार थे. उन्हें आंतरिक सुरक्षा से ज्यादा कूटनीतिक मामलों में सहजता महसूस होती थी. दूसरे जूनियर अधिकारी अभी पीएमओ में सेटल हो रहे थे. ऐसे में जो संभव था उस पर नायर ने कब्जा कर लिया. उनके सहयोगी केएम चंद्रशेखर थे. कैबिनेट सचिव के तौर पर कई सेवा विस्तार पाने वाले चंद्रशेखर भी आईएएस के केरल कैडर से आने वाले मलयाली हैं.

नायर वैसे तो पंजाब कैडर के आईएएस हैं और  राज्य के मुख्य सचिव भी रह चुके हैं पर इन दिनों पंजाब से ज्यादा केरल के उनके रिश्ते चर्चा में हैं. इन रिश्तों में व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों तरह के हैं. नायर ने केरल में भी अपने करियर का करीब एक दशक गुजारा है. वे राज्यों में नौकरशाहों की अदला-बदली के चलते 1980 के दशक में वहां गए थे. बाद में उन्होंने केंद्रीय प्रतिनियुक्ति मांगी और मरीन प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी के मुखिया के तौर पर पांच साल अपनी सेवाएं दीं. कोच्चि स्थित यह संस्था वाणिज्य मंत्रालय के अधीन आती है. उनके एक परिचित का अनुमान है कि इस तजुर्बे के बाद ही सिविल सेवा में केरल से ताल्लुक रखने वाले उनके दोस्तों की संख्या पंजाब कैडर के उनके दोस्तों से ज्यादा हो गई.

एक पूर्व आईएएस अधिकारी कहते हैं, ‘मलयालियों को अनुपात से ज्यादा फायदा मिला है. यहां तक कि जब महालेखा नियंत्रक (कैग) की नियुक्ति होनी थी तो नायर को विनोद राय मिले जो मलयाली नहीं हैं मगर केरल कैडर से जरूर हैं.’ लेकिन पंजाब से नायर का ताल्लुक खत्म नहीं हुआ. मनमोहन के पीएमओ में आने के लिए उन्हें चंडीगढ़ में मौजूद अपने नेटवर्क का इस्तेमाल करना पड़ा. बताया जाता है कि वोरा के साथ अब उनका उतना संपर्क नहीं है. उनके एक जानकार कहते हैं, ‘दिल्ली में जैसा चलन है, उन्होंने भी उस सीढ़ी को लात मारना सीख लिया है जिससे वे ऊपर गए हैं.’ हालांकि मल्होत्रा से उनका अपनापा बरकरार है. मल्होत्रा का प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री आवास में आना-जाना है और वे प्रधानमंत्री के पसंदीदा हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी में बतौर जूनियर अधिकारी करियर शुरू करने वाले मल्होत्रा कभी मनमोहन के चंडीगढ़ स्थित घर में किराएदार हुआ करते थे जो उनके ही एक परिचित के शब्दों में कारोबारी और खुफिया समुदाय के साथ अपने विकसित कए गए संबंधों के जरिए राजनीतिक उद्यमी और इंदिरा गांधी के आंख-कान बन गए. मल्होत्रा की अहम उपलब्धि रही क्रिड की स्थापना. आज यह सरकार से अच्छी-खासी रकम पाने वाला संस्थान है जिसे कांग्रेस सरकारों के शासनकाल में खूब फायदा होता रहा है. उर्दू में बीए और सियोल की सूकम्यूंग विमंस यूनिवर्सिटी से डॉक्टर की मानद उपाधि प्राप्त मल्होत्रा समाज विज्ञानी से ज्यादा राजनीति के खिलाड़ी हैं. उन्होंने मनमोहन और नायर, दोनों को ही क्रिड की गवर्निंग बॉडी में आमंत्रित किया (दोनों अब भी यहां हैं) और इस तरह दोनों को नजदीक लाए.

मल्होत्रा के दामाद डीपीएस संधू हैं. रेलवे सर्विस के अधिकारी संधू पीएमओ में निदेशक हैं. बिना अपने मूल कैडर में वापस आए सरकार के सबसे अहम दफ्तर में उन्होंने सात साल गुजार लिए हैं. और उनके ससुर के अलावा नायर का भी इसमें योगदान है. हाल के महीनों में संधू ने मीडिया को साधने का काम शुरू किया है और वे प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हरीश खरे को बाइपास कर रहे हैं. एक ऐसा पीएमओ जिसका असमंजस लगातार बढ़ता दिखाई दे रहा है, के इस दोहरे रवैये का श्रेय भी नायर को ही जाता है.
नौकरशाह के रूप में नायर न तो राजनीतिक रूप से इतने वजनदार हैं जितने बृजेश मिश्रा थे या एमके नारायणन या फिर एनके सिंह. लेकिन उन्होंने पीएमओ की ट्रांसफर, पोस्टिंग और प्रमोशन करने की क्षमताओं को काफी हद तक साध लिया है. जिससे नौकरशाही में उनका कद खूब बढ़ा. अगर उनका थॉमस वाला दांव भी सीधा पड़ जाता तो सीवीसी की कुर्सी पर भी उनका ही उम्मीदवार नजर आता.  कुल मिलाकर    

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पीजे थॉमस किसके उम्मीदवार हैं? उत्सुकता मिश्रित यह सवाल दिल्ली की सत्ता के गलियारों में तभी से उछलने लगा था जब सितंबर, 2010 में विवादास्पद परिस्थितियों में उनकी मुख्य सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) के पद पर नियुक्ति हुई थी. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनकी नियुक्ति रद्द किए जाने के बाद इस सवाल ने एक नयी अहमियत अख्तियार कर ली है. कई तरह की चर्चाएं हो रही हैं. कुछ का कहना है कि थॉमस या फिर उनकी पत्नी केरल से ताल्लुक रखने वाले एक कांग्रेसी नेता के रिश्तेदार हैं. कुछ दूसरों का इशारा पहले राजीव और फिर सोनिया गांधी के निजी स्टाफ में शामिल रह चुके गांधी परिवार के एक विश्वासपात्र के साथ थॉमस के कथित संबंधों की तरफ है.

का दबाव’ होने का मुद्दा उसमें भी उठा. माना जाता है कि प्रधानमंत्री ने पहले-पहल अपना बचाव कुछ इसी तर्ज पर करने की कोशिश भी की. सूत्र बताते हैं कि इस पर प्रधानमंत्री से कहा गया कि वे स्पष्ट तौर पर बताएं कि कांग्रेस में किसने थॉमस की दावेदारी को आगे बढ़ाया था. उनसे कहा गया कि इसकी बजाय उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में अपने इर्द-गिर्द के लोगों पर भी ध्यान देना चाहिए. देवास-इसरो समझौते से लेकर थॉमस की नियुक्ति तक पर सरकार की जैसी किरकिरी हुई है उससे प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रति कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का असंतोष बढ़ता ही जा रहा है.

सवाल कई हैं. पीएओ को आखिर चलाता कौन है? नौकरशाही के अलग-अलग हलकों में कुछ मजाक और कुछ तंज के साथ कही जाने वाली इस बात में कितना वजन है कि यूपीए के राज में मल्लुओं (मलयाली यानी केरल निवासी) की मौज है. क्या वास्तव में कोई केरल लॉबी है जो चुपचाप यूपीए सरकार के दिमाग के तौर पर काम कर रही है?

ये सारे सवाल एक ही शख्स की तरफ इशारा करते हैं और वह शख्स है टीकेए नायर. पीएमओ में प्रधान सचिव नायर पर ही थॉमस का मददगार और देवास का संरक्षक होने के आरोप लग रहे हैं. कुछ अपनी काबिलियत और कुछ परिस्थितियों की वजह से नायर पीएमओ में मौजूद सबसे ताकतवर व्यक्ति के रूप में उभरे हैं. 2004 में जब उन्हें प्रधान सचिव का पद दिया गया था तब यह स्थिति नहीं थी. नायर की इस अभूतपूर्व तरक्की से वे दो लोग भी हैरान हैं जिन्होंने उन्हें पीएमओ तक पहुंचाया. इनमें पहले हैं पूर्व गृह और सुरक्षा सचिव तथा वर्तमान में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोरा. दूसरे हैं सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एेंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट (क्रिड), चंडीगढ़ के एक्जीक्यूटिव वाइस चेयरमैन रशपाल मल्होत्रा. वोरा जाना-माना नाम हैं. मल्होत्रा उतने मशहूर तो नहीं हैं मगर मनमोहन के पीएमओ पर उनका असर काफी है. आपको बता दें कि हाल तक आईआईएम, कोच्चि के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में मल्होत्रा, थॉमस और नायर, तीनों साथ-साथ थे.

2004 में कांग्रेस की अप्रत्याशित जीत के बाद जैसे ही मनमोहन सिंह को पता चला कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाया जा रहा है तो उन्होंने वोरा को अपने कार्यालय में प्रधान सचिव बनाने की इच्छा जाहिर की. ऐसा होने पर वोरा, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेएन दीक्षित और आंतरिक सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन के साथ  एक जबर्दस्त तिकड़ी बनाने वाले बन जाते. मगर ऐसा हुआ नहीं. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व द्वारा इसमें अड़ंगा लगा दिया गया. कहा यह गया कि रक्षा सचिव के तौर पर वोरा बोफोर्स मामले में उतने मददगार साबित नहीं हुए थे. मनमोहन वोरा को तब से जानते हैं जब वे अमृतसर में लेक्चरर थे. उन्होंनेे वोरा से सुझाव मांगा. वोरा ने नायर का नाम सुझाया. नायर तब पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइजेज बोर्ड के चेयरमैन थे और वोरा की तरह वे भी पंजाब के मुख्य सचिव रह चुके थे.

शुरुआती हफ्तों में मनमोहन के पीएमओ में वर्चस्व की लड़ाई रही. हालांकि नायर इस सब से अलग ही रहते दिखे. उनके पास न दीक्षित जैसा कद था और न ही नारायणन जैसा प्रोफाइल. हालांकि वे 1997-98 में इंद्रकुमार गुजराल की सरकार के दौरान पीएमओ में बतौर सचिव रह चुके थे लेकिन उनके पास वह विराटता नहीं आ पाई थी जो प्रधान सचिवों के नाम के साथ जुड़ी होती है. न उनके पास बृजेश मिश्रा (अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के प्रधान सचिव) जैसी रणनीतिक कुशलता थी और न ही वे एएन वर्मा (नरसिम्हा राव के प्रधान सचिव) की तरह आर्थिक नीति के पंडित थे. उनकी योग्यता बस यही थी कि उन्हें कैसे भी हालात में टिके रहना आता था.

हालांकि पीएमओ में आने के छह महीने बाद ही दीक्षित का निधन हो गया था, मगर नारायणन ने फुर्ती दिखाते हुए आंतरिक सुरक्षा और एनएसए के प्रभार मिला दिए. आईबी के पूर्व मुखिया और चतुर राजनीतिक बुद्धि वाले नारायणन अब एक तरह से सुपर प्रधान सचिव बन गए थे. सरकार और व्यवस्था कैसे काम करती है इसका उन्हें जबर्दस्त ज्ञान था और इसी की बदौलत उन्होंने खुद को मनमोहन सिंह के लिए अपरिहार्य बना लिया था.

इसके अलावा और भी लोग थे जिनका वजन ज्यादा लगता था. मनमोहन के शुरुआती दिनों में पीएमओ में दो आईएएस अधिकारी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में थे. इनमें पहले थे बीवीआर सुब्रमण्यम जो प्रधानमंत्री के निजी सचिव थे. दूसरे पुलक चटर्जी जो प्रधानमंत्री के अतिरिक्त सचिव थे. चटर्जी पहले राजीव गांधी और फिर राजीव गांधी के नाम वाली फाउंडेशन को अपनी सेवाएं दे चुके थे. वे सोनिया गांधी के भी विश्वासपात्र थे और इस नाते कांग्रेस अध्यक्ष तक पहुंचने वाला पुल बन गए थे. सोनिया और मनमोहन के बीच तालमेल में उनकी कितनी अहमियत थी यह इससे समझा जा सकता है कि अहमद पटेल जिन्हें सोनिया का राजनीतिक एडीसी कहा जाता है, उनसे मिलने खुद साउथ ब्लॉक जाया करते थे. एक और नाम संजय बारू का है जो प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार हुआ करते थे. बारू ने यह साफ कर दिया था कि उनकी जवाबदेही और वफादारी सिर्फ प्रधानमंत्री के लिए है.

2008 की गर्मियों में इन तीनों दिग्गजों ने पीएमओ को अलविदा कह दिया. चटर्जी और सुब्रमण्यम विश्व बैंक में चले गए और बारू सिंगापुर में एक थिंक टैंक को अपनी सेवाएं देने. कुछ ही महीनों बाद मुंबई पर आतंकी हमला हुआ और नारायणन सवालों के घेरे में आ गए. करीब एक साल तक ही वे बच पाए और जनवरी, 2010 में उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाकर कोलकाता भेज दिया गया

इस तरह कुछ जगहें खाली हो गईं. उनकी जगह नये लोग आए मगर कुछ भूमिकाएं फिर भी खाली ही रहीं. नारायणन के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की जिम्मेदारी संभालने वाले शिव शंकर मेनन विदेश सेवा के पुराने तजुर्बेकार थे. उन्हें आंतरिक सुरक्षा से ज्यादा कूटनीतिक मामलों में सहजता महसूस होती थी. दूसरे जूनियर अधिकारी अभी पीएमओ में सेटल हो रहे थे. ऐसे में जो संभव था उस पर नायर ने कब्जा कर लिया. उनके सहयोगी केएम चंद्रशेखर थे. कैबिनेट सचिव के तौर पर कई सेवा विस्तार पाने वाले चंद्रशेखर भी आईएएस के केरल कैडर से आने वाले मलयाली हैं.

नायर वैसे तो पंजाब कैडर के आईएएस हैं और  राज्य के मुख्य सचिव भी रह चुके हैं पर इन दिनों पंजाब से ज्यादा केरल के उनके रिश्ते चर्चा में हैं. इन रिश्तों में व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों तरह के हैं. नायर ने केरल में भी अपने करियर का करीब एक दशक गुजारा है. वे राज्यों में नौकरशाहों की अदला-बदली के चलते 1980 के दशक में वहां गए थे. बाद में उन्होंने केंद्रीय प्रतिनियुक्ति मांगी और मरीन प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथॉरिटी के मुखिया के तौर पर पांच साल अपनी सेवाएं दीं. कोच्चि स्थित यह संस्था वाणिज्य मंत्रालय के अधीन आती है. उनके एक परिचित का अनुमान है कि इस तजुर्बे के बाद ही सिविल सेवा में केरल से ताल्लुक रखने वाले उनके दोस्तों की संख्या पंजाब कैडर के उनके दोस्तों से ज्यादा हो गई.

एक पूर्व आईएएस अधिकारी कहते हैं, ‘मलयालियों को अनुपात से ज्यादा फायदा मिला है. यहां तक कि जब महालेखा नियंत्रक (कैग) की नियुक्ति होनी थी तो नायर को विनोद राय मिले जो मलयाली नहीं हैं मगर केरल कैडर से जरूर हैं.’ लेकिन पंजाब से नायर का ताल्लुक खत्म नहीं हुआ. मनमोहन के पीएमओ में आने के लिए उन्हें चंडीगढ़ में मौजूद अपने नेटवर्क का इस्तेमाल करना पड़ा. बताया जाता है कि वोरा के साथ अब उनका उतना संपर्क नहीं है. उनके एक जानकार कहते हैं, ‘दिल्ली में जैसा चलन है, उन्होंने भी उस सीढ़ी को लात मारना सीख लिया है जिससे वे ऊपर गए हैं.’ हालांकि मल्होत्रा से उनका अपनापा बरकरार है. मल्होत्रा का प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री आवास में आना-जाना है और वे प्रधानमंत्री के पसंदीदा हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी में बतौर जूनियर अधिकारी करियर शुरू करने वाले मल्होत्रा कभी मनमोहन के चंडीगढ़ स्थित घर में किराएदार हुआ करते थे जो उनके ही एक परिचित के शब्दों में कारोबारी और खुफिया समुदाय के साथ अपने विकसित कए गए संबंधों के जरिए राजनीतिक उद्यमी और इंदिरा गांधी के आंख-कान बन गए. मल्होत्रा की अहम उपलब्धि रही क्रिड की स्थापना. आज यह सरकार से अच्छी-खासी रकम पाने वाला संस्थान है जिसे कांग्रेस सरकारों के शासनकाल में खूब फायदा होता रहा है. उर्दू में बीए और सियोल की सूकम्यूंग विमंस यूनिवर्सिटी से डॉक्टर की मानद उपाधि प्राप्त मल्होत्रा समाज विज्ञानी से ज्यादा राजनीति के खिलाड़ी हैं. उन्होंने मनमोहन और नायर, दोनों को ही क्रिड की गवर्निंग बॉडी में आमंत्रित किया (दोनों अब भी यहां हैं) और इस तरह दोनों को नजदीक लाए.

मजबूरी का मौन