रचनाकार अगर एक्टिविस्ट भी हो तो उसकी रचनाओं की धार अलग नजर आती है. गीता गैरोला के कविता संग्रह नूपीलान की मायरा पायबी (स्त्री युद्ध की जलती मशालें) की कविताएं इस बात का सटीक उदाहरण हैं. इरोम शर्मिला के साथ-साथ देश और दुनिया की तमाम संघर्षरत महिलाओं को समर्पित इन कविताओं के जरिए कवयित्री चुप्पी और आवाज के बीच एक पुल कायम करना चाहती हैं. शायद इसीलिए बोल की लब आजाद हैं तेरे शीर्षक वाली कविता में वह कहती हैं-
बोलने की कीमत चुकानी होगी/ न बोलने की कीमत भी देनी ही होगी/ तब तय करें/ बोल कर मरना सार्थक है/ या बिना बोले.
संग्रह में प्रकाशित 95 कविताओं को पढ़ते हुए स्त्री विमर्श और स्त्री संघर्ष को एकदम अलग-अलग ढंग से रेखांकित किया जा सकता है. ये कविताएं महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन से जुड़े संघर्षों की कविताएं हैं. एक बानगी देखिए-
बस बनाना ही है/ एक घर लाल खपरैलों वाला/ नन्हा सा-मुच्ची सा/ जिसकी खिड़की खुलती हो/ घने बांस के जंगल में/ जहां चहलकदमी करते हों/ गुच्छे के गुच्छे बुरांश.
उत्तराखंड के शराबबंदी आंदोलन, जल जंगल जमीन के हक की लड़ाई लड़ चुकी तथा उत्तराखंड राज्य के गठन के लिए चले आंदोलन का हिस्सा रही गीता गैरोला की कविताओं का मूल स्वर स्त्री है. यह स्त्री कहीं बेटी है, कहीं प्रेमिका, कहीं घरेलू स्त्री तो कहीं वह इरोम शर्मिला के प्रतीक के जरिये न केवल उनके अदम्य संघर्ष को अपना नैतिक समर्थन देती हैं बल्कि उसके जरिये एक नए बदलाव की आकांक्षा भी पालती हैं.
उनकी कविताओं में स्त्रियां तो हैं ही. इसके अलावा पहाड़, जंगल, आंतरिक द्वंद्व से लेकर दंतेवाड़ा और गोधरा तक कवयित्री की चिंताओं में शामिल हैं. रही बात हमारे आसपास की दुनिया की तो यह कहना होगा कि दुनिया का कारोबार तो चलता ही रहता है आप उस पर ध्यान दें अथवा न दें लेकिन अगर आप उसे एक संवेदनशील स्त्री की नजर से देखना चाहते हैं तो इस संग्रह को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए.