पप्पू जायसवाल गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के इमरजेंसी वार्ड में पड़े हैं. कमर में गोली लगने से गंभीर रूप से घायल यह शख्स अब अपने बच्चों का पेट पालने के लिए शायद ही पहले की तरह मजदूरी कर पाए. जायसवाल की अनपढ़ पत्नी संगीता और उनके रिश्तेदार हर आने-जाने वाले से बस एक ही सवाल करते हैं, ‘क्या मजदूर को अपने हक की बात करने का कोई अधिकार नहीं?’ जायसवाल उन डेढ़ दर्जन मजदूरों में से हैं जिन्हें अपने हक के लिए आवाज उठाने की सजा भुगतनी पड़ी. तीन मई को अंकुर उद्योग धागा फैक्टरी के बाहर सभा कर अपने अधिकार मांग रहे इन निहत्थे मजदूरों पर गोलियां चलीं जिसमें वे और उनके कई साथी घायल हो गए.
सवाल उठता है कि कमरतोड़ मेहनत करने के बाद परिवार के लिए दो जून की रोटी का बंदोबस्त करने वाले मजदूर आखिर इतने मजबूर क्यों हुए कि उन्हें आंदोलन की राह पकड़नी पड़ी. मजदूर चंद्र भूषण बताते हैं, ‘तीन साल पहले मजदूरों को 12 घंटे काम करना पड़ता था. किसी भी मजदूर को न तो साप्ताहिक अवकाश मिलता था न ही किसी का पीएफ व ईएसआई कटता था. अधिकांश मजदूरों का नाम हाजिरी रजिस्टर पर भी अंकित नहीं होता था. न्यूनतम वेतन से कम वेतन मिलना आम बात थी. मालिक जब चाहे किसी को भी निकाल बाहर कर देता. कुछ संगठनों ने मजदूरों को संगठित कर उन्हें श्रम कानूनों से अवगत कराने का प्रयास किया. मजदूर जागरूक हुए. अपने हक-हुकूक के लिए आवाज उठाने लगे. दो साल के शांतिपूर्ण आंदोलन के बाद उद्योगों में काम के आठ घंटे निर्धारित होने के साथ ही मजदूरों को साप्ताहिक अवकाश आदि की सुविधा तो मिल गई लेकिन सरकार की ओर से मजदूरों के लिए लागू न्यूनतम वेतन, ओवर टाइम का अतिरिक्त भुगतान, काम की जगह पर सुरक्षा के व्यापक प्रबंध जैसी मूलभूत सुविधाएं फिर भी अनदेखी रहीं. इन्हें लागू किए जाने को लेकर कामगार अभी भी संयुक्त मजदूर अधिकार संघर्ष मोर्चा के बैनर तले अपनी आवाज उठाते रहते हैं.’
मोर्चे की अगअाई कर रहे तपिश बताते हैं, ‘हजारों कामगार अपनी मांगों से संबंधित एक मांगपत्रक संसद को सौंपने के लिए मजदूर दिवस के दिन एक मई को दिल्ली गए हुए थे. इससे पहले उन्होंने लिखित रूप से प्रबंधन को बता दिया था कि 30 अप्रैल व दो मई को वे सभी अवकाश पर रहेंगे. दिल्ली से लौटकर अंकुर उद्योग के सभी मजदूर जब तीन मई की सुबह छह बजे कंपनी में पहुंचे तो उन्हें भीतर नहीं जाने दिया गया.’ प्रबंधन ने कंपनी के मुख्यद्वार पर ही 18 मजदूरों के निलंबन का नोटिस चस्पा कर दिया था. इससे नाराज होकर सारे मजदूर मुख्यद्वार पर ही सभा करने लगे. करीब एक घंटे बाद कंपनी के एक प्रतिनिधि बाहर आए और बताया कि जिन लोगों को निलंबित किया गया है उनको छोड़कर सभी मजदूर काम पर वापस आ सकते हैं. तपिश बताते हैं, ‘कंपनी प्रबंधन की इस बात से मजदूर सहमत नहीं थे, इसलिए हम गेट के पास ही धरने पर बैठे रहे. इस बीच श्रम विभाग के अधिकारियों को भी पूरी जानकारी फोन से दे दी गई लेकिन कोई नहीं आया.’
मजदूर वीरेंद्र कुमार बताते हैं, ‘आठ बजे कंपनी से कुछ हथियारबंद लोग बाहर आए और मजदूरों को जबरन पकड़कर गेट के अंदर ले जाने लगे. साथियों को छुड़ाने के लिए जैसे ही मजदूर आगे बढ़े, हथियारबंद लोगों ने फायरिंग शुरू कर दी. अफरा-तफरी मच गई. मजदूर इधर-उधर भागने लगे. थोड़ी देर बाद पता चला कि वहां हमारे 18 साथियों को गोली के छर्रे लगे थे.’
सबसे हैरत भरा रहा पुलिस-प्रशासन का रवैया. घायल मजदूर ध्रुव सिंह के मुताबिक जिस स्थान पर घटना हुई उससे कुछ दूरी पर स्थानीय थाने के दो पुलिसकर्मी मोटरसाइकिल पर खड़े थे लेकिन उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं किया. कुछ मजदूर भागकर जब सिपाहियों के पास मदद मांगने गए तो जवाब मिला कि क्या अपनी जान भी गंवा दें. मजदूरों का आरोप है कि घटना के करीब एक घंटे बाद पुलिस मौके पर पहुंची. ‘
उधर, अंकुर उद्योग के मालिक अशोक जालान तीन मई की घटना के लिए मजदूरों को कम उन लोगों को अधिक जिम्मेदार ठहराते हैं जिनके इशारे पर मजदूरों ने 30 अप्रैल से दो मई तक कंपनी में तालाबंदी की थी. जालान कहते हैं, ‘दिल्ली जाने वाले कामगारों की संख्या महज 35-40 थी. 30 अप्रैल को जब मजदूर काम पर आए तो कुछ लोग झंडे बैनर आदि लेकर गेट के बाहर खड़े थे और जो भी मजदूर काम करने के लिए आता था उसे वापस यह कहकर भेज देते थे कि कंपनी दो मई तक बंद है.’ जालान का आरोप है कि तीन मई की सुबह पहले मजदूरों से वार्ता का प्रयास किया गया था जिस पर उन्होंने पथराव शुरू कर दिया और जबरन कंपनी में घुसने लगे. उन्होंने बताया कि मजदूरों को उपद्रव करते देखकर गार्ड ने हवाई फायरिंग कर दी.
फिलहाल गंभीर रूप से घायल जायसवाल अस्पताल में हैं और औद्योगिक क्षेत्र में एसएलआर और इंसास जैसे स्वचालित हथियारों से लैस पुलिस व पीएसी के जवान मजदूरों की निगरानी में ऐसे मुस्तैद हैं मानो वे गरीब कामगार नहीं बल्कि आतंकवादी हों.