केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में संशोधन कर दिया है. सालभर के भीतर दूसरी बार संशोधन की नौबत क्यों आई? बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सरकार के इस निर्णय से होनेवाले असर को लेकर कड़ा ऐतराज जताया है, लेकिन उनकी आवाज दबती दिख रही है. नए संशोधन में मूल अधिनियम की 13 धाराओं को बदला गया है. यह बदलाव कार्यकर्ताओं और किसानों के लिए एक बड़ा झटका है. खास तौर पर किसानों के लिए यह संशोधन काफी अहम है क्योंकि इसका वास्तविक असर उन्हीं पर पड़ना है. किसानों के लिए कुठाराघात इसलिए भी है कि वे इस सरकार से अपने लिए एक उचित और संवेदनशील नजरिए की अपेक्षा कर रहे थे. यह अध्यादेश 31 दिसंबर 2014 को लागू हो गया.
सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने इसके विरोध में आवाज बुलंद करते हुए कहा कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 को संशोधित करने के लिए केंद्र सरकार ने संसद के बाहर का रास्ता अपनाया है, जो भारतीय संविधान की मूल भावना के खिलाफ है. पाटकर ने इसे अलोकतांत्रिक और उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने की कोशिश करार दिया है. कांग्रेस ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि उसने इस अध्यादेश के जरिए किसानों से वे सारे अधिकार छीन लिए हैं जो उन्हें यूपीए सरकार ने दिए थे. पूर्व मंत्री और वयोवृद्ध कांग्रेस नेता एएच विश्वनाथ ने यह अध्यादेश लाने के केंद्र के निर्णय के खिलाफ पोस्ट कार्ड अभियान शुरू किया है.
इस संशोधन के खिलाफ आदिवासी नेता और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने राज्यव्यापी विरोध आरंभ कर दिया है. उन्होंने कहा कि यह संशोधन जहां संवैधानिक प्रक्रिया के विरुद्ध है, वहीं यह आदिवासियों व किसानों के हितों पर गहरा आघात है. विभिन्न प्रगतिवादी लोकतांत्रिक संगठनों और कार्यकर्ताओं ने इस अध्यादेश के विरोध में भारत के राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया है.
पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्यसभा सांसद जयराम रमेश बताते हैं, ‘वित्तमंत्री अरुण जेटली और उनके सहयोगी जिस तरह के संकेत दे रहे थे, उनके मुताबिक भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 में संशोधन तो अपेक्षित थे, लेकिन यह काम अध्यादेश के जरिए किया जाना उन लोगों को भी चौंका गया जो इन संशोधनों के पक्षधर थे.’
अधिनियम में जो ताजा संशोधन किए गए हैं उन्हें देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि भूमि अधिग्रहित करनेवाले के हितों की रक्षा पर ही इसका सारा जोर है. जाहिर है इसका खामियाजा उन किसानों को उठाना पड़ेगा जिनकी जमीने अधिग्रहीत होंगी. उचित मुआवजे का अधिकार एवं भूमि अधिग्रहण में पारदर्शिता, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना अधिनियम 2013 के अध्याय तीन और धारा 10 में एक नया अध्याय तीन-अ और धारा 10-अ जोड़ी गई है. इस नई धारा 10-अ ने सरकार को कुछ परियोजनाओं को छूट देने की शक्ति दे दी है. ऐसी परियोजनाएं जो राष्ट्रीय सुरक्षा या भारत की सुरक्षा और उससे संबंधित सभी पहलुओं से जुड़ी हों, विद्युतीकरण सहित ग्रामीण बुनियादी ढांचा, औद्योगिक गलियारे, बुनियादी ढांचे और सामाजिक बुनियादी ढांचे से संबंधित परियोजनाएं जिनमें सार्वजनिक, निजी भागीदारीवाली वे परियोजनाएं भी शामिल हैं, जिनमें जमीन का मालिकाना हक सरकार के पास ही होगा. अगर कोई प्रस्तावित परियोजना ताजा अध्यादेश में बताई गई इन पांच श्रेणियों के भीतर आती है, तो अध्यादेश इस बात की अनुमति देता है कि जमीन के मालिक की सहमति की प्रक्रिया आरंभ किए बगैर या इसके सामाजिक प्रभाव का आकलन किए बिना ही उससे जमीन ली जा सकेगी.
पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री रमेश के अनुसार, चूंकि भविष्य में किए जानेवाले अधिकांश अधिग्रहण औद्योगिक गलियारे और बुनियादी ढांचे व सामाजिक बुनियादी ढांचे से संबंधित परियोजनाओं के तहत ही आ जाएंगे, ऐसे में किसानों के हितों की सुरक्षा से जुड़े वे सारे उपाय पूरी तरह बेकार हो जाएंगे, जो 2013 के मूल कानून में किए गए थे. इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय द्वारा दी गई ‘अदा मुआवजा’ शब्द की परिभाषा को भी इस बदलाव के जरिए निष्प्रभावी कर दिया गया है. उच्चतम न्यायालय ने ‘अदा मुआवजा’ शब्द की जो परिभाषा दी थी, उसका अर्थ था वह राशि जो न्यायालय में जमा कराई गई है. लेकिन नई धारा कहती है कि इस संदर्भ में किसी भी खाते में अदा की गई कोई राशि इस लिहाज से पर्याप्त होगी.
रमेश के अनुसार, भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 दो सालों तक चले राष्ट्रव्यापी विचार-विमर्श, दो सर्वदलीय बैठकों, संसद के दोनों सदनों में 14 घंटों तक चली बहस, जिसमें 60 से अधिक सदस्यों ने भाग लिया था और उस समय के प्रमुख विपक्षी दल (भाजपा) द्वारा सुझाए गए संशोधनों को शामिल करने के बाद बनाया गया था. साल 2013 के कानून की धारा 101 में कहा गया था कि अगर अधिग्रहित की गई भूमि का पांच साल तक उपयोग नहीं किया जाता, तो उसे वापस उसके मालिक को लौटाना होगा. लेकिन इस संशोधन के जरिए इस अवधि को खत्म कर दिया गया है.
रमेश आगे कहते हैं, निजी क्षेत्र की परियोजनाओं और पीपीपी परियोजनाओं के लिए बलपूर्वक अधिग्रहण के विरुद्ध किसानों के हितों की रक्षा के लिए साल 2013 के कानून में सहमति की शर्त जोड़ी गई थी. इसमें कहा गया था कि निजी परियोजना की स्थिति में 80 फीसदी और पीपीपी परियोजना की स्थिति में 70 फीसदी जमीन मालिकों की सहमति अनिवार्य होगी. लेकिन इस अध्यादेश ने प्रभावी रूप से सहमति की यह शर्त ही हटा दी है.