पंजाब के युवाओं में नशे की लत ऐसा कोई रहस्य नहीं है जिसके बारे में किसी को पता न हो. साल 2009 में जब पंजाब की अकाली दल सरकार ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के सामने यह माना था कि राज्य के 75 फीसदी युवा नशे की गिरफ्त में हैं तब इस मुद्दे पर कुछ सरगर्मी देखी गई थी. लेकिन पिछले दिनों अपनी पंजाब यात्रा के दौरान जब कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने कहा कि राज्य के 10 में से सात युवा नशे के आदी हैं तो इस पर खूब हायतौबा मची. तीन साल पहले कोर्ट में यही तथ्य रखने वाली राज्य सरकार ने इसे हकीकत से दूर और प्रदेश की छवि खराब करने वाला गैरजिम्मेदार बयान बताकर आलोचना की तो वहीं पंजाब की सरकार में साझेदार भाजपा के एक बड़े तबके ने इसे सच माना.
लेकिन आंकड़ों और तथ्यों की बारीकियों से आगे निकलते हुए जब हम पंजाब में इस समस्या की हकीकत देखने का फैसला करते हैं तो हमें जल्दी ही एहसास हो जाता है कि युवाओं के लिए त्रासदी बन चुकी इस समस्या को आप चाहकर भी अनदेखी नहीं कर सकते. हम पाकिस्तान की सरहद से लगे अमृतसर के अनगढ़ इलाके में एक रेलवे बैरियर के पास हैं. यहां सरहद के साथ-साथ कई चीजें एक साथ खत्म होती दिखती हैं. यहां न तो कानून का डर नजर आता है और न ही अपराध से किसी तरह का भय. सब कुछ असामान्य. यह पूरा इलाका नशीले पदार्थों और अपराध की चपेट में है. हालात अकल्पनीय रूप से खराब हो गए हैं. यहां दिवाली पर जुए को लेकर हुए झगड़े में 13 साल के बच्चों की हत्या हो जाती है, 20 साल की उम्र के लड़के नशे की लत के उन्माद में दुकानें लूटते हैं, एलपीजी के गोदामों के पास विस्फोटकों की अवैध फैक्टरियां चलती हैं. गलियों में आपको जहां इंजेक्शन से नशा करते युवा मिलेंगे वहीं कुछ कश्मीरी सुल्फा (खराब गुणवत्ता वाली ब्राउन हशीश) बेचते नजर आ जाएंगे.
बहरहाल, यह तो एक बड़ी बीमारी की ओर छोटा-सा इशारा भर है. पंजाब के दोआबा, माझा और मालवा इलाकों में नशे की समस्या बहुत बढ़ चुकी है. यहां लगभग हर तीसरे परिवार में कोई न कोई ऐसा मिल जाएगा जो नशे का आदी है. स्मैक से लेकर हेरोइन और सिंथेटिक ड्रग्स तक, बुप्रेनॉर्फाइन, परवॉन स्पा, कोडेक्स सिरप जैसी दवाइयों से लेकर नकली कोएक्सिल और फेनारिमाइन इंजेक्शन तक यहां सब कुछ सुलभ है. पंजाब की जेलों में जितने लोग बंद हैं उनमें से 30 फीसदी नशे से जुड़े कानूनों के तहत गिरफ्तार किए गए हैं.
पंजाब के दोआबा, माझा और मालवा इलाकों में नशे की समस्या बहुत बढ़ चुकी है. यहां लगभग हर तीसरे परिवार में कोई न कोई नशे का आदी मिल जाएगा.
हम अनगढ़ की एक गली से गुजर रहे हैं जो कोएक्सिल की बोतलों और इस्तेमाल की जा चुकी सुइयों से अटी पड़ी है. 16 साल का सुखबीर संधू अपनी मां के पास जाने के लिए हमसे 30 रुपये मांगता है. वह कहता है, ‘मैं आपसे भीख नहीं मांग रहा हूं. बस मदद मांग रहा हूं. मैं एक जाट हूं. मेरा बड़ा-सा फार्म है और अगली बार मिलने पर आपके पैसे लौटा दूंगा.’ सुखबीर इलाके के एक ठीक-ठाक किसान का बेटा है. हम उसे पैसे देने से इनकार करते हैं तो वह लगभग रोना शुरू कर देता है. आखिर में वह मान लेता है कि उसे एवीएल (फेनारिमाइन मैलेट) इंजेक्शन खरीदना है. यह घोड़ों और पालतू पशुओं के इलाज में इस्तेमाल की जाने वाली दवा है. वह कहता है कि इस दवा में एक मरते हुए घोड़े को दोबारा जिंदा कर देने की ताकत है और इसे लेकर वह भी खुद को जिंदा महसूस करता है. सुखबीर कहता है कि अगर हम उसे 100 रुपये और देंगे तो वह हमें कस्बे की बेहतरीन जगह दिखाएगा. हमारे इनकार करने पर वह छलांग लगाते हुए एक ऐसी जगह में गुम हो जाता है जिसे होना तो सार्वजनिक शौचालय चाहिए लेकिन जो अब स्मैक व एवीएल इंजेक्शन जैसे नशे लेने वालों का अड्डा बन चुकी है.
अनगढ़ में जिम चलाने वाले 35 वर्षीय सतबीर सिंह, जो बॉडी बिल्डिंग के नेशनल चैंपियन भी रह चुके हैं, सुखबीर जैसे लड़कों को देखकर कहते हैं कि पंजाब का भविष्य पूरी तरह अंधकारमय है और इसका कुछ नहीं किया जा सकता. सतबीर कहते हैं, ‘स्कूल के दिनों में एक ही कक्षा में हम 40 बच्चे थे. उनमें से मुझे मिलाकर केवल 10 ही जिंदा हैं. बाकी सारे स्मैक और ऐसे ही दूसरे नशों का शिकार बन गए.’ सुखबीर और सतबीर की जिंदगी में दोगुने का अंतर है लेकिन ढेर सारी बातें ऐसी हैं जिनकी आपस में तुलना हो सकती है, बल्कि जो आपस में गुंथी हुई हैं. 16 साल का सुखबीर अगर 21 वां जन्मदिन मना लेता है तो वह खुशनसीब होगा. वहीं 35 साल के सतबीर अपने ढेर सारे साथियों को मौत के मुंह में जाते देख चुके हैं. 16 की उम्र का सुखबीर अपने भावी जीवन के बारे में कुछ नहीं सोच पाता वहीं 35 के सतबीर भविष्य के बॉडी बिल्डर तैयार कर रहे हैं जो असली मर्द बनकर निखरेंगे. 16 साल का सुखबीर एक दूसरे नशेड़ी के हाथों अपने चेहरे पर ब्लेड के दो वार झेल चुका है. 35 साल के सतबीर अपने चार साल के बेटे पर झूठ-मूठ का मुक्का चलाते हैं और वह किसी प्रशिक्षित मुक्केबाज की तरह खुद को सफलतापूर्वक बचा लेता है. 16 साल का सुखबीर हर रोज अपने गांव से अनगढ़ आता है, लेकिन वह किताबें खरीदने नहीं बल्कि अपने लिए नशे का अगला डोज तलाश करने आता है. 35 साल के सतबीर ने इस कस्बे में जिम इसलिए शुरू किया कि उन्हें कोई दूसरा काम नहीं मिला.
यह एक ही राज्य के भीतर बसे दो पंजाबों की दास्तान है. सतबीर उस पंजाब की याद दिलाते हैं जिसके बारे में सिकंदर महान ने अपनी मां को लिखा था, ‘यह शेरों और बहादुरों की धरती है जहां की जमीन पर कदम-कदम पर मानो इस्पात की दीवारें हैं जो मेरे सैनिकों की परीक्षा ले रही हैं.’ इसी पंजाब के बारे में स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘यह वह वीर भूमि है जो किसी भी बाहरी हमले को पहले अपनी नंगी छाती पर झेलती है.’ वहीं दूसरी ओर सुखबीर 21वीं सदी के पहले दशक के पंजाब का चेहरा है जो बुरी तरह निस्तेज है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर वे कौन-से हालात हैं जिनके चलते पंजाब में नशे की ऐसी लहर उठी.
पंजाब में हालिया विधानसभा चुनाव अभियान के दौरान चुना आयोग के अधिकारी यह देखकर स्तब्ध रह गए कि वहां इतने बड़े पैमाने पर नशे की लत लोगों को लग चुकी है. दोआबा और माझा इलाके में केवल अफीम की भूसी यानी भुक्की और डोडा का इस्तेमाल नहीं किया जाता बल्कि इससे बनने वाले अन्य नशे मसलन स्मैक और हेरोइन भी यहां खूब चलन में हैं. इतना ही नहीं अधिकारियों के लिए सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह थी कि राजनीतिक दलों ने दवा दुकानदारों को खुली छूट दे रखी थी कि वे युवाओं को उनकी मर्जी के मुताबिक खतरनाक नशीली दवाएं दे दें. यह काम केवल उनके वोट हासिल करने के लिए किया जा रहा था. चुनाव की तारीख से एक सप्ताह पहले चुनाव आयोग के अधिकारियों ने तीन लाख कैप्सूल, एविल के 2,000 इंजेक्शन और रिकोडेक्स कफ सीरप के 3,000 डब्बे जब्त किए. मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने पंजाब में नशे की स्थिति को अनूठा बताते हुए बयान भी दिया था कि उन्होंने जितने राज्यों में चुनाव करवाए हैं कहीं भी हालात इतने खराब नहीं थे.
अपने गीतों के जरिए पंजाबी युवाओं से खुद को खत्म न करने की अपील करने वाले पंजाबी लोक गायक सतराज कहते हैं, ‘इन चुनावों के दौरान नशे की लत को जो राजनीतिक संरक्षण दिया गया वह शर्मनाक है. ऐसे वक्त में जबकि नशे की लत को एक सामाजिक मसला बनाकर उठाना चाहिए था, राज्य के नेताओं ने इसका इस्तेमाल अपने लिए वोट जुटाने के काम में किया.’ मोगा के सरकारी अस्पताल में चिकित्सीय निरीक्षक के पद से सेवानिवृत्त होने वाले डॉ. राजेश कुमार कहते हैं, ‘आखिर राजनेता ऐसा करें भी क्यों? दरअसल दवाओं की अधिकतर दुकानें राजनेताओं की मदद से ही तो फल-फूल रही हैं. नशे की लत के शिकार जहां हकीकत का सामना नहीं करना चाहते हैं वहीं नेताओं के सामने कड़े सवाल उठाना और उनको अपने अंदर झांक कर देखने के लिए मजबूर करना जोखिम भरा काम है.’
पंजाब में हालात खराब होने की और भी वजहें हैं. इनमें से एक प्रमुख कारण है अफगानिस्तान और पाकिस्तान से इसकी निकटता तथा दुनिया के नशे के कारोबार के नक्शे पर इसकी अहम स्थिति. पाकिस्तान के साथ लगने वाली पंजाब की सीमा के पूरे 553 किलोमीटर के इलाके में बिजली के तारों की घेराबंदी की गई है. लेकिन इसका कोई खास असर नहीं है क्योंकि इसमें बिजली गर्मियों में शाम छह बजे के बाद और जाड़ों में शाम चार बजे के बाद ही चालू की जाती है. सीमा का कुछ हिस्सा पानी से भरा है, लेकिन वह तस्करों की पसंद का रास्ता नहीं है क्योंकि बिजली बंद होने के कारण पहले वाला रास्ता उनको अधिक मुफीद पड़ता है. अगर आप नशे की लत से जद्दोजहद कर रहे तरनतारन जिले की खेमकरन सीमा चौकी पर जाएंगे तो वहां आपको सड़क पर यह चेतावनी लिखी नहीं मिलेगी कि शराब पीकर वाहन न चलाएं बल्कि इसके बजाय वहां लिखा होगा कि ड्रग्स लेकर वाहन न चलाएं.
खेमकरन के रास्ते में पड़ता है खालरा. यह सीमा पर बसा एक छोटा-सा कस्बा है जो नशीले पदार्थों की तस्करी के बड़े केंद्र के रूप में कुख्यात है. स्थानीय किसान कहते हैं कि नशे का ज्यादातर कारोबार सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और सीमा के दोनों और मौजूद रेंजरों की नाक के नीचे होता है. नशीले पदार्थों को इधर से उधर करने में सबसे अधिक इस्तेमाल दोनों देशों की सीमाओं में खुलने वाली नाली की पाइपों और महिला तस्करों का होता है. बीएसएफ अधिकारियों का दावा है कि उन्होंने कई बार स्थानीय महिलाओं को 50 किलो तक हेरोइन अपने शरीर में सिलकर ले जाते पकड़ा है.
नशे ने पंजाब के युवाओं की क्या हालत कर दी है यह बताते हुए बीएसएफ के एक अधिकारी हमें चौंकाने वाला वाकया सुनाते हैं, ‘हम 2009 में तरनतारन में जवानों की भर्ती के लिए गए थे. यहां 376 पदों के लिए तकरीबन आठ हजार युवा आए थे, लेकिन उनमें से ज्यादातर इतने अनफिट और कमजोर थे कि हमारे 85 पद खाली ही रह गए.’ सीमापार की खतरनाक स्थितियां और सीमा पर ढुलमुल चौकसी पंजाब में नशीली दवाओं की समस्या का बस एक छोटा-सा हिस्सा भर हैं. असल में खुद भारत में ऐसे कई इलाके और रूट हैं जो सीधे-सीधे राज्य की इस पीढ़ी की तबाही के लिए जिम्मेदार हैं. यहां से तकरीबन आठ सौ किमी दूर राजस्थान का चित्तौड़गढ़ है. यह राजस्थान के उन सात जिलों में शामिल है जहां अफीम उत्पादन के लिए किसानों को सरकारी लाइसेंस मिलता है. पश्चिमी मध्य प्रदेश के कुछ इलाकों में भी सरकार की तरफ से अफीम की खेती का लाइसेंस जारी किया गया है.
अफीम की खेती नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो की सख्त निगरानी में होती है. 2012 के लिए अकेले राजस्थान में 53,588 हेक्टेयर पर अफीम की खेती के लिए 48,857 नए लाइसेंस जारी किए गए थे. अफीम उत्पादन का कुछ हिस्सा उत्तर प्रदेश के गाजीपुर और मध्य प्रदेश के नीमच में जाता है. यहां इससे अल्कालॉयड निकाले जाते हैं जिनका उपयोग दवा बनाने में होता है. इस फसल का एक बड़ा हिस्सा ऊंचे दामों पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचा जाता है.इस पूरे वैध कारोबार के बीच ऐसे कई छेद हैं जिन्हें पूरी तरह बंद करना लगभग असंभव है. नशीली दवाओं का अवैध कारोबार यहीं से फलता-फूलता है. जिन किसानों को अफीम उत्पादन का सरकारी लाइसेंस मिलता है, उनके लिए उत्पादन की न्यूनतम नियत सीमा 58 किग्रा/हेक्टेयर है. उत्पादन यदि इससे ज्यादा होता है तो नारकोटिक्स विभाग पर उसे नष्ट करने की जिम्मेदारी होती है. लेकिन इसके बाद ऐसी घटनाएं उजागर होती रही हैं जिनसे पता चलता है कि अतिरिक्त उत्पादन का एक हिस्सा पंजाब के ब्लैक मार्केट में बेचा गया है. यहां अफीम से बने पदार्थ और पाउडर सरकार द्वारा निर्धारित 800 रुपये प्रति किग्रा से कहीं ज्यादा कीमत पर बिकते हैं.
मोटे मुनाफे की वजह से इस धंधे में कहीं-कहीं सरकारी अधिकारियों की भूमिका भी संदेहास्पद है. नारकोटिक्स विभाग से तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि 2010-11 में जिला अफीम अधिकारियों ने राजस्थान के सात में से पांच जिलों के 2,700 किसानों का अफीम उत्पादन सरकारी मानक से कम रहने पर उनकी फसल खरीद निरस्त कर दी थी. चित्तौड़गढ़ के किसान कहते हैं कि कम उत्पादन उनके लिए ज्यादा मुनाफे का सौदा है, क्योंकि ऐसे में वे अपनी फसल का ज्यादा हिस्सा ब्लैक मार्केट में बेच सकते हैं. इस अफीम को पंजाब के हनुमानगढ़ जिले में बेचा जाता है.
हालांकि पंजाब की सिर्फ भौगोलिक स्थिति राज्य के युवाओं की इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार नहीं है. एक मायने में हरित क्रांति से आई समृद्धि भी इसके लिए जिम्मेदार है. ग्रामीण इलाकों की शिक्षित-अर्धशिक्षित युवा पीढ़ी अब अपने बाप-दादों की तरह किसानी को आजीविका का साधन बनाना नहीं चाहती लेकिन विडंबना यह है कि इसके अलावा उनके पास नौकरियां भी नहीं हैं. पंजाब के माझा क्षेत्र में पड़ने वाले ब्रह्मपुर गांव के किसान दलबीर सिंह बताते हैं, ‘मेरे बेटे को कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद बस कंडक्टर का काम करना पड़ा था. अब वह मेरे साथ ही खेत में काम करता है. यहां नौकरियां हैं ही नहीं. यदि ये युवा ऐसे बिना काम के घूमेंगे तो नशे की गिरफ्त में आसानी से पड़ जाएंगे.’
इस जाट किसान के पास तीन एकड़ जमीन है. यह रकबा एक लिहाज से छोटा जरूर है लेकिन उनके बेटे के आजीविका कमाने और व्यस्त रहने के लिए यह पर्याप्त है. लेकिन जो बड़े किसान हैं उनके बेटों की स्थिति जोखिम भरी हैं. इनकी खेती पूरी तरह से उत्तर प्रदेश और बिहार से आए मजदूरों पर निर्भर है. तरनतारन के सरकारी अस्पताल में पदस्थ मनोविज्ञानी डॉ राणा रंजीत सिंह कहते हैं, ‘बड़े किसानों की नई पीढ़ी बुरी तरह नशे में लिप्त है क्योंकि बाहर उनके लिए कोई नौकरी नहीं है और उन्हें लगता है कि उनकी जिंदगी में आगे और कुछ बेहतर नहीं हुआ तो बाकी की जिंदगी बिताने के लिए जमीन तो है ही उनके पास.’
पंजाब के समाज में नशा एक ऐसी बुराई बन गया है जिसने यहां किसी तबके को नहीं बख्शा. अमृतसर के बाहरी इलाके में बसे मकबूलपुर में है. अनुसूचित जाति के लोगों की प्रधानता वाले इस गांव में घूमते हुए साफ तौर पर समझ में आता है कि समृद्ध जाट प्रधान गांवों और इस गांव में कुछ खास फर्क नहीं सिवाय इसके कि नशे की लत का असर यहां ज्यादा आसानी से समझा जा सकता है. मकबूलपुर के हालात इतने खराब हैं कि प्रशासन ने इस गांव को अनौपचारिक रूप से अपने हाल पर छोड़ दिया है. गांव की लगभग हर किराने की दुकान पर मेडिकल स्टोरों में मिलने वाली विशेष दवाएं मिलती हैं. छोटे-छोटे बच्चे सड़क किनारे एक लाइन से सिगरेट और अंडे बेचते हुए देखे जा सकते हैं क्योंकि उनके पिता नशे की लत के चलते अपना घर-परिवार चलाने की हालत में नहीं हैं. कुछ लोग अपनी झोपड़ियों के पीछे अफीम के थैले रखते हैं जहां नशा करने वालों की लाइन दिख जाती है जो सिर्फ दस रुपये में अपनी खुराक लेने के लिए यहां जुटते हैं.
32 साल के विजय पाल सिंह मकबूलपुर के सबसे संपन्न लोगों में से हैं. हमें गांव घुमाने की बात पर वे बड़ी मुश्किल से तैयार होते हैं. गांव से गुजरते हुए हमें आस-पास के इलाकों से आए कई मजदूर दिखते हैं जो यहां लहान (देसी शराब) के लिए आते हैं और अपने लिए स्मैक लेकर चले जाते हैं. विजय पाल, जो खुद एक नशेड़ी हैं, काफी मान-मनौव्वल के बाद हमसे इस बारे में बात करने को तैयार होते हैं. उनकी कहानी अपने आप में उस बुनियादी वजह का खुलासा करती है जिससे राज्य में नशे की लत इस हद तक फैली है.
विजय पाल के दादा जब 1947 में भारत-पाक विभाजन के बाद भारत आए थे तब उनके पास काफी जमीन थी और आज भी वे यहां के बड़े किसान हैं. हमने जब विजय पाल से यह जानने की कोशिश की कि वे आखिर नशे में अपना जीवन क्यों बर्बाद कर रहे हैं तो वे अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहते हैं कि उनके पिता ने कहा था, ‘पुत्तर, जब हमारे पास इतनी सारी जमीन है तो तू क्यों काम करना चाहता है?’ लेकिन क्या वह काम करना चाहते हैं? हमारे यह पूछने पर विजय पाल का जवाब है, ‘कोई यहां काम दिखा दे तो मैं तो करने को तैयार हूं. आपको यहां कोई काम दिखता है?’ बातचीत आगे बढ़ती है तो हमें समझ में आता है कि यह युवा नशे में बहुत बुरी तरह उलझा हुआ है और जहां से फिलहाल वह निकलने की कोशिश भी नहीं करना चाहता. विजय पाल को लगता है कि वह अपने पड़ोसियों से कहीं ऊंचा दर्जा रखता है इसलिए गांव में कोई काम-धंधा शुरू नहीं कर सकता. वह इंग्लैंड जाना चाहता है, लेकिन अपने खिलाफ एक आपराधिक मामले की वजह से नहीं जा पा रहा है. अपने बच्चों के लिए विजय पाल के पास कोई सपना नहीं है. उसे लगता है कि पुरखों की जमीन उसके बच्चों के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए काफी है. वह कहता है, ‘देखिए, मुझे अपने पिता की इज्जत ऊपर वाले से भी प्यारी है और मैं उस पर दाग नहीं लगने दूंगा.’
पंजाब में दवाओं की अवैध दुकानों पर लगातार छापे पड़ते हैं, लेकिन वे कुछ हफ्तों के बाद फिर खुल जाती हैं. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने तो राज्य में यह मांग शुरू कर दी है कि दवा बेचने वाली सभी दुकानों को सरकारी नियंत्रण में आ जाना चाहिए ताकि नशे के लिए अफीम आधारित दवाओं की बिक्री को रोका जा सके. पंजाब की इस त्रासदी का एक दूसरा त्रासद पहलू यह है कि इसका समाधान खुद एक बीमारी की तरह फैल रहा है. राज्य में जहां-तहां अवैध नशा मुक्ति केंद्र खुल चुके हैं. इन केंद्रों में ज्यादातर मरीजों का वैज्ञानिक तरीके से इलाज तो होता नहीं है उल्टे पचास फीसदी से ज्यादा मरीज एक बार यहां से छुट्टी मिलने के बाद दोबारा यहां भर्ती जरूर होते हैं. पंजाब में बीते दिनों निजी नशा मुक्ति केंद्रों से जुड़ी हुई ऐसी घटनाएं हुई हैं जहां भर्ती मरीजों को प्रबंधन द्वारा शारीरिक प्रताड़ना दी गई. अमृतसर के कुछ निजी क्लीनिक तो यह भी दावा करते हैं कि वे दो लाख रुपये में लेजर थेरपी से लोगों का नशा छुड़वा सकते हैं. कुछ जगह यह दावा किया जाता है कि एक चिप लगाकर वे लोगों का इलाज कर सकते हैं. सबसे बड़ी विडंबना यह है कि पंजाब में ऐसे हास्यास्पद दावे करने वाले क्लीनिक भी लाखों की कमाई कर रहे हैं. मुक्तसर शहर में आदेश अस्पताल के अधीक्षक डॉ. एस कृष्णन इसकी वजह बताते हैं, ‘ज्यादातर परिवारवाले नहीं जानते कि वे नशेड़ी आदमी के साथ क्या करें. वे या तो उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं या फिर यह सोचते हैं कि पैसे से वे उसका इलाज करवा सकते हैं. कुछ परिवारों को लगता है कि संबंधित व्यक्ति उनकी प्रतिष्ठा पर धब्बा है इसलिए उसे इन सेंटरों में रख दिया जाए.’
चौंकाने वाली बात यह थी राजनीतिक दलों ने दवा दुकानदारों को खुली छूट दे रखी थी कि वे युवाओं को उनकी मर्जी के मुताबिक खतरनाक नशीली दवाएं दे दें.
तहलका ने पंजाब के कई निजी नशा मुक्ति केंद्रों का जायजा लिया और पाया कि ज्यादातर एक जैसे ही हाल में चल रहे हैं. मुक्तसर के ऐसे ही एक केंद्र ‘एक प्रयास’ में जब हम पहुंचे तो हमें वहां एक बड़े कमरे में 30 मरीज मिले. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से इसमें कोई खिड़की नहीं थी. यहां हर एक मरीज को प्रतिमाह 6,000 रुपये देने होते हैं. इस केंद्र के मालिक ने हमें किसी मरीज से बात करने से मना कर दिया. साथ में यह जानकारी दी कि हर दिन उन्हें कम से कम दो लोग सेंटर में भर्ती होने के लिए संपर्क करते हैं और नशा छोड़ने के लिए वे कोई भी कीमत देने को तैयार हैं. यहां के स्टाफ से बातचीत के बाद हमें पता चला कि यदि यहां जगह की कमी हो जाती है तो कम पैसा देने वाले मरीजों को किसी दूसरे सेंटर में शिफ्ट कर दिया जाता है.
विशेषज्ञ बताते हैं कि इन सेंटरों से ठीक होकर निकलने वाले तकरीबन आधे लोगों को वापस इन केंद्रों में लौटना पड़ता है. इस समय पंजाब में 98 निजी नशा मुक्ति केंद्र हैं जिनमें से सिर्फ 17 सरकार द्वारा निर्धारित मानदंडों के हिसाब से पंजीकृत हैं. इसके अलावा कितने अवैध नशा मुक्ति केंद्र यहां संचालित हैं इसका अनुमान लगाना इसलिए मुश्किल है कि यहां हर पखवाड़े ऐसे केंद्र खुल रहे हैं. अतीत में समृद्धि और बहादुरी का प्रतीक रही इस जमीन की नशावृत्ति की समस्या अब अपनी विकरालता की अंतिम अवस्था पार कर चुकी है. लेकिन अभी तक सरकार की प्राथमिकता में यह मुद्दा कहीं नहीं है. ऐसे ही हालात रहे तो शायद कुछ ही सालों में पंजाब की वैश्विक पहचान यही समस्या होगी.
(अनुवाद: पवन वर्मा)