झारखंड का नगड़ी नाम का एक छोटा-सा कस्बा इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना हुआ है. वजह है वहां इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, लॉ यूनिवर्सिटी, ट्रिपल आईटी जैसे संस्थान बनाने के लिए सरकार द्वारा अधिगृहीत जमीन पर विवाद. इसे लेकर पुलिस-प्रशासन और स्थानीय ग्रामीणों के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है. किसानों का कहना है कि वे अपनी जमीन पर कब्जा नहीं छोड़ेंगे. सरकार का रुख इसके उलट है. इस टकराव का नतीजा क्या होगा, अभी पक्के तौर पर कहना मुश्किल है. लेकिन यह जरूर पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि जो सक्रियता राज्य सरकार ये संस्थान खोलने के लिए दिखा रही है वह अगर उसने राज्य के दूसरे विश्वविद्यालयों के लिए दिखाई होती तो राज्य में उच्च शिक्षा का काफी भला हो जाता. झारखंड के अधिकांश बच्चों का भविष्य राज्य सरकार द्वारा संचालित पांच विश्वविद्यालयों के इर्द-गिर्द घूमता रहता है लेकिन सरकारी अनदेखी के चलते इनका बुरा हाल है.
झारखंड में पांच विश्वविद्यालय हैं-रांची विश्वविद्यालय(रांची), विनोबा भावे विश्वविद्यालय (हजारीबाग), कोल्हान विश्वविद्यालय (चाईबासा), नीलांबर-पीतांबर विश्वविद्यालय (डालटनगंज) और सिद्धो-कान्हो विश्वविद्यालय (दुमका). इन पांचों विश्वविद्यालयों से कुल 65 कॉलेज जुड़े हुए हैं. करीब तीन लाख से ज्यादा छात्र इनके भरोसे हैं. अब इनमें हजारीबाग स्थित विनोबा भावे विश्वविद्यालय को छोड़ दें तो बाकी विश्वविद्यालय वर्षों से एक अदद कैंपस तक के लिए तरस रहे हैं. सबसे पहले रांची विश्वविद्यालय की बात करते हैं. 50 साल पहले खुला यह झारखंड का सबसे पुराना विश्वविद्यालय है. इसके अंतर्गत 15 सरकारी कॉलेज संचालित होते हैं. सरकार ने इस विश्वविद्यालय के लिए 162.5 एकड़ जमीन दी थी. लेकिन आज इसके पास सिर्फ 67 एकड़ जमीन बची है. विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति डॉ. बीपी शरण कहते हैं, ‘सरकारों के निरंतर उदासीन रवैये के कारण विश्वविद्यालय की जमीन हाथ से निकलती गई. सरकार ने रांची से सटे पिठौरिया में जमीन देने का आश्वासन दिया था, लेकिन उस जमीन का अभी तक अधिग्रहण नहीं हो पाया है. इस कारण विश्वविद्यालय का विस्तार भी नहीं हो पा रहा है.’
रामलखन सिंह जैसे कॉलेज सिर्फ चार-चार कमरों में चल रहे हैं जबकि विद्यार्थी आठ-आठ हजार हैं. ऐसे में क्या पढ़ाई होती होगी, अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं
रांची विश्वविद्यालय की जमीन को समय-समय पर सरकार ही लेती रही. कभी पार्क (सिद्धो-कान्हो पार्क), कभी हेलीपैड, कभी मंत्री आवास तो कभी स्टेडियम के नाम पर. विश्वविद्यालय के एक अधिकारी कहते हैं, ‘सरकार के साथ अपने संबंध बेहतर रखने के लिए कुलपतियों ने ही कैंपस की जमीन दिल खोलकर लुटाई. नतीजा यह है कि आज राज्य के एक उपमुख्यमंत्री जिस आवास में रहते हैं वह कायदे से वीसी का आवास होना चाहिए था. राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी को जो आवास आवंटित हुआ था वह भी विश्वविद्यालय की ही जमीन पर है.’ इस मुद्दे की पड़ताल करने पर तहलका को पता चला कि दो साल पहले राज्य में हुए राष्ट्रीय खेलों के लिए बना बिरसा मुंडा स्टेडियम भी रांची विश्वविद्यालय की जमीन पर खड़ा है. इस खास स्टेडियम के निर्माण में विश्वविद्यालय ने नौ लाख रुपये का सहयोग भी किया था. उस समय तय हुआ था कि जमीन और पैसे के एवज में विश्वविद्यालय को हर साल 100 दिन के लिए स्टेडियम इस्तेमाल करने की छूट रहेगी.
लेकिन अब विश्वविद्यालय से रोज के हिसाब से 20 हजार रुपये शुल्क मांगा जाता है. बिजली के 15 हजार अलग से. यकीन करना मुश्किल है कि अपनी नाक के नीचे चल रहे विश्वविद्यालय में हो रही गड़बड़ियों की जानकारी सरकार को नहीं होगी. लेकिन ऐसा लगता है कि उसकी प्राथमिकताओं में नगड़ी में ट्रिपल आईटी, आईआईएम और लॉ यूनिवर्सिटी का मुद्दा इससे ऊपर है. रांची विश्वविद्यालय के एसएस मेमोरियल कॉलेज, रामलखन सिंह जैसे कॉलेज सिर्फ चार-चार कमरों में चल रहे हैं जबकि यहां विद्यार्थियों की संख्या आठ-आठ हजार तक है. विद्यार्थी कहां बैठते होंगे, पढ़ाई क्या होती होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है.
झारखंड का ही एक दूसरा अहम हिस्सा संथाल परगना है. इसी इलाके में पड़ने वाले दुमका में 1992 में सिद्धो-कान्हू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी. उन दिनों यह एकीकृत बिहार का हिस्सा हुआ करता था. झारखंड के सबसे कद्दावर नेता शिबू सोरेन और बाबूलाल मरांडी संथाल परगना से ही खाद-पानी लेकर राजनीति करते हैं और इसके बूते मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच चुके हैं. लेकिन यहां के विश्वविद्यालय की हालत जर्जर है. अपनी शुरुआत से ही यह अपने कैंपस के लिए तरस रहा है. सिद्धो-कान्हू विश्वविद्यालय के अंतर्गत 13 सरकारी कॉलेज संचालित होते हैं. कुलपति बशीर अहमद खान कहते हैं कि बजट के अभाव में विश्वविद्यालय का विस्तार नहीं हो पा रहा. इतने साल बाद भी विश्वविद्यालय संथाल परगना कॉलेज में ही चल रहा है. 12-13 कमरों में विश्वविद्यालय की पूरी दुनिया सिमटी हुई है. एक कमरे में एक विभाग का निपटारा हो जाता है. इसी विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने-वाले गोड्डा कॉलेज और साहेबगंज कॉलेज में जनजातीय विषयों की पढ़ाई के लिए विभाग तो खोला गया है मगर इस विभाग में आज तक किसी शिक्षक की नियुक्ति नहीं हुई है.
झारखंड का एक और महत्वपूर्ण इलाका कोल्हान है. इसके दायरे में स्टील नगरी जमशेदपुर, सारंडा आदि इलाके आते हैं.
इसी इलाके से वर्तमान मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा भी आते हैं. पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा भी इसी इलाके से ताल्लुक रखते हैं. यहां चाईबासा में स्थित कोल्हान विश्वविद्यालय की दशा भी दयनीय है. कुलपति सलिल राय का मानना है कि समय के साथ जरूरतें भी बदलनी होंगी. बकौल सलिल राय, ‘वैसे तो किसी भी विश्वविद्यालय के लिए 100 से 150 एकड़ जमीन की जरूरत होती है. लेकिन आज की तारीख में यह संभव नहीं लग रहा इसलिए विकल्प सोचना होगा. हमने इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए 75 एकड़ भूमि की मांग की है.’ फिलहाल यह विश्वविद्यालय टाटा कॉलेज, चाईबासा कैंपस में चल रहा है. अब विश्वविद्यालय इसी कॉलेज के कैंपस में प्रशासनिक भवन खोलने की तैयारी में है. कोल्हान विश्वविद्यालय से 14 कॉलेज जुड़े हुए हैं. करीब 64,000 विद्यार्थी इनमें नामांकित हैं.
वोकेशनल कॉलेजों को जोड़ दें तो इस आंकड़े में लगभग 8,500 छात्रों की बढ़ोतरी हो जाएगी. लेकिन 18 विभागों वाला यह विश्वविद्यालय सिर्फ चार डीनों से काम चला रहा है. स्थिति का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यहां हर साल 92 परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं और शिक्षकों की संख्या सिर्फ 425 है. 250 पद अब भी खाली हैं. अब जरा इससे हो रहे नुकसान पर नजर डालिए. विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थी टाटा कॉलेज के पुस्तकालय और प्रयोगशाला से काम चलाते हैं. इसी विश्वविद्यालय की प्रति कुलपति लक्ष्मीश्री बनर्जी को कुछ ही दिनों पहले वित्तीय अनियमितताओं सहित कई अन्य आरोपों के चलते पद से हटाया जा चुका है.
और इन सबके बाद यदि भूखे-सूखे को नियति बनाये गये पलामू की ओर रुख करें तो वहां जिस तरह वर्षों से सूखा-अकाल दूर करने के नाम पर थोथी लोकप्रियता की राजनीति साधी जाती रही है, कुछ वैसा ही हाल विश्वविद्यालय को लेकर है. यहां विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे भी लोकप्रिय राजनीति ही थी. करीब तीन साल पहले जनवरी 2009 में शुरू हुए नीलांबर-पितांबर विश्वविद्यालय में छात्र तो भरपूर हैं. पलामू के तीन जिलों पलामू, लातेहार और गढ़वा के चार सरकारी काॅलेज इसी विश्वविद्यालय से संचालित होते हैं और करीब 50 हजार से अधिक विद्यार्थियों का भविष्य इसी विश्वविद्यालय की दशा-दिशा से तय होना है. लेकिन खुद विश्वविद्यालय की हालत यह है कि वह अब तक एक अदद प्रशासनिक भवन के लिए तरस रहा है, कैंपस वगैरह तो बहुत दूर की बात है. इस पिछड़े और नक्सल प्रभावित इलाके के विश्वविद्यालय व कॉलेजों में शिक्षकों, लाइब्रेरी, लेबोरेटरी सबका घोर अभाव है. जाहिरे-सी बात है कि ऐसे में आईआईएम, ट्रिपल आईटी या दूसरे व्यावसायिक संस्थानों के लिए सरकार की इतनी तत्परता लोगों को आसानी से हजम नहीं हो रही.