ओसामा बिन लादेन बहुत खतरनाक आदमी था. इक्कीसवीं सदी में आतंकवाद के उभार की जो डरावनी वैश्विक प्रक्रिया चली वह उसका एक महत्वपूर्ण सूत्रधार था. इस आतंकवाद ने भारत को भी बुरी तरह क्षत-विक्षत किया है, और इस लिहाज से हमें खुश होना चाहिए कि आतंक का सबसे बड़ा सौदागर मारा गया. हमारे मीडिया में यह खुशी दिख भी रही है जो इस बात से कुछ और छलकी पड़ रही है कि ओसामा किन्हीं गुफाओं में नहीं, पाकिस्तान के एक महफूज शहर में मिला और वहां अमेरिका की नेवी सील के कमांडो ने उसे घुसकर मारा. इस घटना से पाकिस्तान का सिर नीचा हुआ है, यह बात हमारे मध्यवर्गीय मानस को कुछ तृप्ति देती है.
सिर्फ इसलिए नहीं कि पाकिस्तान भारत में आतंकवाद का सबसे बड़ा प्रायोजक और निर्यातक रहा है, बल्कि इसलिए भी कि ओसामा के एबटाबाद में मिलने से लेकर उसको मार गिराने तक की कार्रवाई में पाकिस्तान कई संदेहों से घिरा दिख रहा है. अगर उसने ओसामा को जान-बूझकर छिपाया, तो यह आतंकवाद से उसकी मिलीभगत का पुख्ता सबूत है, और अगर ओसामा उसकी बेखबरी में वहां छिपा रहा तो इससे पाकिस्तान के राजनीतिक और सैन्य तंत्र की विफलता उजागर होती है जो इस बात से कुछ और पक्की हो जाती है कि बाद में जब अमेरिकियों ने जो कार्रवाई की उसकी भी थाह उसे नहीं मिली.
बीते सौ वर्षों में राष्ट्रवाद ऐसी ही हिंसक और आत्मघाती परियोजनाओं के सहारे आगे बढ़ा और बढ़ाया गया है
सच क्या है, यह पाकिस्तान को मालूम होगा या फिर शायद अमेरिका को, जो पाकिस्तान का कॉलर भी पकड़ता है, उसकी पीठ भी थपथपाता है और उसकी जेब भी भरता है. पाकिस्तान में ओसामा की उपस्थिति इस बात का इकलौता प्रमाण नहीं है कि वह आतंकवाद और आतंकी संगठनों का हमदर्द और मददगार मुल्क है. 1993 में मुंबई में हुए कई धमाकों के मुजरिमों को पनाह देने का मामला हो या 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर हुए हमले के सूत्रधारों को पालने और प्रशिक्षित करने का- भारत में चल रहे आतंकवाद को सीमा पार से मिल रहे शह और समर्थन की तस्दीक बार-बार होती रही है.
शायद यह इन जख्मों की भी याद है जिसकी वजह से भारतीय मीडिया पाकिस्तान की खिल्ली उड़ती देख खिलखिला रहा है और अब यह सवाल भी पूछ रहा है कि क्या भारत को भी पाकिस्तान में छिपे आतंकवादियों को मार गिराने के लिए अमेरिका जैसी ही कार्रवाई नहीं करनी चाहिए. इस सवाल के साथ एक मायूसी भरा जवाब भी छिपा हुआ है कि भारत ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि उसके पास ऐसे नपे-तुले हमले करने की न ताकत है और न ही इसका हौसला है. इसी क्रम में इन दिनों कई रिटायर हो चुके कूटनीतिज्ञ टीवी चैनलों पर विशेषज्ञ बनकर यह व्यावहारिक ज्ञान देने में जुटे हैं कि कूटनीति में कोई किसी का दोस्त या दुश्मन नहीं होता, कुछ भी नैतिक या अनैतिक नहीं होता, सिर्फ अपने हित होते हैं और उनकी व्याख्या होती है. अमेरिका ताकतवर है, इसलिए उसने ओसामा को मार गिराया. भारत को भी अपने हित देखने चाहिए, अपनी ताकत तौलनी चाहिए और अपने ढंग से फैसला करना चाहिए.
राष्ट्रवादी राजनीतिक परियोजनाओं की मांग के आईने में देखें तो कूटनीति का यह पाठ बिलकुल सही लगता है. लेकिन संकट यह है कि यह पूरा राष्ट्रवाद अंततः एक ऐसी अंधी भूलभुलैया में जाता दिखाई पड़ता है जिसमें हम पहले ओसामा को बनाते हैं, और उसके बाद उसे मारते हैं. अब यह कायदे से याद दिलाने की भी जरूरत नहीं है कि ओसामा बिन लादेन शीतयुद्ध के अंतिम वर्षों में अफगानिस्तान में सोवियत संघ के विरुद्ध अमेरिका द्वारा खड़ी की गई तालिबानी व्यूह रचना का एक छोटा-सा मोहरा भर था. अफगानिस्तान में धार्मिक उन्माद की यह अफीम अमेरिका ने ही बोई, उसे पाकिस्तान की मदद से मिट्टी, पानी और हवा दी, उसके हाथ में एके 47 पकड़ाया, उसे जेहाद के नये मतलब समझाए और उसे ऐसे फिदायीन दस्ते के तौर पर तैयार किया जो जान लेने और देने का खूनी खेल खेल सके.
लेकिन इस लेख का मकसद आतंकवाद को लेकर अमेरिका के दोहरे चरित्र की तरफ ध्यान खींचना भर नहीं है, बल्कि यह बताना है कि बीते सौ वर्षों में राष्ट्रवाद ऐसी ही हिंसक और आत्मघाती परियोजनाओं के सहारे आगे बढ़ा और बढ़ाया गया है. जब तक अमेरिका ताकतवर रहा, जब तक उसके पास एक विचारधारात्मक कवच की सुविधा रही, तब तक वह लोकतंत्र, साम्यवाद विरोध और मानवाधिकार के आवरण में सब कुछ करता रहा, लेकिन इक्कीसवीं सदी के इन आखिरी वर्षों में उसकी निचुड़ती हुई ताकत ने, उसके सूखते हुए आर्थिक स्रोतों ने, उसके थके हुए चिड़चिड़ेपन ने और उसकी लगातार अनावृत्त होती स्वार्थपरता ने उसके इरादों और औजारों को एक तरह से बेनकाब कर दिया है. हम चाहें तो याद कर सकते हैं कि जिसे अमेरिका 9/11 कहता है, जिस हमले को वह अपने आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा हमला बताता है, उसी की बदौलत जॉर्ज बुश द्वितीय को वह राजनीतिक स्थिरता और स्वीकार्यता मिली जिसकी बदौलत वे चार साल नहीं, आठ साल शासन कर गए. वरना साल 2000 में हुआ उनका चुनाव बुरी तरह विवादों में घिरा हुआ था, उन पर मतदान में घपले के आरोप थे, उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई चल रही थी और इतने तीखे राजनीतिक प्रदर्शन हो रहे थे कि वे लगातार व्हाइट हाउस से भागे रहने को मजबूर थे.
अल कायदा से कहीं ज्यादा अमेरिका ने निर्दोष लोगों का खून बहाया है, जनता की चुनी हुई सरकारें पलटी हैं और क्रूर तानाशाहों को संरक्षण दिया है
लेकिन जैसे ही 9/11 हुआ, बुश के खिलाफ सारे इल्जाम हवा हो गए. अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने शोक में डूबे अपने नागरिकों के गम और गुस्से का फायदा उठाते हुए आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक युद्ध का एलान किया और इस युद्ध की आड़ में अपने ही नागरिकों के अधिकार स्थगित करने शुरू किए. सुरक्षा के नाम पर चली इस कवायद में पहली बार अमेरिकी नागरिकों को अपमान सहने पड़े, रुकावटें झेलनी पड़ीं, विमानों पर अपने बच्चों के लिए दूध की बोतल लेकर महिलाओं का चढ़ना मना हो गया, सिर्फ नाम की वजह से एशियाई मूल के, और मुसलिम अमेरिकियों को भयानक पूछताछ से गुजरना पड़ा, अवैध गिरफ्तारियां हुईं, गुआंतनामो बे जैसे शिविर चले- कुल मिलाकर सरकारी आतंक का एक ऐसा चक्र चला जिसमें अमेरिका सुरक्षित हो गया, लेकिन दुनिया असुरक्षित हो गई. इससे भी ज्यादा बुरी बात यह हुई कि आधुनिकता और विश्व बंधुत्व की ओर बढ़ते जमाने के पांव ठिठक गए, लोग एक-दूसरे से उसकी कौम और नस्ल पूछने लगे, एक-दूसरे पर संदेह करने लगे.
जॉर्ज विलियम बुश यहीं नहीं रुके. उन्होंने पहले इराक पर हमला किया और फिर अफगानिस्तान को निशाना बनाया. इराक में उन्हें विध्वंसक हथियार नहीं मिले, लेकिन सद्दाम हुसैन मिल गया, जो सीनियर बुश के जमाने में शुरू हुई और अधूरी रह गई एक और अमेरिकी परियोजना की आंखों का चुभता हुआ कांटा था. अफगानिस्तान में उन्हें ओसामा बिन लादेन नहीं मिला, लेकिन दक्षिण एशिया में ऐसा ठिकाना मिल गया जहां से वह मिनटों में अपने लड़ाकू विमान और हेलिकॉप्टर आसपास कहीं भी भेज सकता था. बरसों बाद जलालाबाद के एयरबेस से उड़े और ओसामा के ठिकाने तक पहुंचे अमेरिकी हेलिकॉप्टर बताते हैं कि अफगानिस्तान में अमेरिका ने क्या हासिल किया है- इस पूरे इलाके पर नजर रखने और हमला करने की ताकत.
इत्तिफाक से ओसामा भी तब मारा गया जब अमेरिका कई तरह के संकटों से घिरा है. वह अब भी दो साल पहले आई आर्थिक मंदी से उबरने की कोशिश में है. इसी दौर में चीन विश्व की नयी आर्थिक महाशक्ति की तरह उभरा है. यही वक्त है जब फोर्ब्स ने दुनिया के सबसे ताकतवर लोगों की सूची बनाते हुए बराक ओबामा से ऊपर चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ को जगह दी है. सच तो यह है कि ओबामा की लोकप्रियता भी इस दौर में लगातार गिरी है. ऐसे में जब ओसामा मारा जाता है तो ओबामा की लोकप्रियता लौटती है, अमेरिकी राष्ट्रवाद का महानायकत्व लौटता है. अमेरिका और ओबामा के लिए यह दांव इतना बड़ा है कि ओसामा पर हमले के लिए वे अंतरराष्ट्रीय कानूनों की सारी सरहदें तोड़ते हैं, किसी आतंकी संगठन की तरह नेवी सील को गुपचुप पाकिस्तान में हमले के लिए भेजते हैं और यह भी भूल जाते हैं कि वे आम राष्ट्रपति नहीं हैं, उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार मिला है, जिसकी मर्यादा, जिसके शील की रक्षा उन्हें करनी चाहिए थी.
वैसे अमेरिका ने ऐसे शील की परवाह कभी नहीं की है. इस तथ्य में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि अल कायदा से कहीं ज्यादा अमेरिका ने निर्दोष लोगों का खून बहाया है, जनता की चुनी हुई सरकारों को पलटने का काम किया है और क्रूर तानाशाहों को संरक्षण दिया है. वियतनाम से चिली तक, और इराक से अफगानिस्तान तक इस अमेरिकी आतंकवाद के उदाहरण बिखरे पड़े हैं. दरअसल अमेरिका के इसी रवैये से ओसामा बिन लादेन बनते हैं. इस लिहाज से ओबामा ने एक ओसामा को तो मार दिया है लेकिन अमेरिकी कार्रवाई को अपने मुल्क पर और अपनी कौम पर हमले की तरह देखने वाले बहुत सारे मायूस नौजवानों के भीतर ओसामा बनने का इरादा बो दिया है.
दुर्भाग्य से अमेरिका ने यह काम तब किया है जब इस्लामी दुनिया के अंदर से ही अल कायदा और उसके पोषित आतंकवाद के खिलाफ सुगबुगाहट तेज थी और उसके आंदोलन से धर्म की आड़ में हुकूमत कर रहे तानाशाहों के तख्तो ताज उड़ रहे थे. खतरा यह है कि इस अमेरिकी हमले के बाद अल कायदा फिर अपने उखड़ते हुए पांव जमाने की कोशिश न करे, क्योंकि ओसामा के मारे जाने के बाद वह सांगठनिक तौर पर कमजोर भले पड़ा हो, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर उसे एक ऐसा शहीद मिल गया है जिसके नाम पर वह नयी कुमुक जुटा सकता है. अमेरिका भूल गया कि हत्याओं से लोग भले मारे जाएं, उनकी विचारधारा मजबूत होती है.
जहां तक भारत का सवाल है, वह अमेरिका की राह पर न चल सकता है और न उसे चलना चाहिए. जो राष्ट्रवादी अमेरिका की तरह भारत को भी सर्जिकल स्ट्राइक के लिए उकसा रहे हैं वे भूल जाते हैं कि राष्ट्रवाद के नाम पर युद्ध पतनशील व्यवस्थाओं का सबसे बड़ा सहारा होते हैं. आतंकवाद से युद्ध के बहाने पाकिस्तान पर एक हमला हमारी सरकारों के सारे पापों से ध्यान हटा लेगा. भले इसका नतीजा दोनों तरफ के हजारों बेकसूर नागरिकों को भुगतना पड़ेगा. पाकिस्तान की लुंजपुंज हुकूमत को भी ऐसी लड़ाई रास आएगी. अगर हम इस नकली और जुनूनी राष्ट्रवाद से दूर खड़े होकर अपने देश और दुनिया को देखेंगे तो कहीं ज्यादा ठीक से समझ पाएंगे कि ओसामा बिन लादेन क्यों बनते हैं और कैसे उन्हें खत्म किया जा सकता है.