एक ही मंज़िल

कभी धर्म (मज़हब) के बारे में सही जानकारी लेनी हो, तो दो वक़्त की रूखी रोटी तक को परेशान रहने वाले कई दिन के भूखे किसी ग़रीब इंसान से पूछिए। अगर ऐसे लोग कई धर्मों के हों और उन सबको उनके धर्म के सहारे सब्र करने को कहा जाए, तो और भी बेहतर तरीक़े से वे सब धर्म के बारे में अपनी भावनाएँ व्यक्त कर सकेंगे। मेरे ख़याल से उनका एक ही धर्म होगा- ‘पेट भरने के लिए रोटी का इंतज़ाम करना।’

इसी तरह अगर बेघर लोगों से उनके धर्म के बारे में पूछो, तो उनका धर्म घर बनाने की लालसा तक ही होगा। कहने का मतलब यह है कि ज़रूरत को पूरा करना ही हर किसी का पहला धर्म है; चाहे वह किसी भी प्रकार की हो। क्योंकि इंसान सबसे पहले अपना जीवन और फिर अस्तित्त्व बचाने की कोशिश करता है। इसके बाद ही वह दूसरों के लिए कुछ सोचता या करता है। फिर चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो। इसीलिए अगर भूख या दूसरी ज़रूरत से परेशान किसी व्यक्ति को उसके धर्म की किताब थमा दी जाए और कहा जाए कि इस पर अमल करो, बाक़ी सारी ज़रूरतों को भूल जाओ; या फिर उसके धर्म के लोग उसे ऐसी स्थिति में धर्म का ज्ञान बाँटें; तो क्या उसे उस समय अपना धर्म भी अच्छा लगेगा?

सच तो यह है कि वास्तविक सन्तों / महात्माओं को भी जीने के लिए कम सही, लेकिन मूलभूत वस्तुओं की ज़रूरत होती है। चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों। भूखे पेट तो भजन होता भी नहीं। तो फिर धर्म की दीवार पकडक़र कौन लटका रह सकता है? और कौन किसी से नफ़रत या उससे उसके धर्म के बारे में बहस कर सकता है? दरअसल इंसान में पेट की भूख मिटाने की लालसा और जीने की इच्छा उन अन्य जीव-जन्तुओं की तरह ही है, जिन्हें जीने के लिए अपने भोजन की तलाश करने के अलावा और कुछ भी पता या ज्ञान नहीं होता। इसका निचोड़ यह है कि धर्म लोगों के लिए बहुत बाद की चीज़ है; उससे पहले उसके सामने जीने का महत्त्व है। इस जीने के महत्त्व में उसकी ज़रूरतें और उनकी पूर्ति ही उसका उद्देश्य होता है, जो धर्म से कहीं पहले आ जाता है।

इस तरह तो सबका धर्म एक ही हुआ ज़िन्दा रहने के लिए जतन करना। तो क्या धर्मों की किताबों ने लोगों को दायरों में बाँट रखा है? जी बिल्कुल! दरअसल धर्म की किताबें लोगों को ख़ुद में दर्ज बातों, नियमों, परम्पराओं और शिक्षाओं को जानने के लिए उत्साहित और फिर मानने के लिए प्रोत्साहित तो करती हैं, परन्तु बाध्य नहीं करतीं। लेकिन लोग इन्हें इस तरह पकडक़र बैठे हैं, जिस तरह एक ज़िद्दी और अनपढ़ बच्चा किसी किताब को पकडक़र बैठा हो और वह किताब उससे माँगने पर वह रो पड़े और हमला करने लगे। अब लोग यही कर रहे हैं। वे धर्म की किताबों में आस्था रखे हुए हैं और उन्हीं को पकडक़र बैठे हुए हैं। जबकि इंसान का असली धर्म तो उसकी आत्मा में स्वीकारोक्ति पर निर्भर करता है। वह बाहर से भले ही किसी भी धर्म को मानता हो; लेकिन अन्दर से उसका धर्म कुछ भी हो सकता है। जैसे कोई दिन-रात अपने धर्म के हिसाब से चलता हो; लेकिन जीवन जीने के लिए उसकी करनी कुछ और हो, तो उसका असली धर्म क्या होगा? वह जो जीवन जीने के लिए करता है, वही उसका धर्म है; जो ग़लत भी हो सकता है और सही भी। जैसे कोई चोरी करता है, तो उसने अपना असली धर्म चोरी करना बना लिया है; भले ही उसने दिन-रात ईश्वर को मानने और अपने धर्म के हिसाब से चलने का नाटक किया हो।

इसी तरह अगर कोई जीने के लिए ईमानदारी से मेहनत करता है और अपनी कमायी में से दूसरों के लिए भी कुछ करता है, तो उसका धर्म ईमानदारी पर अमल और दयाभाव है; भले ही उसने जीवन भर कभी अपने धर्म को न समझा हो और न ही वह उस पर चला हो। सच तो यही है कि इंसान में सबसे बहुमूल्य और सबसे ख़ूबसूरत तत्त्व आत्मा है और आत्मा से वह जो भी करता है, वही उसका धर्म है।

राहुल सांकृत्यायन कहते हैं- ‘हिन्दू और मुसलमान में फ़र्क़, उनके धर्मों में फ़र्क़ रखने से क्या उनकी अलग-अलग जाति हो सकती है? जिनकी नसों में उन्हीं पूर्वजों का ख़ून बह रहा है, जो इसी देश में पैदा हुए और पले। फिर दाढ़ी और चुटिया, पूजा और पूरब या पश्चिम की नमाज़ क्या उन्हें अलग क़ौम साबित कर सकती है? क्या ख़ून पानी से गाढ़ा नहीं होता? फिर हिन्दू और मुसलमान के फ़र्क़ से बनी इन अलग-अलग जातियों को हिन्दुस्तान से बाहर कौन स्वीकार करता है? जापान जाइए या जर्मनी या ईरान जाइए या तुर्की; सभी जगह हमें हिन्दी या इंडियन कहकर पुकारा जाता है। जो धर्म भाई को बेगाना बनाता है, ऐसे धर्म को धिक्कार! जो मज़हब अपने नाम पर भाई का ख़ून करने के लिए प्रेरित करता है, उस मज़हब पर लानत! जब आदमी चुटिया काट दाढ़ी बढ़ाने भर से मुसलमान और दाढ़ी मुड़ा चुटिया रखने मात्र से हिन्दू मालूम होने लगता है, तो इसका मतलब साफ़ है कि यह भेद सिर्फ़ बाहरी और बनावटी है। एक चीनी चाहे बौद्ध हो, चाहे मुसलमान हो या ईसाई हो या कनफूसी, लेकिन उसकी जाति चीनी ही रहती है। तो हम हिन्दियों के मज़हब को टुकड़े-टुकड़े में बाँटने को क्यों तैयार हैं? और इन नाजायज़ हरकतों को हम क्यों बर्दाश्त करें? धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है और इसीलिए अब धर्मों के मेल-मिलाप की भी बातें कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन क्या यह सम्भव है?’