अक्टूबर का पहला पखवाड़ा राजनीतिक कार्यकर्ताओं, राजनेताओं और राजनीतिबाजों के लिए आयोजनों व उत्सवों का पखवाड़ा होता है. दो अक्टूबर को महात्मा गांधी व लाल बहादुर शास्त्री की जयंती. आठ अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि. 11 अक्टूबर को जयप्रकाश नारायण की जयंती. 12 अक्टूबर को डॉ राममनोहर लोहिया की पुण्यतिथि. यह भी संयोग ही है कि गांधी, जेपी और लोहिया के जीवन-मरण से जुड़े अहम आयोजन इस एक पखवाड़े में ही पड़ते हैं. एक समय में समाजवादियों के बीच इन्हीं तीनों नेताओं को लेकर नारा भी लगाया जाता था- ‘अंधेरे में तीन प्रकाश, गांधी, लोहिया, जयप्रकाश’.
लेकिन इस बार सब कुछ हर साल की तरह नहीं गुजरा. इस बार यह पखवाड़ा राजनीतिक गहमागहमी और दंगलबाजी का पखवाड़ा बन गया. गांधी हर साल की तरह याद किए गए. लोहिया को लोहियावादियों-समाजवादियों ने अपने तरीके से एक छोटे दायरे में याद किया. सबको पछाड़ जेपी छाए रहे. लेकिन वे सिर्फ अपनी जयंती पर ही छाए. उस दिन भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी जनचेतना यात्रा की शुरुआत जेपी की जन्मस्थली सिताबदियारा से की. उससे ठीक तीन रोज पहले जेपी की पुण्यतिथि भी थी, मगर उस दिन सिताबदियारा किसी भी आयोजन से वंचित रहा.
सिताबदियारा पर नया सितम
एक जमाने के जमींदार सिताब राय के नाम पर बसे 27 टोलों का समूह है सिताबदियारा. गंगा और सरयू की धार इलाके को हर साल काटती है. लेकिन लगातार कटते रहने, बर्बाद होने के बावजूद आपसी जुड़ाव का भी अद्भुत इलाका है यह. एक मिसाल की तरह. सिताबदियारा गांवों के समूह का हिस्सा उत्तर प्रदेश में भी है, बिहार में भी. स्थानीय लोगों और जानकारी के अनुसार सिताबदियारा के 16 टोले बिहार में हैं और 11 उत्तर प्रदेश में. अब टोले बढ़ गए हैं. 40 के करीब. उत्तर प्रदेश में बलिया जिले में सिताबदियारा पड़ता है. बिहार में छपरा जिले में. पास में ही आरा जिला भी छूता है. आरा-बलिया-छपरा, लोकमानस में बसे मशहूर तीनों जिलों का मेल. इसी सिताबदियारा में जन्मे थे जेपी. जेपी का यहां जन्म लेना ही इस इलाके को देश-दुनिया के मानचित्र पर ले गया. जेपी की राजनीति ने 27 टोलों को जोड़ दिया था, अब उन्हीं के नाम पर हो रही राजनीति पीढि़यों से साथ रह रहे हजारों ग्रामीणों की बसाहट को बांट रही है. उनका सिताबदियारा उनकी जयंती पर बंटता हुआ देखा जा सकता था.
सिताबदियारा के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से में ही जयप्रकाशनगर टोला पड़ता है. इसका पुराना नाम बबूरबानी था. जेपी का जन्मस्थान यहीं माना जाता रहा है. बलिया के सांसद और बाद में देश के प्रधानमंत्री बने समाजवादी नेता चंद्रशेखर ने बबूरबानी को जयप्रकाशनगर बनाया. सिर्फ नाम बदलकर नहीं, काम के जरिए. सिताबदियारा के जयप्रकाशनगर में जेपी की स्मृति में बना संग्रहालय, आश्रम, शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान, अतिथिशाला आदि एक मॉडल हैं. देश में ऐसे स्मारक शायद ही कहीं देखने को मिलंे. जेपी के नाम पर और चंद्रशेखर के प्रयास से यहां दिग्गजों का जुटान हर साल होता था. जेपी जयंती के मौके पर. सर्वोदय मेले के मौके पर. लेकिन चंद्रशेखर के दुनिया से विदा होते ही ये सब अतीत की बातें बनती गयीं.
जेपी की राजनीति बिहार के हिस्से वाला सिताबदियारा (एकदम बाएं) और उत्तर प्रदेश के हिस्से में पड़ने वाला जयप्रकाशनगर अलग पहचान रखते हैं
जेपी का एक और जन्मस्थान भी बताया जाता है, जो पास के ही लालाटोला में है. लालाटोला जयप्रकाशनगर से सटा हुआ गांव है जो बिहार के हिस्से वाले सिताबदियारा में पड़ता है. पिछले साल से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जेपी की इस जन्मस्थली पर जाना शुरू किया. नीतीश पिछले साल गए तो कई घोषणाएं हुईं. नीतीश के प्रयास से ही इस बार यहां आजादी के बाद पहली बार बिजली भी पहुंच गई. बेशक आडवाणी की जनचेतना यात्रा के बहाने ही सही नीतीश ने अपने शासन के छठे साल में उत्तर प्रदेश से किराये पर खरीद कर यहां बिजली पहुंचा दी. पर जेपी के एक और चेले लालू प्रसाद यादव के 15 साल के राज-पाट के दौरान यह इलाका हर सुविधा से महरूम रहा. आज यहां पानी की टंकी भी लगभग बनकर तैयार हो गई है. अस्पताल का निर्माण भी चल रहा है. सड़कों का शिलान्यास भी 11 अक्टूबर को किया गया.
नीतीश कुमार, लालकृष्ण आडवाणी और भाजपा के अन्य कई बड़े नेता बिहार के हिस्से में पड़ने वाले जेपी की जन्मस्थली पर ही इस बार जुटे थे. मगर जयप्रकाशनगर इनमें से कोई नहीं गया. वहां चंद्रशेखर के सपाई सांसद बेटे नीरज शेखर, बसपाई विधानपार्षद रविशंकर सिंह और ग्रामीणों की आबादी जुटी. अब नीतीश कुमार बिहार में पड़ने वाले सिताबदियारा में जेपी जन्मस्थान को मॉडल के तौर पर विकसित करने के अभियान में लगे हुए हैं. इसका राजनीतिक अभिप्राय चाहे जो हो लेकिन बिहार के सिताबदियारा इलाके में पड़ने वाले अब सीधे-सीधे कहने लगे हैं कि जेपी जन्मे बिहार के लालाटोला में ही थे, बाद में अपनी जमीन पर घर बनाकर उत्तर प्रदेश वाले हिस्से में चले गए. उत्तर प्रदेश के सिताबदियारा वाले कहते हैं, ‘दुनिया जानती है कि जेपी उत्तर प्रदेश के सिताबदियारा वाले हिस्से में जन्मे थे.’ छपरा के भाजपा विधायक और बिहार सरकार के श्रम मंत्री जनार्दन सिग्रीवाल यह पूछने पर कि जन्मस्थान को लेकर यह विवाद क्यों, साफ-साफ कहते हैं कि वे तथ्यों व साक्ष्यों के आधार पर ही बिहार में उनके जन्मस्थान पर जयंती मना रहे हैं. सिग्रीवाल कहते हैं, ‘हमारे पास पासपोर्ट है जेपी का, उसमें लालाटोला ही लिखा हुआ है.’ सिताबदियारा इलाके के ही दलजीत सिंह टोला के रहने वाले प्रसिद्ध पत्रकार हरिवंश कहते हैं, ‘जयप्रकाश जी उत्तर प्रदेश में जन्मे कि बिहार में, यह कोई मुद्दा ही नहीं है. जेपी पूरे देश के थे. लोकनायक थे.’ प्रसिद्ध राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं कि महापुरुषों के नाम पर ऐसी ओछी राजनीति होती रहती है. बलिया के सपा सांसद और चंद्रशेखर के पुत्र नीरज शेखर कहते हैं, ‘बाबू जी जयप्रकाशनगर के बाद बिहार के हिस्से वाले सिताबदियारा में ही काम करने वाले थे. वे कभी दोनों इलाकों में फर्क नहीं करते थे.’
यह सही है कि राजनीति कोे चमकाने के फेर में ऐसी राजनीति होती रहती है. होगी भी लेकिन सिताबदियारा में 11 अक्टूबर को जेपी जयंती के अवसर पर जब आडवाणी देश भर की बातें कर रहे थे, जेपी से अपने रिश्ते की दुहाई दे रहे थे, उस वक्त कई सिताबदियारावासी यह टोह लगाने में लगे हुए थे कि जयप्रकाशनगर में कितना आदमी आया रे…! एक-दूसरे की क्षमता आंक रहे थे. नीतीश की मंशा चाहे जो हो, उनकी कोशिश से संभव है कि अगले कुछ वर्षों में बिहार का सिताबदियारा चमक जाए लेकिन जिन्हें राज्यों की सीमा नहीं बांट सकी थी, वे बंट जाएंगे, इसके संकेत इस बार जेपी जयंती पर मिल रहे थे.
एक जेपी के नाम पर तरह-तरह के
खेल-तमाशे
जेपी भारतीय राजनीति में गैरकांग्रेसी राजनीतिक पार्टियों व राजनेताओं के लिए सबसे बड़े आईकॉन हैं. गांधी के बाद राजनीति करने के लिए सबसे बड़े अवलंबन. खंड-खंड में और तरह-तरह के मुखौटों के साथ राज की राजनीति करने वाले समाजवादी जेपी पर अपना सबसे मजबूत दावा ठोंकते हैं. भाजपा भी उन्हें अपना आधार बनाने की कोशिश में लगी रहती है. जनसंघ के जमाने से ही. इस बार आडवाणी अपनी जनचेतना यात्रा के आरंभ में सिताबदियारा से लेकर पटना तक जेपी के नाम पर ज्यादा ही जोर देते रहे. आडवाणी बार-बार दुहराते रहे कि जेपी जनसंघ को फासीवादी कहने पर कहते थे कि जो जनसंघ को फासीवादी कहता है वह जेपी को भी कहे. आडवाणी ने दूसरे समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया का रिश्ता भी जनसंघ के जमाने से जोड़ा. आडवाणी ने कहा कि डॉ लोहिया जनसंघ के अखंड राष्ट्रवादी मॉडल का समर्थन करते थे. आडवाणी ने सिताबदियारा से दिल्ली तक की यात्रा शुरू की है, तिथि के तौर पर जेपी की जयंती को चुना है, स्थान के तौर पर जेपी की जन्मस्थली को चुना है तो जेपी का नाम लेंगे ही लेकिन आडवाणी के ये बयान हजम नहीं हो रहे. राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं कि यह सच है कि थोड़े समय के लिए जेपी के साथ जनसंघी जुड़ गए थे, लेकिन जेपी ने कभी जनसंघियों को गैरसांप्रदायिक होने का फतवा नहीं दिया था बल्कि वे इसे लेकर कहते थे कि जनसंघी सांप्रदायिकता को नहीं छोड़ सकते. मुंबई में रहने वाले जेपी के मानसपुत्र माने जाने वाले प्रसिद्ध विचारक कुमार प्रशांत कहते हैं- ‘दरअसल जिन्होंने जेपी को 1974 से 1977 के बीच पहचाना, उनको जेपी की पहचान नहीं हो सकती. 1974 के आंदोलन के बाद जेपी को जानने वाले अवलंबन के रूप में उनका इस्तेमाल कर रहे हैं. कुमार प्रशांत कहते हैं, ‘जेपी ने कभी गैर कांग्रेसवाद का नारा नहीं दिया था, बल्कि वे कहते थे कि नदी के प्रवाह में बीच में लाश की तरह कांग्रेस आ गयी है तो प्रवाह उसे किनारे कर देगा.’ जेपी के आंदोलन में जो लोग आ रहे थे, जेपी ने सबको अपनी राजनीतिक पार्टी से नाता तोड़ने को कहा था. उन्होंने खुद के संगठन तरुण भारत संघ का भी विघटन कर दिया था. कई समूह जेपी के साथ जुड़ गये, जेपी और परेशान रहने लगे. वे कहा करते थे- लोगों के बीच जाता हूं तो जनसैलाब देखकर नाचने का मन करता है, लेकिन मेरी स्थिति मोर जैसी हो जाती है. मोर भी नाचना चाहता है लेकिन जैसे ही वह अपने पांव की ओर देखता है, नाच नहीं पाता. उसके गंदे-भद्दे पांव उसे नाचने से रोक देते हैं. वैसे ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद वगैरह के जुड़ जाने से अपने को महसूस करते थे जेपी. कुमार प्रशांत कहते हैं कि जेपी को तभी अपने शिष्यों से निराशा हो गयी थी. उन्होंने छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का गठन किया था और सबसे पूछा था कि अब दो धारा है. एक संसदीय व विधायी राजनीति में जाने का, दूसरा वाहिनी से जुड़ने का. उनके लोगों ने अपनी-अपनी राह पकड़ ली. जो संसदीय-विधायी राजनीति में गए, उन्होंने जेपी को सिंबल बना लिया. जो दूसरे रास्ते चले, आज भी संघर्ष के साथ रचना की कोशिश में लगे हुए हैं. यह सच है कि जेपी के आंदोलन से जुड़े कई आंदोलनकारी आज भी पूरी ईमानदारी से संघर्ष और सृजन की चेष्टा में लगे हुए हैं. देश के अलग-अलग हिस्से में. लेकिन मुख्यधारा की राजनीति करने वाले 1974 के आंदोलन के इस बेजोड़ नायक का वर्षों से अपनी तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं. जेपी ने कभी कांग्रेस को धूल चटा दी थी. अब भी कई कांग्रेसियों को जेपी फूटी आंख नहीं सुहाते. लेकिन जेपी के एक प्रमुख राजनीतिक शिष्य लालू प्रसाद यादव कांग्रेस की छत्रछाया पाने के लिए बेताब-से रहते हैं. कांग्रेस के साथ सत्ता-शासन भोग चुके हैं. जेपी जनसंघियों से दूरी बनाकर रखना चाहते थे. जेपी के ही दूसरे राजनीतिक शिष्य नीतीश कुमार जनसंघ के नये संस्करण भाजपा के साथ केंद्र में सत्ता सुख भोग चुके हैं, राज्य में शासन कर रहे हैं. राजनीति के मॉडल में जेपी घड़ी की पेंडुलम की तरह बना दिए गए हैं. वक्त को आगे बढ़ाने, भगाने या गुजारने के लिए इधर करो, उधर करो. वक्त निकलता जाएगा.
नीतीश ने सिताबदियारा में बिजली पहुंचा दी है. लालू प्रसाद यादव के 15 साल के राज-पाट के दौरान यह इलाका हर सुविधा से महरूम रहा
तो क्या यह जेपी की आइडियोलॉजी की चूक है या उनकी आइडियोलॉजी में फ्लेक्सिबिलिटी इतनी थी कि हर कोई अपनी सुविधा से इस्तेमाल कर सकता है? जनसंघी भी. बिहार के लेखक व विचारक प्रसन्न चाैधरी कहते हैं कि ऐसा नहीं है. वे पूछते हैं कि यह हक कैसे नीतीश कुमार या किसी और को मिल गया कि वे आडवाणी को जेपी की विरासत को अपने तरीके से राजनीतिक इस्तेमाल के लिए दे दिए. दिल्ली में रहनेवाले प्रसिद्ध लेखक गिरीश मिश्र कहते हैं, ‘जेपी ने 1948 में गांधी की हत्या के बाद दिल्ली के रामलीला मैदान की एक सभा में हुंकार भरते हुए सरदार वल्लभभाई पटेल से पूछा था- आरएसएस पर अब तक प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया आपने?
कुमार प्रशांत, प्रसन्न चौधरी, गिरीश मिश्र, योगेंद्र यादव जैसे लोगों की चिंता वाजिब हो सकती है, लेकिन जेपी के कथित राजनीतिक शिष्यों के लिए ऐसे सवाल बेमानी हैं. उनके लिए क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, दोनों कुछ-कुछ बराबर हंै. और भाजपा से पूछें तो उसके पास एक जवाब है. 1980 में जब भाजपा बनी थी, तभी उसके संविधान में लिखा गया था- इस पार्टी की स्थापना का उद्देश्य है- गांधीवादी समाजवाद की स्थापना. इसका जवाब क्या है?