क्या जल सत्याग्रह की सफलता पिछले 26 साल से चल रहे नर्मदा बचाओ आंदोलन में नई जान फूंक पाएगी? शिरीष खरे की रिपोर्ट.
पिछले दिनों जल सत्याग्रह के चलते मध्य प्रदेश के खंडवा जिले का घोघलगांव सुर्खियों में आया और उसी के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन भी. नर्मदा घाटी में जल सत्याग्रह का तरीका नया नहीं है. 1991 में मणिबेली (महाराष्ट्र) का सत्याग्रह जल समाधि की घोषणा के साथ ही चर्चा में आया था. तब से कई जल सत्याग्रह हुए. लेकिन इस बार का जल सत्याग्रह अपनी लंबी समयावधि और मीडिया में मिली चर्चा की वजह से बहुत अलग रहा. इस मायने में भी यह खास था कि राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार तक को तुरंत इस मसले पर हरकत में आना पड़ा. केंद्रीय ऊर्जा मंत्री वीरप्पा मोइली ने जहां ऊर्जा मंत्रालय से एक जांच दल प्रदर्शन स्थल पर भेजा तो वहीं राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के निर्देश पर दो मंत्रियों को भी हेलीकॉप्टर से उड़कर घोघल गांव उतरना पड़ा. इन मंत्रियों ने लोगों से पानी से बाहर निकलने की गुहार लगाई लेकिन बात नहीं बनी. और आखिरकार प्रदेश की भाजपा सरकार को ओंकारेश्वर बांध का जल स्तर कम करने के साथ ही जमीन के बदले जमीन की मांग मानने के लिए राजी होना पड़ा.
पिछले कुछ महीनों के दौरान देश में अन्ना आंदोलन से लेकर परमाणु संयंत्र विरोध और जमीन अधिग्रहण जैसे मसलों पर तमाम आंदोलन हुए लेकिन जैसी कामयाबी जल सत्याग्रह के हिस्से में आई वैसा उदाहरण कोई दूसरा देखने को नहीं मिला. ऐसे में यह सवाल सहज ही उठ रहा है कि क्या इस जल सत्याग्रह ने कई दिनों से सुसुप्त-से दिख रहे अपने मातृआंदोलन- नर्मदा बचाओ आंदोलन में नई जान डाल दी है. यदि आंदोलन की पृष्ठभूमि में जाएं तो जल सत्याग्रह इसका अहम पड़ाव है. बीते कुछ सालों में ऐसे कई मौके आए जब हाई कोर्ट (2008) और सुप्रीम कोर्ट (2011) ने आंदोलन का पक्ष लेते हुए राज्य सरकार को जमीन के बदले जमीन देने के आदेश जारी किए. पर बीते साल आंदोलन को तब बड़ा झटका लगा जब सुप्रीम कोर्ट ने उसे वे झूठे शपथ-पत्र पेश करने पर कड़ी फटकार लगाई जिनमें आंदोलनकारियों ने राज्य सरकार पर गलत तरीके से विस्थापितों की 284 हेक्टेयर जमीन हथियाने की बात कही थी. कोर्ट के इस रवैये से आंदोलन की साख पर कई सवाल खड़े हुए थे. इसके बाद से आंदोलन ने ऐसा कोई प्रदर्शन नहीं किया जो इसकी प्रासंगिकता साबित करे. ऐसे में इस साल हुई भारी बारिश के बाद सिंचाई तथा बिजली की पर्याप्त व्यवस्था करने के नाम पर जब राज्य सरकार ने ओंकारेश्वर बांध में निर्धारित 189 मीटर से अधिक पानी भरना शुरू कर दिया तो डूब का क्षेत्र बढ़ गया. घोघल सहित कई गांवों में पानी घुस गया. लिहाजा 25 अगस्त को यहां पचास से अधिक लोगों ने जल में खड़े होकर सत्याग्रह का एलान कर दिया.
दरअसल सरकार पर सत्याग्रह की चोट चुनावी साल शुरू होने के ठीक पहले की गई.
ऐसे समय जल सत्याग्रह में शामिल स्थानीय लोगों के प्रति भाजपा और कांग्रेस के बीच सहानुभूति दिखाने की होड़ ने आंदोलन का रास्ता आसान बना दिया. उल्लेखनीय है कि जिन सुभाष यादव ने सांसद रहते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बांध की नींव रखवाई और उसकी नहरों से अपनी राजनीतिक फसल तैयार की थी, उन्हीं की विरासत संभाल रहे उनके पुत्र अरुण यादव जब बांध विरोधी आंदोलनकारियों के साथ पानी में खड़े दिखे तो शिवराज सिंह को अपनी संवेदनशील छवि बनाए रखने के लिए आंदोलन के पक्ष में जाना पड़ा. जानकारों का एक बड़ा तबका इस सत्याग्रह की सफलता को विशेष परिस्थितियों से जोड़कर देख रहा है. इस वर्ग का मानना है कि अगर मध्य प्रदेश में नर्मदा बचाओ आंदोलन प्रभावित लोगों की मांगों और बाकी जनता की जरूरतों के बीच संतुलन के साथ आगे नहीं बढ़ता है तो यह कमजोर बना रहेगा. वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई इस बारे में तर्क देते हैं.’ जैसे ही आंदोलन को लेकर यह संदेश जाएगा कि यह बिजली और सिंचाई रोक रहा है तो इसे व्यापक समर्थन मिलना बंद हो जाएगा.’
जल सत्याग्रह के आगे सरकार के झुकने की एक और बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि अक्टूबर के आखिरी हफ्ते में राज्य की व्यावसायिक नगरी इंदौर में ग्लोबल इन्वेस्टर मीट का आयोजन होना है. इस मीट में सरकार को करोड़ों रुपये का निवेश आने की संभावना दिख रही है. इस दौरान उद्योग लगाने के नाम पर कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों को औने-पौने दाम पर लाखों हेक्टेयर जमीन देने का प्रावधान है. मीडिया और आम लोगों के बीच काफी समय से इस बारे में चर्चा चल रही है. ऐसे में यदि प्रदेश के लोगों को अपनी ही जमीन बचाए रखने के लिए जान की बाजी लगानी पड़े तो उनके प्रति लोगों की सहानुभूति उमड़नी ही थी. इसी का लाभ जल सत्याग्रह को मिला. सरकार के सामने इन्वेस्टर्स मीट को विवादों से बाहर रखना एक बड़ी प्राथमिकता थी इसलिए उसने आंदोलनकारियों की मांग मानने में ही अपनी भलाई समझी. आंदोलन की नेता चित्तरूपा पालित कहती भी हैं, ‘यदि सरकार ने प्रभावितों को जमीन देने की बजाय धोखा दिया तो हम कंपनियों को सरकार की असलियत बताएंगे.’
हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब सरकार इन्वेस्टर मीट के बाद कंपनियों को जमीन बांटेगी. लेकिन पिछले दिनों ऐसे उदाहरण देखने को नहीं मिले जब आंदोलनकारियों ने कंपनियों को जमीन देने के मसले पर व्यापक प्रदर्शन किए हों और उनकी गूंज राष्ट्रीय स्तर तक सुनाई दी हो. ऐसे में कुछ महीनों बाद राज्य सरकार के रवैये में आए बदलाव और उसके विरोध में आंदोलनकारियों की प्रतिक्रिया का अंदाज लगाना काफी मुश्किल है. फिर भी इस आंदोलन की सफलता एक अहिंसक लोकतांत्रिक हथियार के रूप में साबित हुई है. इससे सहमति जताते हुए समाजवादी जन परिषद नेता सुनील कहते हैं, ‘जब कई आंदोलन हिंसा की तरफ बढ़ रहे हैं तो सरकार के सत्याग्रह के सामने झुकने से इस अहिंसक आंदोलन को ताकत जरूर मिलेगी.’