बात वर्ष 2011 की है. उन दिनों मैं तहलका के लिए पटना में रहकर काम किया करता था. बिहार के दो इलाकों मुजफ्फरपुर और गया में दिमागी बुखार (इंसेफलाइटिस) से बच्चों के मरने की खबरें सुर्खियों में थीं. यूं तो इस बीमारी से मरने वाले बच्चे आम तौर पर गरीब परिवारों से ही ताल्लुक रखते हैं और इसलिए वे कोई खबर नहीं होते लेकिन उस वर्ष मृतकों का आंकड़ा थोड़ा ज्यादा था. तीन महीने में 85 बच्चों की मौत हो चुकी थी और सौ से अधिक अस्पतालों में थे. जाहिर है मामला मीडिया में उछल चुका था.
हमने भी इस पर रिपोर्ट करना तय किया. पटना से गया तकरीबन सौ किलोमीटर की दूरी पर है, इसलिए मैं अपने साथी रिपोर्टर के साथ शाम ढले निकल गया ताकि रात तक गया पहुंच कर अगली सुबह काम शुरू कर सकें. सबसे पहले हम गांवों में उन परिवारों से मिलने पहुंचे जिनके बच्चे इस बीमारी की वजह से काल के गाल में समा चुके थे. उनके दुख की कहानी भी बड़ी अजीब थी. हम जिन-जिन परिवारों के पास गए उनमें से ज्यादातर के घर पर ताले झूलते हुए मिले. पूछताछ करने पर पता चला कि बच्चे के मां और बाप धान काटने गए हैं. खेत में मिलेंगे. सुनकर आश्चर्य हुआ. हमने जब जानकारी देने वाले से पूछा कि कल ही तो इनके बच्चे की मौत हुई है और ये आज ही काम पर चले गए! तो सामने से सीधा-सा जवाब आया- साहेब, जाने वाला तो गया. अब जो जिंदा है ऊ कमाएगा नहीं तो खाएगा क्या? और खाएगा नहीं तो क्या भूखा मरेगा? इस जवाब में भूख, गरीबी और जीवन का पूरा दर्शन था. बहरहाल, कुछ परिवारों से हमने खेत में ही जाकर मुलाकात की.
इस बीच दिन चढ़ चुका था. हमें खबर और तस्वीरों के लिए गया शहर में स्थित अनुग्रह नारायण मेडिकल कॉलेज ऐंड हॉस्पिटल भी जाना था. बीमार बच्चों का इलाज वहीं हो रहा था. यकीन मानिए अस्पताल की जो हालत हमने देखी उसे अगर पन्नों पर उतारूं तो कई पन्ने भर जाएंगे लेकिन उसकी दुर्दशा की खबर पूरी तरह नहीं आ पाएगी. यह अस्पताल क्या था, उसके नाम पर पूरा मजाक था. कोई सुविधा नहीं, मशीनें खराब, दवाएं नदारद. लेकिन इलाज चल रहा था और बच्चे मर रहे थे.
एक डॉक्टर को यह कहा गया कि वे हमें इस बीमारी से पीड़ित बच्चों के वार्ड में ले जाएं. वे हमें एक कमरे में ले गए जिसके बाहर दरवाजे के ठीक ऊपर हरे रंग का एक बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था- इंसेफलाइटिस वार्ड. हम कमरे में घुसे. वहां की हालत भी दूसरे कमरों से अलग नहीं थी. तमाम बिस्तरों पर बच्चे लेटे हुए थे. उनके नाक, मुंह और हाथों में तरह-तरह के पाइप लगे हुए थे जो कमरे के सन्नाटे को और घना बना रहे थे. मुझे तस्वीरें लेनी थीं, लेकिन मैं इस खामोशी को भंग करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था. मुझे याद है कि पहले 10-15 मिनट तक तो मैंने कोई तस्वीर नहीं खींची.
मैं एक कोने में खड़ा कमरे का मुआयना कर रहा था कि कहां से तस्वीरें लेना ठीक होगा. मेरी नजर एक बिस्तर पर लेटी लड़की पर पड़ी. छह या सात साल की उम्र होगी उसकी. पूरा शरीर काला पड़ चुका था, बस उसकी आंखें चमक रही थीं और इस नीम कालेपन में उन आंखों की सफेदी कुछ ज्यादा ही उभर आई थी. मैं उसके करीब गया. वह एकटक ऊपर की तरफ देख रही थी. मैं टॉप एंगल से उसकी तस्वीर उतारने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसकी बड़ी-बड़ी आंखें लेंस के भीतर से और साफ नजर आने लगतीं. मानो वे मुझसे पूछ रही थीं कि क्यों ले रहे हो मेरी तस्वीर. तुम्हें नजर नहीं आ रहा मैं कितनी बीमार हूं!
तमाम कोशिशों के बावजूद मैं उसकी तस्वीर नहीं ले सका. वे आंखें मेरे पूरे वजूद पर छाने लगी थीं. मैं वहां से हट ही रहा था कि साथ आए डॉक्टर की बातें सुनकर कांप उठा. उसने पूरी बेफिक्री से कहा, ‘यह लड़की दिमागी तौर पर मर चुकी है. आप चाहें तो फोटो ले सकते हैं उसे कुछ नहीं नजर आ रहा. एक-दो दिन में यह शारीरिक तौर पर भी मर जाएगी.’
डॉक्टर ने मुझे जो कुछ कहा वह उसकी कोशिश थी मुझे सामान्य बनाने की, लेकिन इस बात से मैं पूरी तरह असामान्य हो गया. हालांकि पेशेवर होने के नाते मैंने कुछ तस्वीरें लाजिमी तौर पर लीं. बाद में भी मैंने कभी जानना नहीं चाहा कि उस बच्ची का क्या हुआ, शायद मर गई होगी. वह तस्वीर अब भी मेरे पास है. खाली वक्त में मैं अपने कैमरे में तमाम तस्वीरें देखता हुआ अतीत को जीता हूं लेकिन उस तस्वीर पर मैं एक पल भी नहीं ठहरता. जानते हैं क्यों? क्योंकि उन आंखों में जो सवाल हैं उनका जवाब मेरे पास अब भी नहीं है!