उरांव चित्रकला की अकेली महिला चित्रकार
भोपाल यूं तो झीलों के लिए जाना जाता है लेकिन इसकी एक खास पहचान तरह-तरह के संग्रहालयों की वजह से भी बनती जा रही है. इसी शहर में गए साल और एक संग्रहालय वजूद में आया तो खुद भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी इसे देखने चले आए. असल में यह संग्रहालय कई मायनों में देश भर में है भी अनूठा. नाम है- जनजाति संग्रहालय. जनजाति संग्रहालय को तरह-तरह की जनजातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले कलाकारों ने जैसा गढ़ा है उससे यह और अधिक अनूठा बन गया है. लेकिन इसमें प्रवेश करने से पहले जो बात आपको रोक लेती है वह है इसके मुख्य द्वारा पर बनी लोक आदिवासी चित्रकला के कुछ रूप और रंग. दरअसल यह उरांव जनजाति की चित्रकला के रंग और रुप हैं. इन्हें कुछ समय पहले तक विलुप्त मान लिया गया था. लेकिन खुशी की खबर यह है कि इस चित्रकला की एक बड़ी चित्रकार अब भोपाल में मौजूद हैं. इनका नाम है, अग्नेश केरकट्टा.
अग्नेश केरकट्टा को जानने से पहले यह समझते हैं कि आखिर उरांव चित्रकला अन्य जनजातियों की चित्रकला से इतनी भिन्न क्यों है. दरअसल इस चित्रकला की विशेषता है कि इसमें चित्रों को केवल हाथों और उसमें भी हाथों की अंगुलियों से बनाया जाता है. यानी इन्हें बनाते समय कूची का प्रयोग कतई नहीं किया जाता है. छत्तीसगढ़ के रायगढ़ के कुछ जनजाति बहुल गांवों में प्रचलित रही इस चित्रकला के पीछे जाएं तो पुराने जमाने में उरांव आदिवासी नई फसल के घर आने पर इष्ट देव को धन्यवाद देने के लिए घर की साफ-सफाई करते थे. यह मौका उन्हें साल में एक ही बार मिला करता था. फसल काटकर जब खेतों से खलिहानों तक पहुंचा दी जाती तो घर की महिलाएं थोड़े समय के लिए फुर्सत हो जातीं और इसी खाली समय में वे घर की दीवारों को गोबर से लीप-पोतकर चिकना किया करतीं. उसके बाद उस पर चटख रंगों से तरह-तरह की कृतियां बनातीं. जैसे कि पेड़-पौधे, फल-फूल और पशु-पक्षी इत्यादि. इन रचनाओं में समय के साथ एकरूपता आने लगी और ये उरांव चित्रकला के रूप में विकसित हो गई.
अग्नेश केरकट्टा को कोई 15 बरस पहले तक इन चित्रों का ज्ञान तो था लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि जिस प्रकार से यह चित्रकला विलुप्ति की कगार तक पहुंच चुकी है उस हाल में उसका महत्व क्या है. अग्नेश उरांव जनजाति की नृत्य कला में भी पारंगत हैं. इस नृत्य विधा में मुख्य तौर पर दो रूप होते है एक तो कर्मा और दूसरा सरहूर. इन दोनों रुपों में निपुण अग्नेश केरकट्टा को जब कला और संस्कृति के क्षेत्रों में काम करने वाले जानकारों से यह पता चला कि जानकारों के बीच आज भी उरांव चित्रकला की काफी पूछ-परख है तो उन्होंने इस कला शैली में अपना हाथ आजमाना शुरू किया. नतीजा यह है कि डेढ़ दशक के बाद आज उनकी मेहनत रंग ला रही है. आज उरांव जनजाति की चित्रकला दुबारा सांस ले रही है.
अग्नेश केरकट्टा के चित्रों का देश के कई शहरों में प्रदर्शन हो चुका है. उनके कई चित्र अब भारत भवन जैसे कई नामी कला भवनों में सार्वजनिक हो चुके हैं. और उससे भी बड़ी बात कि उरांव चित्रकला के बहाने ही सही अग्नेश जैसी जनजाति प्रतिभाओं को भी अब जगह-जगह पर मान और सम्मान मिल रहा है. उनके चित्रों की मांग तेजी से बढ़ रही है.
1972 में जन्मीं अग्नेश ने अपनी पुरानी पीढ़ी से ही उरांव चित्रकला सीखी है. लिहाजा वे अब इस चित्रकला को आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाना चाहती हैं. यही वजह है कि वे सुमंती देवी नाम की एक युवा कलाकार को उरांव चित्रकला के गुर सिखा रही हैं. तीस बरस की सुमंती देवी भी अग्नेश केरकट्टा के साथ ही उनके नृत्य समूह में नाचते और गाते हुए बड़ी तल्लीनता से उरांव चित्रकला को सीख रही हैं. कहने को सुमंती देवी अग्नेश केरकट्टा की कोई सगी बेटी नहीं हैं. लेकिन उरांव जनजाति की यह कला आगे तक जिंदा रहे सो सुमंती देवी अग्नेश केरकट्टा की बेटी बन गई हैं. और अग्नेश सुमंती देवी की मां बन गई हैं.
महिला मजदूर से लोक कला के शिखर तक
करीब पच्चीस साल पहले जब भूरी बाई नाम की एक भील महिला को मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा राजकीय सम्मान ‘शिखर सम्मान’ मिला तो बहुतों के लिए यह आदिवासी कलाकर एक पहेली की तरह सामने उपस्थित हुई थी. भूरी बाई प्रथम भील आदिवासी चित्रकार के तौर पर जब पूरी दुनिया में शोहरत हासिल करने लगीं तो कला प्रेमियों के मन में एक सहज सवाल यह उठा कि आखिर वे कैसे इस मुकाम तक पहुंचीं.
भूरी बाई आज जिस मुकाम पर हैं वहां तक पहुंचने का सपना भी उन्होंने कभी नहीं देखा था. लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि आपके साथ घटी एक घटना ही आपके पूरे भविष्य की बुनियाद बन जाती है. भूरी बाई के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. यदि उनके जीवन में वह सुखद घटना नहीं घटती तो इतनी महान आदिवासी कलाकार के रूप में हम और आप उनकी कला को कभी नहीं देख पाते.
भूरी बाई की कहानी बड़ी दिलचस्प है. वे अपने पति के साथ मजदूरी की तलाश में जब सैकड़ों मील दूर का फासला तय करके राजधानी भोपाल पहुंचीं तो उन्हें एक बड़े भवन की दीवारों को खड़ा करने के काम में मजदूरी मिली. दरअसल उन दिनों वे देश और दुनिया के कला जगत की एक मजबूत नींव भारत भवन की दीवारों को खड़ा कर रही थीं. उन्हीं दिनों महान कलाकार और भारत भवन की बुनियाद के एक मजबूत स्तंभ स्वर्गीय जे स्वामीनाथन उनके पास आए. वे भूरी बाई से कुछ बातें करने लगे लेकिन हिन्दी न आने के चलते भूरी बाई को उनकी बातें समझ नहीं आईं. तब उनके साथी मजदूरों ने भूरी बाई को समझाया कि दरअसल साहब उनकी चित्रकला के बारे में समझना चाह रहे हैं. स्वामीनाथन को उन्होंने बाबा कहते हुए बताया कि यह चित्रकारी यहां संभव नहीं है. वजह यह है कि इसके लिए जो बहुत सारे रंग चाहिए वे भोपाल में नहीं मिल सकते. उन्होंने बताया कि भील आदिवासी अपने इलाके की खास किस्म की मिट्टी से काला रंग और खास किस्म की पत्तियों से हरा रंग बनाती हैं. उन्होंने बताया कि इसके लिए जो दीवार चाहिए वह भी भोपाल में नहीं मिलेगी. और उससे भी बड़ी बात तो यह है कि इसके लिए जो समय चाहिए वह भी उनके पास नहीं है. वजह यह थी कि तब उन्हें भारत भवन को बनाने के काम में छह रुपये दिन मिला करते थे. लेकिन श्री स्वामीनाथन ने जब जिद की और साथ ही यह भी कहा कि वे उनकी कला का मेहनताना देगें तो भूरी बाई ने उनके लिए कागजों पर भील चित्रकला के कुछ नमूने बनाए. स्वामीनाथन की आंखों में चमक आ गई. उन्होंने भूरी बाई से पूछा कि इस चित्रकला को आप अपनी बोली में बोलते क्या हो? भूरी बाई ने जवाब दिया बाबा यह हम भीलों के लिए पिथोरी चित्रकला है.
भूरी बाई की स्वामीनाथन से हुई यह बातचीत और उनके लिए बनाए गए पिथोरा चित्रकला के नमूनों ने आगे चलकर उन्हें लोक कला संसार में एक नई पहचान दी. वर्तमान में भूरी बाई अपनी कला का प्रदर्शन पूरे देश भर में कर चुकी हैं. उन्होंने भील पिथोरा चित्रकला को दुनिया में एक खास पहचान दिलाने के लिए अमेरिका सहित कई देशों की यात्रा भी की है. उनकी चित्रकला से प्रभावित हुए हर कलाप्रेमी को वे बताना चाहती हैं कि पिथोरा भील आदिवासी समुदाय की एक ऐसी कला-शैली है जिसमें गांव के मुखिया की मौत के बाद उन्हें हमेशा अपने बीच याद रखने के लिए गांव से कुछ कदमों की दूरी पर पत्थर लगाया जाता है. और फिर इस पत्थर पर एक विशेष किस्म का घोड़ा बनाया जाता है. यह विशेष किस्म का घोड़ा ही पिथोरा चित्रकला को खास पहचान देता है. किंतु भीलों में यह विशेष किस्म का घोड़ा बनाने की इजाजत केवल पुरुषों को ही दी जाती है. यही वजह है कि भूरी बाई ने अपनी चित्रकला की शैली में घोड़े की डिजाइन बदल दी है.
दरअसल भील आदिवासी पिथोरा चित्रों को अपने घरों की दीवारों पर बनाते हुए उनके भीतर बहुत ही सुव्यवस्थित तरीके से एक कहानी बुनते हैं. इस प्रकार पिथोरा चित्रकला में कुल चार प्रकार की कहानियां होती हैं. इन कहानियों का संदेश सिर्फ इतना होता है कि वे तीज और त्यौहारों पर अपने पुरखों को याद कर रहे हैं. दरअसल मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में प्रचलित इस पिथोरा चित्रकला के भीतर भीलों की अपनी ही दुनिया है. इसमें उन्हीं की दुनिया का रंग और रूप झलकता है. शहरी लोगों के लिए भले ही वह मनोरंजन का जरिया हो लेकिन आदिवासी तबके के लिए उनकी कला उस प्रकृति के सामने कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है जिससे उनका जीवनभर भरण-पोषण चलता रहता है.