वर्तमान भारत में जितने भी विमर्श चर्चित हैं, उनमें दलित विमर्श सर्वाधिक सम्पन्न मुद्दा बन चुका है. दलितों के संबंध में सबसे पुरानी दार्शनिक अवधारणा यह थी कि भारत मेंं जिस जातिव्यवस्था के चलते दलित सदियों से शिक्षा, संपत्ति, सामाजिक न्याय, मानवाधिकार आदि से वंचित होते आ रहे थे, वह ईश्वरीय लीला थी और ईश्वर या धर्म के विरुद्ध उंगली नहीं उठाई जा सकती. यही कारण है कि आज भी मीडिया में अक्सर खबरें छपती रहती हैं कि किसी विशेष हिन्दू मंदिर में दलित प्रवेश या उसके द्वारा पूजा करने के प्रयास में उसे मार डाला गया. यानी जाति व्यवस्था इतनी पवित्र है कि उसकी रक्षा में की गई हत्या को धर्म-रक्षा का रूप देकर बड़ी आसानी से भारतीय जनतांत्रिक प्रणाली तथा संवैधानिक ढांचे को हवा में उड़ा दिया जाता है. अभी ऐसा ही नजारा उड़ीसा के कई हिस्सों में देखने को मिला था. जाति व्यवस्था के नाम पर धर्म रक्षा का यह अभियान प्राचीन काल से होता चला आ रहा है. किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि जाति व्यवस्था का ऐसा दर्शन चुनौती-विहीन रहा. वास्तविकता यह है कि जिस युग में यह विकसित हो रही थी, उस युग से ही इसे चुनौतियां भी मिलने लगीं थीं.
जाति व्यवस्था विरोध को गौतमबुद्ध ने अपने सामाजिक दर्शन का मूल आधार बनाया. उन्होंने धर्मजनित जाति व्यवस्था को चुनौती देने के लिए इसके मूल स्रोत ईश्वर को ही निशाना बनाया. इस प्रकार दलित विमर्श की प्रथम उत्पत्ति गौतम बुद्ध के दर्शन से होती है. इस संदर्भ में एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि इस शुरुआती विमर्श का नेतृत्व गैर दलित दार्शनिकों ने किया. अनगिनत बौद्ध दार्शनिकों ने वेदों के साथ-साथ ईश्वर तथा धार्मिक कर्मकाण्डों को मानव के दिन-प्रतिदिन के व्यवहार से अलग कर एक धर्मनिरपेक्ष समाज का ताना-बाना खड़ा किया था. कालान्तर में वेदानुयाइयों के उग्र रूप धारण कर लेने से बौद्धों द्वारा स्थापित जातिविहीन समाज का ढांचा चकनाचूर हो गया. विशेष रूप से नवीं सदी में आदि शंकराचार्य के उत्थान के बाद जाति व्यवस्था अत्यंत उन्मादी हो गई जिसके कारण दलित समाज क्रूरतम अत्याचारों का शिकार होता रहा.
बारहवीं सदी के बाद जब मध्ययुगीन अत्याचार चरम पर थे तो कुछ दलित संतों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने जाति व्यवस्था के विरुद्ध ईश्वर को चुनौती कभी नहीं दी, बल्कि ये उसके सामने रोते-गिड़गिड़ाते रहे. ऐसे संतों में चोखामेला, रविदास, कबीर, नंदनार, तुकाराम आदि प्रमुख थे. यद्यपि ये सारे संत बुद्ध के सभी सिद्धांतों का पालन करते थे, किन्तु कभी बुद्ध का नाम नहीं लेते थे. शायद इसका कारण यह था कि बौद्ध-विरोधी अभियान के दौरान घटित भीषण हिंसा से ये संत भयाक्रांत थे. इसलिए उन्होंने बौद्धों की तरह ईश्वर को चुनौती नहीं दी. इन तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद दलित संतों ने समाज को जागृत करने में अहम भूमिका निभाई. दलित विमर्श के इस अनोखे स्वरूप से घबड़ा कर वर्णव्यवस्थावादियों ने इन दलित संतों के विरुद्ध अनर्गल दुष्प्रचार शुरू कर दिया. विशेष रूप से उनकी पैदाइश को लेकर यह कहा गया कि दलित संत किसी न किसी विधवा ब्राह्मणी की अवैध संतान हैं क्योंकि कोई दलित बुद्धि या विवेक के योग्य नहीं हो सकता. इस संदर्भ में रोचक तथ्य यह भी है कि ये ब्राह्मण अपनी श्रेष्ठता तथा बुद्धिमत्ता को सर्वोपरि रखने के लिए अपनी ही ब्राह्मणियों को अवैध शिशुओं की जननी बताने में जरा भी हिचक नहीं दिखाते थे.
‘जाति व्यवस्था हिंदू धर्म की देन है इसलिए जब जाति की अवधारणा मजबूत होती है तो हिंदू धर्म मजबूत होता है अर्थात् हिंदुत्ववादी पार्टियां मजबूत होती हैं’
इसके बाद का काल औपनिवेशक भारत में राष्ट्रवादी मांगों से शुरू होता है, किन्तु उसकी एक शाखा बिल्कुल अलग दिशा में जाती है जिसका नेतृत्व महात्मा फुले, पेरियार तथा अंबेडकर करते हैं. इन तीनों ने एक बार फिर वर्णव्यवस्था के जनक ईश्वर तथा हिन्दू धर्म को अपना निशाना बनाया. दलित विमर्श का यह तीसरा युग था. पहली बार ऐसा हुआ जब भारत किसी धर्मग्रंथ या ईश्वरीय विचारधारा से हटकर मानवीय कानूनों के आधार पर शासित होने लगा और इससे धीरे-धीरे दलित मुक्ति का रास्ता साफ होने लगा. इस कड़ी में आरक्षण व्यवस्था सही मायनों में युगांतकारी सिद्ध हुई.
जहां तक आशाओं और आशंकाओं का सवाल है तो वह आरक्षण की अवधारणा से ही जुड़ी हुई हैं. आज आरक्षण मुक्तिकामी न होकर मतकामी हो गया है. डॉ अंबेडकर की आरक्षण की अवधारणा यह थी कि जातिव्यवस्था की वजह से वंचित लोगों के सदियों पुराने दुख-दर्द की भरपाई के लिए उन्हें आरक्षण दिया जाए. किन्तु यह आरक्षण सिर्फ नौकरी-धंधे तक ही सीमित नहीं था. दलितमुक्ति की असली कुंजी शिक्षा थी. हिंदू धर्म वाली गुरुकुल शिक्षा प्रणाली ने दलितों को सदियों शिक्षा से वंचित रखा था. इस कड़ी में अंबेडकर ने सामाजिक चेतना जगाने पर भी विशेष बल दिया. इसके लिए उन्होंने वर्ण-व्यवस्था के तमाम स्रोतों पर हमला बोल दिया, जैसे मनुस्मृति जलाना आदि. उन्होंने कहा कि हिंदू धर्म कभी मिशनरी धर्म नहीं बन सका क्योंकि इसमें ‘ऊंच-नीच’ की अवधारणा पर आधारित जाति-व्यवस्था थी जिसके चलते हिंदू धर्म बाहर केवल हिंदू प्रवासियों के बीच तक ही सीमित रहा. उन्होंने बौद्ध धर्म को दलित मुक्ति का असली मार्ग बताया, क्योंकि इसमें जाति-व्यवस्था है ही नहीं. डॉ. अंबेडकर का यह भी कहना था कि सामाजिक आंदोलन का राजनैतिक आंदोलनों पर वर्चस्व होना चाहिए, क्योंकि राजनैतिक आंदोलन से स्वशासन तो प्राप्त हो सकता है, किंतु सामाजिक परिवर्तन तो सामाजिक जागृति से ही होगा.
बाद में 60 के दशक के बाद का समय अति महत्वपूर्ण रहा है, जब काशीराम ने वर्षों तक सामाजिक जागृति के माध्यम से उत्तर भारत में एक बड़ा दलित आंदोलन खड़ा कर दिया जो दलितों को एक प्रभावशाली भूमिका में ले आया. किंतु उनका आंदोलन जब सामाजिक जागृति के दौर से गुजर कर राजनीति में प्रवेश करता है तो स्थिति बिल्कुल बदलने लगती है. जैसे 1984 मेंं बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की स्थापना के बाद 1992 में जब संघ परिवार बाबरी मस्जिद को गिरा कर देश के अनेक हिस्सों में सांप्रदायिकता भड़का रहा था तो उस समय कांशीराम की बीएसपी ने पिछड़ी जातियोें वाली सपा से 1993 में चुनावी समझौता कर देश के सबसे बड़े प्रदेश – उत्तर प्रदेश की सत्ता अपने हाथों में ले ली. इससे ब्राह्मणवाद विरोधी अभियान को एक नई दिशा साफ दिखाई देने लगी थी क्योंकि यह दलितों एवं पिछड़ों का गठबंधन था जो यदि उत्तर प्रदेश से होते हुए देश के अन्य राज्यों में फैल जाता, तो इस समय देश की सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति कुछ और ही होती.
किंतु दोनों पार्टियों के नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं ने इस संभावना को चकनाचूर कर दिया. 1995 में अपने गठबंधन की सरकार को गिराकर बीएसपी ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) जैसी ब्राह्मणवादी पार्टी से समझौता कर डाला जिसकी वजह से मायावती तीन बार क्रमश: चार, छ: तथा 14 माह तक उत्तर प्रदेश की सत्ता में रहीं. बाकी सात साल बीजेपी का शासन रहा. इस तरह पहली बार दलित आंदोलन अपने सबसे बड़े दुश्मन यानी संघ परिवार का शिकार हो गया.
2007 के आते-आते दलित आंदोलन का सदियों पुराना ब्राह्मणवाद विरोधी अभियान ब्राह्मण सहयोग में बदल गया. विशेष रूप से मायावती ने डॉ. अंबेडकर की एक उक्ति को गलत संदर्भों में बड़े पैमाने पर उद्धृत करना शुरू कर दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि सत्ता हर ताले की मास्टर चाभी होती है. अत: जातिव्यवस्था विरोधी संपूर्ण ऐतिहासिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि को लात मार कर मायावती ने ब्राह्मणों को अपनी तरफ खींचना शुरू कर दिया. ब्राह्मणों के साथ अन्य सवर्ण जातियों को प्रभावित करने के लिए उन्होंने इस कड़ी में अलग-अलग जातियों के सम्मेलन आयोजित करवाने के साथ-साथ आर्थिक आधार पर नौकरियों में आरक्षण का वादा करना शुरू कर दिया. परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति में बड़े पैमाने पर जातीय चेतना का विकास होने लगा. दलित-आरक्षण की अवधारणा हिंदू धर्म की शिकार जातियों के शोषण पर विकसित हुई थी. इसे मायावती ने चकनाचूर कर दिया.
यह बात सही है कि गरीब सभी जातियों में पाए जाते हैं. किंतु ऐसे सवर्ण-गरीब कभी दलितों की श्रेणी में नहीं लाए जा सकते. उनकी गरीबी एक विशुद्ध गरीबी उन्मूलन योजना के तहत दूर करने का प्रयास होना चाहिए, न कि दलितों की तरह आरक्षण से. इस तरह आरक्षण जिसका सीधा संबंध सामाजिक न्याय से है, उसे तोड़-मरोड़कर मायावती ने सत्ता की राजनीति में बदल दिया. इस दार्शनिक तोड़-मरोड़ के चलते धीरे-धीरे पार्टियां सत्ताच्युत्त हो रही हैं और जातियां सत्ता में आने लगी हैं. परिणामस्वरूप भारत की जनतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली विशुद्ध जातीय प्रणाली में बदलती जा रही है. इतना ही नहीं, गौतम बुद्ध के प्रसिद्ध नारे ‘सर्व जन हिताय’ का नारा देकर दलित मुक्ति की दिशा को उल्टा खड़ा कर दिया गया है. फलत: बुद्ध से लेकर अंबेडकर तक का जो दलित आंदोलन जाति व्यवस्था-विरोधी था, उसने अब जातिवादी स्वरूप हासिल कर लिया है. इसके चलते जातीय सत्ता की होड़ मच गई है. इसका एक खतरनाक पहलू यह है कि चूंकि जाति व्यवस्था हिंदू धर्म की देन है इसलिए जब जाति की अवधारणा मजबूत होती है तो उससे जाति व्यवस्था मजबूत होती है तो हिंदू धर्म मजबूत होता है, अर्थात् हिंदुत्ववादी पार्टियां मजबूत होती हैं. यह क्रमिक विकास इस समय भारत की राजनीति में धीरे-धीरे छाने लगा है.
जाहिर है, जब दलित खुद ही जातीय चेतना भड़काने लगें तो हिंदुत्ववादी चेतना कैसे रुक सकती है? अत: प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों में बीएसपी की नीतियों के चलते संघ परिवार का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित हिंदुत्ववादी फासीवाद धीरे-धीरे सामाजिक तौर पर विकसित होने लगा है. भविष्य में हिंदुत्ववादी यदि सत्ता में पुन: आएंगे, तो अब तक का सारा सामाजिक आंदोलन हमेशा के लिए नेस्तनाबूद हो जाएगा. संयोगवश समय रहते यदि चेता नहीं गया, तो ऐसा संभव हो सकता है. इस संदर्भ में दलित विमर्श निश्चित रूप से एक घोर अंधकारमय दौर से गुजर रहा है.’