उत्तराखंड में जीते निर्दलीय और आए बदले संकेत

उत्तराखंड में नवंबर के महीने में निकाय चुनाव करवाये गये । इन निकाय चुनावों के परिणाम आगे की कहानी कह रहे हैं। डेढ़ वर्ष पहले प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ। कांग्रेस सत्ता में थी। येन- केन प्रकारेण कांग्रेस ने किसी तरह पांच साल संविद सरकार बनाकर चलाई। यानी कांग्रेस पार्टी के पास तब स्पष्ट बहुमत नहीं था। निर्दलियों के अलावा मायावती बहुजन समाज पार्टी भी पांच साल तक सत्ता का सुख लेकर विदा हो गई। विधान सभा चुनाव में जनता ने भाजपा को भारी बहुमत दे कर उत्तराखंड में सत्ता सौंपी, और भाजपा को मौका दिया कि वह प्रदेश के लिए कुछ नया करके दिखाये। लेकिन भाजपा भी कोई ऐसा तिलस्म नहीं दिखा पाई जिससे जनता राहत पाती।

इसका सीधा असर निकाय चुनावों पर पड़ा। कायदे से निकाय चुनावों में पार्टियों की बजाय उन व्यक्तियों को तव्वजो मिलनी चाहिए जो स्थानीय निकायों में विकास का पहिया दौडा़एं। अक्सर होता यह है कि राजनीतिक पार्टियां अपना दबदबा दिखाने के लिए हर जगह हाथ पांव मारती हैं। देश में कोई भी चुनाव क्यों न हों, स्वतंत्र रूप से खड़े होने वाले व्यक्ति को मौका नहीं मिलता। यही कारण है कि सच्चा लोकतंांत्रिक रूप भी सामने नहीं आता। इससे विकास की रफ्तार धीमी पड़ जाती है।

लेकिन उत्तराखंड के निकाय चुनावों के परिणामों से एक नया परिदृष्य सामने आता है। जनता ने स्थानीय निकायों के चुनाव में निर्दलियों को भारी संख्या में जिताया। इससे कांग्रेस और भाजपा का बोट बैंक भी खिसकता नजर आ रहा है। सभी निकायों के पार्षद, सभासद और सदस्य पदो ंके 1064 पदों में से 551 स्वतंत्र उम्मीदवारों ने जीतें हैं। इन नतीजों का रुख यह बताता है कि जनता कांगे्रस और भाजपा की कार्यशैली से नाखुश है।

भाजपा से डेढ़ साल में जनता का मोहभंग हो गया है। जनता अब विकल्प की तलाश में है। 551 स्वतंत्र यानी निर्दलियों की जीत से यह स्पष्ट हो रहा है कि पार्टी से हट कर विकास का रास्ता तलाशा जा रहा है। जैसे उत्तराखंड आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश में रहते हुए नेतृत्व विहीन आंदोलन चला था। व्यक्ति विशेष और पार्टी विशेष से हट कर आंदोलन ने गति पकड़ी थी और इसमें विशेष भूमिका मीडिया की रही।

आज उसी राह पर जनता आगे का रास्ता तय करने के मूड में है। फिलहाल इन निकाय चुनावों ने सोचने को बाध्य कर दिया है कि लोग नये विकल्प की तलाश में हैं।

हाल ही में हुए स्थानीय निकायों के चुनाव में भाजपा 323, कांग्रेस182, बीएसपी 4, आम आदमी पार्टी ने दो और सपा व उत्तराखंड क्रांतिदल ने एक- एक सीट जीतीं। कांग्रेस और बीजेपी के जीते हुए कुल 505 सदस्य हैं, इससे अधिक 551 निर्दलीय हैं। ऐसे ही 84 नगर निकायों में से 34 पर बीजेपी और 25 नगर निकायों पर कांग्रेस ने सीटें जीतीं, यहां पर भी निर्दलीय 25 सीटों को ले गये। एक निकाय पर ही बीएसपी जीत पाई।

इसी तरह सात नगर निगमों में से पांच पर बीजेपी के मेयर चुने गये और 2 पर कांग्रेस के मेयर सफल रहे। हैरानी की बात तो यह है कि स्वयं मुख्यमंत्री के क्षेत्र डोईवाला में बीजेपी की हार हुई। इससे यह दिचा रहा है कि बीजेपी का प्रभाव क्षेत्र सिमट कर खाली शहरों तक ही सीमित रहा।

यदि पूरे पांच सालों के चुनावी समीकरणों को देखें तो कांग्रेस की बजाय बीजेपी की स्थिति सिमटती जा रही है। पहला झटका बीजेपी को दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने दिया जो एकदम नौसिखिया पार्टी थी, इसने विधान सभा की 70 सीटों में से 67 सीटों पर कब्जा किया था और केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया। इस अचानक हुए बदलाव से बीजेपी चैंकी, इस कारण आम आदमी पार्टी की जीत को अभी तक बीजेपी पचा नहीं पा रही है। जाहिर है इसकी वजह से दिल्ली हमेशा विवादों के घेरे में रहती है। संविधान ने कुछ लाइनें खींची हुई हैं, उसी के अनुसार केंद्र और राज्य को अपने हद में रह कर विकास की ओर ध्यान देना चाहिए, लेकिन व्यावहारिक रूप में यह दिल्ली में हो नहीं पा रहा है। अपने वर्चस्व की लड़ाई में जनता को तकलीफ देने की कवायद चल रही है। ऐसी ही ििस्थ्त हर उस राज्य की है, जहां बीजेपी सत्ता में नहीं है। इन पांच सालों के भीतर बीजेपी ने यों कहें हर तरह से सत्ता पाने की कोशिश की, जब सफल नहीं हो पाई तो उस राज्य सरकार को विचलित करने की हर तरह से कोशिशें की।

एक ताजा नमूना जम्मू कश्मीर का है। यदि विधानसभा भंग करनी ही थी तो उसी दिन कर लेते जिस दिन सरकार चलाने का गठबंधन टूटा था। ऐसे ही बीजेपी अपने बूते पर बहुत सारे राज्यों में सरकार नहीं बना पाई तो वहां की पार्टियों को तोड़ कर सरकार बनाने की कोशिश करती रही। इसमें गोवा और अरुणाचल प्रदेश राज्य प्रमुख हंै।

यही नहीं बीजेपी के बहुत सारे केंद्रीय मंत्री दूसरी पार्टियों से उधार लिए हुए हैं, ऐसे में हम कैसे कहें कि बीजेपी एकदम ऐसी शुद्ध पार्टी है जिसमें कांगे्रस का हाथ नहीं हैं। खुद मोदी की कैबिनेट मिलीजुली पार्टियों से है। जिस पार्टी को वे पांच सालों तक गरियाते रहे उन्हीं से छिटके सदस्य प्रधानमंत्री मोदी के मंत्रिमंडल को इंज्वाय कर रहे हैं। यदि पांच सालों तक मोदी कांग्रेस का नाम लिए बगैर अपने कार्योंं को अंजाम देते तो अच्छा होता। अपनी लाइन को बड़ी करने के प्रयासों में हर बार कांग्रेस की कमियां निकालने के प्रयासों में नरेंद्र मोदी व्यस्त रहे। इस बात को जनता पूरी तरह से जान चुकी है।

यदि बीजेपी की समीक्षा की जाए तो लगता है जो भी कार्यक्रम कांग्रेस ने चलाये थे, उनके नाम बदलकर मोदी सरकार अंजाम देती रही। नोटबंदी के अलावा कोई ऐसा कार्यक्रम नहीं दिखता जो कांग्रेस के कार्यक्रमों से हट कर रहा हो। दूसरी ओर नोटबंदी ने लोगों को ऐसा झटका दिया, जिसके सदमें से आम आदमी अभी तक उभर नहीं पाया है।

जीएसटी कार्यक्रम को लागू करने के लिए रात्रि में संसद से जो घोषणा की गई, वह भी अनोखा अवश्य था, पर असली कार्यक्रम तो कांग्रेस का ही बनाया था। उसे भी कंाग्रेस कार्यकाल में संसद से पास कराने में अड़चनों के अतिरिक्त बीजेपी ने कुछ नहीं किया था।  जब इस जीएसटी को लागू किया तो वह भी आधा अधूरा किया, जिसने सारे व्यापारियों के साथ-साथ आम जनता की नींद हराम करके रखी हुई है।

एक मुख्य बात जो प्रधानमंत्री मोदीजी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह हर गली और नुक्कड़ से सुनाते रहे कांगे्रस मुक्त भारत बनाने की, वह वे कितना बना पाये, यह तो समय ही बतायेगा।

सबसे मुख्य बात कि मोदी सरकार के समये की कोई  भविष्य में समीक्षा करेगा तो लोकतंत्र के स्तंभ न्यायपालिका पर हुए प्रहार को भी याद किया जाएगा। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर सबसे बड़ा आरोप लगता है कि दनके कार्यकाल में जजों की नियुक्ति में हस्तक्षेप हुआ था। लेकिन उससे भी ज़्यादा हस्तक्षेप मोदी सरकार के कार्यकाल में हुआ। जिसके कारण सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों को अपनी बात कहने के लिए प्रेस का सहारा लेना पड़ा।

ठीक ऐसी ही बात रिर्जव बैंक की स्वतंत्र कार्यप्रणाली पर हुए प्रहार की है। इसके लिए गर्वनर को सार्वजनिक रूप से यह कहते पाया गया कि मेरे कार्यों में सरकार दखल कर रही है।

एक सबसे बड़ी बात देश जो हर व्यक्ति के मन में उठती है कि देश ने 70 सालों में कुछ नहीं किया, यानी इन पांच वर्षों में हर मंच से देश और विदेश में वे यह कहते आये हैं कि देश ने आजादी के बाद कोई प्रगति नहीं की है। यह भी अपने आप में हास्यास्पद बात लगती है। क्या कोई इस बात पर विश्वास करेगा कि देश में इन 70 वर्षों में कोई विकास ही नहीं हुआ है। जबकि आज भारत हर क्षेत्र में बड़े बड़े देशों से स्र्पधा कर रहा है और विकास की ओर निरंतर अग्रसर है।

बात उत्तराखंड के निकाय चुनाव के परिणामों से उठी थी और वहां जा कर आ टिकी, जहां पर आने वाले वर्ष 2019 में आम चुनाव की आहट सुनाई दे रही है। उसमें भी लोगों के मन में प्रश्न हैं कि देश कैसे और तेजी से प्रगति करेगा? मोदी प्रणाली से या फिर किसी और विकल्प की तलाश में देश का नागरिक अपने अमूल्य मत को डालेगा। आइए उस समय की प्रतीक्षा कीजिए।

जिस तरह से कांगे्रस और बीजेपी के घोषित चुने सदस्य निर्दलीय सदस्यों के अंकगणित  से आगे नहीं बढ़ पाये, कहीं ऐसी ही स्थिति आने वाले आम चुनाव न छोड़ दें। ऐसा भी हो सकता है कि पार्टी से हट कर मजबूत स्वच्छ व्यक्ति की छवि की तलाश में मतदाता अपने मत का उपयोग करें।

नरेंद्र मोदी पर एक आरोप जो लग रहा है, वह उन्हीं की पार्टी के सदस्य लगा रहे हैं,  जिनमें प्रमुख हैं- वाजपेयी सरकार में रहे यशवंत सिन्हां , अरुण शौरी और शत्रुघ्न सिन्हा, ये मानते हैं कि भारत सरकार जो कार्य कर रही है, वह सही मायने में विकास नहीं है, बल्कि विकास विरोधी है।