सर्वेक्षणों की मानें तो केरल और पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियां बुरी तरह हार रही हैं. हो सकता है आप इससे सहमत न हों, लेकिन पिछले एक दशक में वाममोर्चे की असफलता क्या रही?
सर्वेक्षणों ने पहले भी हमेशा से वामदलों को कम करके आंका है. इस बार भी ऐसा ही है. केरल में वाममोर्चा 2009 लोकसभा चुनावों की तुलना में बहुत बेहतर प्रदर्शन करेगा. बंगाल में यदि लोगों को स्वतंत्र होकर वोट देने का मौका मिला और विपक्षियों को दबाने के तृणमूल के प्रयास नाकाम रहे तो वहां भी हम बेहतर प्रदर्शन करेंगे. पिछले तीन दशकों में वामदलों की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही है कि वे पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा से बाहर अपना दायरा फैलाने में नाकाम रहे.
इस चुनाव में भी गठबंधन की ही सरकार बनने की प्रबल संभावना है. गठबंधन की राजनीति में वामदलों को आप किस तरफ पाते हैं?
यह तो निश्चित है कि जो भी सरकार आएगी वह गठबंधन की ही होगी. वाममोर्चा हमेशा गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई विकल्प के साथ खड़ा रहा है. लेकिन इसका वैकल्पिक नीतियों पर आधारित होना जरूरी है. लेकिन ऐसे विकल्प मौजूद ही नहीं हैं, इसलिए वाममोर्चा कुछ गैर-कांग्रेसी धर्मनिरपेक्ष ताकतों का सहयोग कर रहा है. चुनाव के बाद हमारी कोशिश होगी कि ऐसी सभी पार्टियों को एक साथ लाया जाए.
क्या यह संभव है कि सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने के लिए वामदल कांग्रेस का समर्थन करंे?
यह साफ है कि कांग्रेस इस चुनाव में बुरी तरह हार रही है. ऐसी स्थिति में यह कांग्रेस को तय करना है कि वह भाजपा और सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने के लिए किसी वैकल्पिक गठबंधन को समर्थन दे.
क्या वामपंथी पार्टियों में एका संभव है? ऐसा लगता है कि इस एकीकरण की राह में छोटी-मोटी असहमतियां बाधा बन जाती हैं?
इस चुनाव में वामदल पहले से ज्यादा एकजुट होकर काम कर रहे हैं. कांग्रेस और भाजपा से लड़ाई हमारी साझी नीति का हिस्सा है. हमारे बीच ऐसा कोई बड़ा मतभेद नहीं है. वामदलों के बीच व्यापक एकता असम्भव बात नहीं है. ट्रेड यूनियनों से लेकर तमाम श्रमिक संगठनों के बीच एकता तो है ही.
इस बात के लिए वामदलों की आलोचना हो रही है कि उसकी असफलता ने आम आदमी आदमी पार्टी के लिए जगह खाली की है. वामदलों के मुकाबले आप ने जनता से सफलता पूर्वक संबंध स्थापित किया है. क्या आपको भी यह लगता है?
यह सिर्फ दिल्ली केंद्रित नजरिया है. यह सच है कि आप ने दिल्ली में व्यापक जनसमर्थन जुटाया है. लेकिन वामदल यहां पर हमेशा से ही कमजोर रहे हैं. पूरे देश की यदि बात करें तो इस चुनाव में आप का बहुत ही सीमित असर होगा. जहां वामदल मजबूत हंै वहां आप का कोई असर नहीं होगा. अस्तित्व में आने के एक साल बाद भी आप अपनी विचारधारा और नीतियों को स्पष्ट करने से बच रही है. फिलहाल तो वह सबको एक साथ खुश करने की कोशिश में लगी हुई है.
अपने हालिया घोषणापत्र में माकपा ने समलैंगिकों के आंदोलन का समर्थन किया है. लेकिन वाममोर्चा इस तरह के संघर्षों या महिला अधिकार आंदोलनों में अगुवा के रूप में नहीं दिखा है? क्या आपकी कामकाजी वर्ग की परिभाषा सीमित है?
हां, हमने स्वैछिक समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से हटाने की मांग की है. महिला आंदोलनों और उनके संघर्षों को समर्थन देने में वाममोर्चा हमेशा आगे रहा है. पता नहीं यह आप कैसे कह रहे हैं. हमने हमेशा से नारीवादी आंदोलनों का साथ दिया है. असंगठित और घरेलू महिला श्रमिकों को बड़ी संख्या में संगठित क्षेत्र की ओर लाया जा रहा है. वाममोर्चे की कामकाजी वर्ग की परिभाषा कहीं ज्यादा विस्तृत है.
आज के मीडिया को आप कैसे देखते हैं?
मीडिया ही इस देश में पूंजीवादी विकास को दर्शाता है. एक समय था जब बड़े-बड़े मीडिया समूह हमारे पास आते थे और कहते थे कि ‘आप एफडीआई के खिलाफ लड़िए.’ जैसे ही एनडीए सरकार ने 26 प्रतिशत निवेश की अनुमति दी यहां दस्तखत करने वालों की लाइन लग गई. आज बड़ी पूंजी, मीडिया और बड़े विदेशी मीडिया घरानों ने आपस में हाथ मिला लिए हैं. हमने बहुत सी मांग रखी है कि मीडिया में क्रॉस-ओनरशिप (एक ही व्यक्ति या कंपनी का एक ही तरह के कई उपक्रमों में मालिकाना हक) नहीं होना चाहिए. इसके चलते हम पर कई मीडिया घराने हमलावर हैं. हमें लगता है कि मीडिया पर बाहरी नियंत्रण का समय आ गया है. बाहरी नियंत्रण का मतलब सरकारी नियंत्रण से नहीं है, लेकिन मुझे लगता है कि मीडिया का आत्मनियंत्रण असफल रहा है. ब्रिटेन में लेवेसन जांच के बाद इस मुद्दे पर बड़ी बहस चल रही है. सीपीएम या मार्क्सवादी नजरिये को छोड़िए, यह मुद्दा तो उदारवादियों को उठाना चाहिए.
नरेंद्र मोदी के उदय और हिंदुत्व के खिलाफ लड़ाई पर आपकी क्या राय है?
इस चुनाव में हिंदुत्ववादी संगठन जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी की उम्मीदवारी और भाजपा के माध्यम से हिंदुत्व का एजेंडा फिर से खड़ा कर दिया जाए. मीडिया यह बात समझने में पूरी तरह चूक गया है. मोदी के बनारस से चुनाव लड़ने का और दूसरा कोई अर्थ ही नहीं है. राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान विश्व हिन्दू परिषद वाले नारा लगाते थे, ‘अब की बारी अयोध्या, उसके बाद काशी और मथुरा.’ अब उन्होंने काशी चुना है. उनकी रैलियों की शुरुआत ‘हर-हर मोदी’ के नारों से हुई. यह उस शहर में हो रहा है जहां राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान भयंकर सांप्रदायिक दंगे हुए थे. बनारस में इस ध्रुवीकरण के बाद भाजपा ने 2004 को छोड़ कर वहां का हर चुनाव जीता. गुजरात के विकास का मॉडल सिर्फ छलावा है. उनका असली एजेंडा तो हिंदुत्व है.
तो क्या वामपंथी पार्टियां अपने में परिवर्तन लाकर फिर से उठ खड़ी हो पाएंगी?
भारत उन कुछेक देशों में शामिल है जहां पर वामदलों का व्यापक जनाधार है. इसके अलावा वाम विचारधारा का यहां लोगों के ऊपर काफी असर भी है. मुझे उम्मीद है कि यह असर और भी बढ़ेगा. लेकिन मुझे इस परिवर्तन शब्द को लेकर आशंका है. इटली में वामदलों ने खुद में इतनी बार परिवर्तन कर दिए हैं कि आज उनमें और गैर-वामदलों में कोई फर्क ही नहीं दिखता.