भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता, ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इंदिरा गाँधी के द्वारा सन् 1975 में लगाये गये आपात-काल का गाहे-ब-गाहे ज़िक्र करते रहते हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का यह क़दम देश और केंद्र की इंदिरा सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ बोलने वालों के हित में नहीं था; लेकिन वो एक खुला और घोषित आपात-काल था।
आज सवाल यह है कि अब जब आपात-काल नहीं है, फिर भी हालात इंदिरा गाँधी के घोषित आपात-काल से मिलते-जुलते क्यों हैं? जहाँ विरोधी इसे अघोषित आपात-काल कह रहे हैं। वहीं सरकार इसे अमृत-काल कह रही है और जश्न मना रही है। अमृत-काल भी विरोधियों को जेल में ठूँसकर, मनमानी करके और लोगों की तकलीफ़ों को अनसुना करके मनाया जा रहा है।
हालाँकि राजनीति ने अपनी हबस पूरी करने के चक्कर में आपात-काल के मायने ही बदल दिये हैं। क्योंकि आपात शब्द तो आपदा से बना है, जिसे आपदा-काल कहें, तो भी वही मतलब है। इस शब्द का दूसरा मतलब किसी निरंकुश या सत्ता चलाने में नाकाम सरकार को बर्ख़ास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू करने से है। लेकिन जब कोई निरंकुशतापूर्वक सत्ता हथियाने की कोशिश करता है, तो वह आपात-काल की आड़ लेकर विरोधियों को जेल भेजने लगता है। इंदिरा गाँधी ने यही किया था। राजनीति के ज़्यादातर जानकारों का मानना है कि अब भी वही हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सत्ता की उसी चकाचौंध में खो गये हैं, जिसमें इंदिरा खो गयी थीं। इसी के चलते उन्हें विरोधियों पर नकेल कसने की ज़रूरत पड़ रही है।
आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह की गिरफ़्तारी किसी को समझ नहीं आ रही है कि आख़िर किस आधार पर हुई है? किसी भी आदमी के नाम लेने भर से विपक्षी पार्टियों के नेताओं को जेल में जिस तरह से डाला जा रहा है और 2024 से पहले कितनों को जेल में डाला जाएगा, उस पर कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। जो बोलेगा, जेल के दरवाज़े उसके लिए खुल सकते हैं। इससे पहले मनीष सिसोदिया को भी आरोपों के आधार पर ही गिरफ़्तार किया गया। आरोप लगा कि उनकी एक नंबर की सम्पत्ति भी अटैच कर ली गयी। मनीष सिसोदिया को जेल में लगभग साढ़े सात महीने से ज़्यादा हो चुके हैं। अब पुख़्ता सुबूत न होने के चलते सुप्रीम कोर्ट ने ईडी को कड़ी फटकार लगायी है।
बहरहाल, सवाल यह है कि अगर कोई भी किसी का नाम ले ले, तो क्या उसे बिना ठोस सुबूतों के भी गिरफ़्तार किया जा सकता है? अगर गिरफ़्तारी और सज़ा का यही मापदंड है, तो फिर उन नेताओं को गिरफ़्तार क्यों नहीं किया जा रहा है, जिन पर गम्भीर आरोप लगे हुए हैं और जिनके ख़िलाफ़ कई-कई एफआईआर तक दर्ज हैं? ऐसे दाग़ी नेता, मंत्री, सांसद और विधायक ही क्यों? अगर इस तरह गिरफ़्तारी करने पर सरकारी एजेंसियाँ आ जाएँ, तब तो जिस-जिस के ख़िलाफ़ आरोप लगते हैं, उन सबको गिरफ़्तार कर ही लिया जाना चाहिए। फिर राजनीति में बचेगा कौन? आँकड़ों के मुताबिक, संसद में क़रीब 45 फ़ीसदी से ज़्यादा सांसद दाग़ी हैं और 95 फ़ीसदी सांसदों की सम्पत्ति आय से अधिक है। ईडी ने उन्हें किस आधार पर छोड़ा हुआ है? अब तक जो भी गिरफ़्तारियाँ हुईं, वहाँ तक ईडी पर उतने सवाल नहीं उठे, जितने सवाल आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह की गिरफ़्तारी के बाद उठ रहे हैं।
इंडिया गठबंधन के नेताओं का आरोप है कि विपक्षी पार्टियों के बड़े नेताओं को लोकसभा चुनाव से पहले जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है, ताकि चुनाव में इसका फ़ायदा लिया जा सके। लेकिन यहाँ मैं याद दिलाना चाहूँगा कि जब इंदिरा गाँधी ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए उन सभी विपक्षी नेताओं को जेल में डाला, जो ताक़तवर थे और सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ मुखर थे। ऐसे लगभग 80 फ़ीसदी से ज़्यादा नेताओं ने जेल से ही चुनाव लड़ा और उनमें से ज़्यादातर जीतकर बाहर आये थे।
ऐसे में सवाल उठता है कि अगर अब 2024 के लोकसभा चुनाव में ऐसा ही हुआ, तो केंद्र की मोदी सरकार क्या करेगी? ख़ासतौर पर ईडी और सीबीआई के वे अधिकारी क्या करेंगे, जो बदले की भावना या फिर सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं? राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा आम है कि इंडिया गठबंधन में शामिल पार्टियों में से कम-से-कम आठ पार्टियों के बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करने के लिए ईडी उनकी फाइल्स तैयार कर चुकी है। मसलन, कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गाँधी, उनके बेटे राहुल गाँधी, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, आम आदमी पार्टी के सांसद राघव चड्ढा, शिवसेना नेता संजय राउत, झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, बिहार के उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव, शरद पवार के क़रीबी और एनसीपी (शरद) के प्रदेश अध्यक्ष जयंत पाटील और कई दूसरे बड़े नेता ईडी के रडार पर हैं।
यह बात कितनी सही है? इस बारे में कुछ कहना तो उचित नहीं; लेकिन इस बीच ईडी की कार्रवाई पर जो सवाल उठे हैं, वो बड़े गम्भीर और ईडी के लिए शर्मनाक हैं। ईडी के पूर्व प्रमुख संजय मिश्रा, जिन्हें रिटायरमेंट के बावजूद कई बार एक्सटेंशन देकर ईडी के पद पर बरक़रार रखा गया, उन्होंने जिस तरह काम किया, सरकार उससे काफ़ी ख़ुश रही और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद न चाहते हुए भी सरकार को उन्हें रिटायरमेंट देना पड़ा। अब राहुल नवीन प्रमुख बने हैं और ऐसा कहा जा रहा है कि शायद वह भी अपनी वफ़ादारी सरकार को संजय मिश्रा से भी आगे बढ़कर दिखाना चाहते हैं।
इसी साल अभिषेक मनु सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट में 16 पार्टियों के हवाले से एक याचिका दाख़िल की थी, जिसमें ईडी की भूमिका को लेकर सवाल उठाये गये हैं। याचिका में कहा गया है कि ईडी और सीबीआई के 95 फ़ीसदी मुक़दमे विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ हैं, जो ईडी ने पीएमएलए के तहत विपक्षी नेताओं को गिरफ़्तार करने के लिए बनाये हैं, ताकि उन्हें आसानी से जमानत न मिल पाए। दरअसल सन् 2002 में मनी लॉन्ड्रिंग को रोकने के लिए पीएमएलए यानी धन शोधन निवारण अधिनियम पारित किया गया था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से, ख़ासतौर पर हाल के तीन-चार वर्षों में ईडी ने जितने मामलों में विपक्षी नेताओं को गिरफ़्तार किया है या उन्हें समन जारी करके पूछताछ के लिए बुलाया है; उन मामलों में केवल दो फ़ीसदी से कम मामलों में ही दोषसिद्धि होने का दावा किया जा रहा है। हाल ही में सामने आयी एक रिपोर्ट के मुताबिक, ईडी ने मौज़ूदा सांसदों, विधायकों, एमएलसी और पूर्व सांसदों, पूर्व विधायकों, पूर्व एमएलसी के ख़िलाफ़ कुल 176 प्रवर्तन मामलों में ईसीआईआर दर्ज की है, जो 2002 के बाद क़ानून के आने के बाद से दर्ज की गयी कुल 5,906 शिकायतों का 2.98 प्रतिशत है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पीएमएलए के तहत ईडी ने कुल 1,142 शिकायतें दर्ज की हैं, जिनके आधार पर कुल 513 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है, जिनमें कई मज़बूत नेता भी हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि क़रीब 96 फ़ीसदी आरोपियों को ईडी ने सज़ा दिलायी है और इन आरोपियों की क़रीब 36.23 करोड़ रुपये की सम्पत्ति ज़ब्त की गयी है, जबकि कोर्ट में जो दोषी तय हुए हैं, उन पर क़रीब 4.62 करोड़ रुपयों का ज़ुर्माना लगा है। ईडी पर सवाल उठ रहे हैं कि वो जिन लोगों को आरोपों के आधार पर गिरफ़्तार कर लेती है, उन लोगों के ख़िलाफ़ पुख़्ता सुबूत भी समय से नहीं जुटा पाती है।
बहरहाल अब ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दुस्तान की राजनीति अब बदले की भावना से काम करने की दिशा में जा रही है, जो कि देश के भविष्य के लिए ही नहीं, बल्कि आम लोगों के भविष्य के लिए भी काफ़ी $खतरनाक साबित होने के संकेत हैं। ज़ाहिर है कि आज की सरकार विपक्षी पार्टियों के नेताओं के ख़िलाफ़ अपनी ताक़त का इस्तेमाल करेगी, तो कल जब दूसरी किसी पार्टी की सरकार बनेगी, वो भी विपक्षी पार्टियों, ख़ासतौर पर दुश्मनी की तरह शिकंजा कसने वाली पार्टी के नेताओं के ख़िलाफ़ अपनी ताक़तों का इस्तेमाल करेगी। इस प्रकार से देश में सभी पार्टियों का प्रमुख काम यही रह जाएगा कि किस तरह से वो विपक्षी पार्टियों के नेताओं से निपटे और इसके चक्कर में देश और देशवासियों की प्राथमिकताएँ कहीं पीछे छूटती चली जाएँगी, जो देश के लिए बहुत घातक साबित होंगी। इसके साथ-साथ सरकार बदलते ही जाँच एजेंसियों के उन अधिकारियों पर भी गाज गिरेगी, जो बदले की भावना या सरकार के इशारे काम कर रहे हैं।
इसलिए सरकार के अलावा जाँच एजेंसियों के अधिकारियों को भी चाहिए कि जो नेता भ्रष्ट हैं, उन्हीं के ख़िलाफ़ कार्रवाई करें, चाहे वे विपक्षी पार्टियों के हों या फिर चारे सत्ताधारी पार्टी के ही क्यों न हों। इससे देश के लोगों के मन में भी जाँच एजेंसियों के प्रति भरोसा पैदा होगा और उनकी कार्रवाइयों पर सवाल भी नहीं उठेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)