क्या यह सिर्फ नाच-गाने या कुछ अदाओं का कौशल था जिसने राजेश खन्ना को इतना बड़ा बना दिया?
पिछले दिनों सबको आनंद याद आता रहा- वह मस्तमौला किरदार जो मौत के मुहाने पर खड़ा जिंदगी का नाटक देख रहा था और बता रहा था कि हम सब रंगमंच की कठपुतलियां हैं. राजेश खन्ना के निधन के बाद टीवी चैनलों पर करीब 40 साल पुरानी फिल्म का यह दृश्य बार-बार दुहराया गया. लेकिन हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म में जो मौत एक कविता थी वह टीवी चैनलों तक आते-आते तमाशा बन गई. राजेश खन्ना को इतनी फड़कती हुई और भड़कीली श्रद्धांजलियां मिलीं कि मौत भी शरमा जाए. मौत के बाद जो निस्तब्धता, जो कातरता, जो चुप्पी पैदा होती है, उसकी खबर में जो संयम और मितकथन होना चाहिए वह कहीं नहीं था. जैसे शोक नहीं, शोक का प्रलाप चल रहा था जिसमें बीच-बीच में पिरोए राजेश खन्ना के पुराने गीत लोगों को अपने नायक की याद दिला जाते थे.
कह सकते हैं, जिस मेलोड्रामा ने राजेश खन्ना को बनाया था उसके कुछ सतही और फूहड़ संस्करण के साथ उनकी विदाई हुई. ‘आनंद’ के आखिरी दृश्य में भी भरपूर मेलोड्रामा था. धीरे-धीरे सरकती हुई मौत इतनी खूबसूरत कविता नहीं होती जितनी आनंद में बना दी गई थी. लेकिन जीवन और मृत्यु के बीच की पहेली में सात रंग के सपने खोजने वाले हृषिकेश मुखर्जी जानते थे कि भारतीय दर्शक को यही मेलोड्रामा भाएगा- आनंद से पहले ‘अंदाज’ में ‘हंसते-गाते जहां से गुजर’ गाने वाले राजेश खन्ना को वाकई उसी तरह जाता दिखाकर उन्होंने लोगों को बहुत रुलाया.
कायदे से देखें तो राजेश खन्ना हिंदी फिल्मों के आखिरी मासूम नायक थे. उसके बाद का हीरो बदल गया
अक्सर कहा जाता है कि राजेश खन्ना हिंदी फिल्मों के पहले सुपर स्टार थे. यह खिताब शायद उन्हें उन दिनों की मशहूर स्तंभकार देवयानी चौबल ने दिया था. लेकिन ऐसे खिताबों से परे अगर राजेश खन्ना की शख्सियत को देखें तो दरअसल उनकी कामयाबी बहुत सारे तत्वों से मिलकर बनी थी. उनमें हिंदी फिल्मों की परंपरा और हिंदी समाज की सामूहिकता दोनों का समावेश था. पचास और साठ के दशकों में राज कपूर, दिलीप कुमार और देवानंद की जो त्रिमूर्ति हिंदी सिनेमा की दिशा तय करती रही, उसने नए बनते भारत का यथार्थ और स्वप्न रचने की कोशिश की. वे आजादी के बाद के उजले दिन थे जब हिंदी फिल्में भी नया दौर बना रही थीं और जिस देश में गंगा बहती है उसे समझने की कोशिश कर रही थीं. इन तीनों में एक राजू गाइड था- यानी देवानंद- गंवई भारत के नए बनते शहरों का वह नायक जिस पर पहली बार लड़कियां उस तरह निसार दिखीं जिस तरह बाद में राजेश खन्ना पर हुईं.
लेकिन साठ के दशक के मोहभंग के साथ कहानी भी बदलती है, नायक भी. शम्मी कपूर और राजेंद्र कुमार इस दौर के नए रोमानी नायक हैं. इसी के फौरन बाद इन दोनों की साझा छाप लिए आते हैं राजेश खन्ना- उनमें देवानंद जैसी अदाएं भी हैं, शम्मी कपूर जैसी उछल-कूद भी और राजेंद्र कुमार जैसा शांत रोमांस भी. तीन बेहद कामयाब कलाकारों का यह मिक्स राजेश खन्ना को अचानक जैसे उछाल देता है. सिर्फ 2-3 वर्षों के अंतराल में- 1969 से 1972 के बीच- वे आराधना, बंधन, दो रास्ते, खामोशी, सच्चा-झूठा, सफर, कटी पतंग, आनंद, अंदाज, हाथी मेरे साथी, अमर प्रेम, बावर्ची, दुश्मन, नमक हराम जैसी ढेर सारी कामयाब और अच्छी फिल्मों का अंबार लगा देते हैं.
लेकिन क्या यह सिर्फ रोमांस था, सिर्फ नाच-गाने या कुछ अदाओं का कौशल जिसने राजेश खन्ना को इतना बड़ा बना दिया? ध्यान से देखें तो यह वही दौर है जब भारत अपने-आप को पुनर्व्याख्यायित कर रहा है. राजनीति के मोहभंग नई समाजवादी संभावनाओं का रास्ता टटोल रहे हैं और गांवों से शहर पहुंची आबादी नए बसते मोहल्लों में अपनी नातेदारी खोज रही है. कहीं इंसाफ का सवाल है, कहीं इंसानियत का, कहीं रिश्तों की उलझनें हैं और कहीं जिंदगी और मौत की कशमकश. इत्तिफाक से राजेश खन्ना की फिल्मों में यह समाज बहुत मुखर है. इस समाज में खड़े राजेश खन्ना बहुत बड़े नहीं, बहुत अपने लगते हैं. वे महानायक नहीं हैं जो हर मुश्किल को अपनी चुटकियों, अपने संवादों से हल कर दें. वे एक मासूम-से नायक हैं जिसका इंसाफ और इंसानियत पर भरोसा कायम है. यही चीज है जो राजेंश खन्ना को इस दौर का- या किसी के शब्दों में हिंदी सिनेमा का पहला- सुपर स्टार बनाती है.
हालांकि यह भी एक मेलोड्रामा था जिसे बिखर जाना था. यह त्रासदी नायक के साथ भी घटित हुई, सिनेमा के साथ भी. सिर्फ चंद वर्षों में हासिल शोहरत ने राजेश खन्ना को शिखर पर ही नहीं पहुंचाया, शायद कुछ बदल भी डाला. आगे जिंदगी ने उनसे कई सख्त इम्तिहान लिए. बाद के दौर में उनकी फिल्में नाकाम होती दिखीं क्योंकि शायद वह मासूमियत जा चुकी थी- जमाने से भी और हमारे नायक के चेहरे से भी. अब उसकी पुरानी अदाएं उसकी ही थकी हुई नकल लगती थीं. बाद के दौर में राजेश खन्ना ने वापसी की कई कोशिशें कीं, लेकिन अंततः नाकाम रहे.
कायदे से देखें तो राजेश खन्ना हिंदी फिल्मों के आखिरी मासूम नायक थे. उसके बाद का हीरो बदल गया. उसकी आंखों में गुस्सा चला आया, उस जमाने से नफरत चली आई जिसने उसके साथ नाइंसाफी की. वह अपने दम पर अपनी दुनिया बदलता रहा और सबके दिल जीतता रहा. इस महानायक के आने के बाद राजेश खन्ना जैसे हमेशा-हमेशा के लिए पीछे छूट गए. लेकिन उनकी पुरानी फिल्में बची रहीं. 40 साल बाद, अचानक उनके देहांत ने सबको अपने छूटे हुए नायक की याद दिलाई. हालांकि अभिनेता के तौर पर राजेश खन्ना ने जो जिया, जो किया, जो गाया, वह दूसरों की लिखी कहानी थी, दूसरों का दिया निर्देशन था, दूसरों के रचे गीत थे, लेकिन इन सबको इतनी विश्वसनीयता दिलाने वाला, उसे जमाने की कहानी में बदल डालने वाला चेहरा तो हमारे नायक का ही था. वे उस भारत के प्रतिनिधि और प्रतीक नायक थे जिसका परिवार बचा हुआ था या जिसमें परिवार का एहसास बचा हुआ था.