‘‘अविरल धारा के नाम पर धर्माचार्य गंगा को शौचालय बनाये रखना चाहते हैं’

आप इतने वर्षों से गंगा पर बात और काम, दोनों कर रहे हैं. गंगा के सवाल पर रह-रहकर हो-हंगामा होता है लेकिन आम जनता कभी  आक्रोशित-आंदोलित होती नहीं दिखी! 

जनता को पूरी हकीकत का पता ही नहीं है कि गंगाजी के साथ क्या हो रहा है. जाकर कुंभ में देखिए, लाखों-करोड़ों की भींड़ होती है. पानी पीने लायक या नहाने लायक नहीं होता. फिर भी सरकार खुलकर नहीं कह पाती कि आप स्नान न करें, आचमन भी न करें. आखिर किसलिए प्रयाग पहुंचती है जनता? कुंभ के नाम पर प्रशासनिक दृष्टि से अलग जिला बनता है, स्पेशल टैक्स लिया जाता है, पोलियो- हैजा का टिका लगाते रहते हैं सरकार के लोग. लेकिन असलियत छुपाये रहते हैं. सच यह है कि संगम में नहाने लायक स्थिति नहीं है. और मीडिया भी तो दूसरी बातों को रटते रहती है. साधू संत कहते हैं कि माघ मेले या कुंभ के समय टिहरी नहीं खुलने पर जल समाधि ले लेंगे, मीडिया उसे प्रचारित करती है. कोई साधू-संतों से यह क्यों नहीं पूछता कि इलाहाबाद, नैनी, झूंसी का पूरा सीवर क्यों सालों भर गिरता रहता है प्रयाग नगरी में. संगम से बमरौली एयरपोर्ट तक तो नाले ही नाले हैं. गंगा में 40 प्वाइंट, यमुना में 20 प्वाइंट, झूंसी में 10 नाले हैं. 

 आप गंगा के मसले पर सरकार से ज्यादा साधू-संतों से खफा लगते हैं…!

  मैं किसी से खफा नहीं लेकिन असल मसले पर भी तो सबको बात करनी चाहिए. नेशनल रिमोट सेंसिंग एजेंसी ने काफी पहले दिखा दिया है कि नालों से गंगा कैसे पटी हुई है. अब बताइये इलाहाबाद में तो गंगा के लिए अलग से कोर्ट भी हो गया. हर साल मुकदमा होता है लेकिन 12 साल में हुआ क्या? गंगा के लिए एक भी ठोस आॅर्डर तो होता! कुंभ या माघ मेले के वक्त वहीं पास में रेत पर ही मिट्टी का तालाब बनाकर मल को जमा किया जाता है. यह सामान्य समझ क्या किसी को नहीं कि मल भले तालाब में जमा हो जाए, पानी तो अंदर-अंदर फिर गंगा में ही जाना है. और कुछ लोग गंगाजी की दुर्दशा के लिए उन गंगापे्रमियों को दोषी ठहराते रहते हैं, जो नियमित रूप से गंगा को उपयोग में लाते हैं. कहते हैं कि धोबी के कपड़ा धोने से, भक्तों द्वारा प्लास्टिक फेंकने से, लाश जलाने से, फूल-माला आदि फेंकने से गंदगी फैल रही है. यह सरासर झूठ है. गंगा का जो कूल प्रदूषण है, उसमें गंगा प्रेमियों द्वारा पांच प्रतिशत से अधिक प्रदूषण नहीं फैलाया गया. 95 प्रतिशत प्रदूषण सीवर और औद्योगिक कचरों से है. गंगा प्रेमियों को भी दोष दीजिए लेकिन गंगा के किनारे जो 114 छोटे-बड़े शहर बसे हैं, कई औद्योगिक इकाइयां हैं,वहां के कचरों को सीधे गंगा में गिराया जाता है, यह ज्यादा महत्वपूर्ण और खतरनाक है, इसका रोना भी रोइये. लेकिन साधु-संन्यासी इस पर नहीं बोलेंगे, क्योंकि वे खुद अपना सीवर सीधे गंगाजी में गिराते हैं.

 आप नालों को गंगा की बर्बादी का मुख्य स्रोत मानते हैं. गंगा एक्शन प्लान तो सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की अवधारणा पर ही चलाया गया था! 

  गंगा एक्शन प्लान का हश्र तो सबने देख ही लिया है. इस देश के प्रधानमंत्री ने खुद स्वीकार किया है कि गंगा में 2900 मिलियन लीटर प्रतिदिन सीवेज गिरता है, उसमें 1200 मिलियन लीटर के ही ट्रीटमेंट की व्यवस्था है. वह ट्रीटमेंट भी किस तरह होता है, यह किसी से छुपा नहीं. बारिश और बाढ़ के दिनों में पूरा का पूरा नाला ही खोल दिया जाता है. गंगा एक्शन प्लान के बाद गंगाजल में बीओडी 20-23-25 तक रह रहा है, जबकि तीन से ज्यादा नहीं होना चाहिए. 

 कुल मिलाकर यह कि आपके अनुसार डैम, बराज, पावर हाउस या गंगा में टिहरी से फ्लो बढ़ाया जाना खास मसला नहीं बल्कि सीवर आदि हैं!देश को बिजली की जरूरत है, उस पर विचार किया जाना चाहिए लेकिन मैं यह तर्क कतई स्वीकार नहीं करता कि टिहरी से फ्लो बढ़ा दो, गंदगी को बहा ले जाएगी गंगा. धर्माचार्य आंदोलन तो कर रहे हैं लेकिन सीवर आदि पर नहीं बोलते, क्यांेकि बनारस, इलाहाबाद आदि जगहों पर वे खुद अपना सीवर गंगा में बहा रहे हैं. धर्माचार्य बस किसी तरह एक माह टिहरी से पानी छोड़ने की जिद करते हैं कि कुंभ और माघ मेला पार लग जाये. यह तो गंगा को टाॅयलेट की तरह मान लेना है कि गंगा शौचालय है, मल-मूत्र-गंदगी डालते रहिए और उपर टिहरी से पानी मारकर फ्लश करते रहिए. मैं सहमत नहीं हूं इससे. 

आप तो बड़े वैज्ञानिक भी हैं, कुछ विकल्प भी तो होगा आपके जेहन में? सीवर ट्रीटमेंट प्लांट तो फेल हो चुका है भारत में? 

 मैं तो गंगा किनारे इंटरसेप्टर बनाने की बात 1997 से ही कर रहा हूं. मैं कह रहा हूं कि घाटों के किनारे एक टनल बनाया जाना चाहिए, जिसमें सारे नारे सीधे गिरे और फिर उस टनल से कचरे को दूर ले जाया जाना चाहिए. बनारस में इसके लिए सात किलोमीटर दूर सोता नामक एक जगह पर जमीन भी हमने देखकर बताया है. वह लो लैंड है और रेगिस्तान जैसा है. टनल से सीवर के पानी को पहुंचाकर फिर एआईडब्ल्यूपीएच नाम से एक पद्धति है, उससे इसका ट्रीटमेंट होना चाहिए. यह पद्धति कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी द्वारा विकसित की हुई है और पिछले 40 साल से इसे आजमाया जा रहा है. बिजली की खपत इसमें न के बराबर है. 2008 में इसे स्वीकृत भी किया जा चुका है लेकिन अब डीपीआर में पेंच फंसाया जा रहा है और डीपीआर में भी एक्सप्रेसन ऑफ इंटेरेस्ट मांगा जा रहा है. पता नहीं क्या और कैसे करना चाहते हैं, समझ में नहीं आता.