अनशन की राजनीति से सफर शुरू करने वाली टीम अन्ना चुनावी राजनीति के मोड़ पर आ पहुंची है. यह आंदोलन की तार्किक परिणति है या मजबूरी या योजनाबद्ध रणनीति ? अतुल चौरसिया की रिपोर्ट.
दो अगस्त को दिन में डेढ़ बजे जंतर-मंतर पर अन्ना के मंच से अचानक ही वह घोषणा हुई जिसके लिए देश, मीडिया, अन्ना के समर्थक और विरोधी कोई भी तैयार नहीं था. टीम के वरिष्ठ सदस्य और अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने राजनीतिक विकल्प देने का ऐलान कर दिया. इसने जंतर-मंतर पर मौजूद भीड़ से लेकर राजनीति के गलियारों और समाचार चैनलों के न्यूज रूम तक तमाम जगहों पर चल रही बहसों की दिशा ही मोड़ कर रख दी. ऐसा होना स्वाभाविक भी था. जो लोग कल तक नेताओं का विरोध कर रहे थे वे ही अब खुद नेता बनने की बात कर रहे थे. कुछ लोगों को यह बात इसलिए भी अजीब लग रही थी क्योंकि ठीक पंद्रह घंटे पहले टीवी चैनल टाइम्स नाउ को दिए गए साक्षात्कार में अरविंद केजरीवाल राजनीति में उतरने की किसी भी संभावना को कोरी गपबाजी बता कर खारिज कर चुके थे.
इस घोषणा का असर होना था और हुआ. कल तक जो कांग्रेस बात-बात पर अन्ना को चुनाव लड़ने की चुनौती दे रही थी उसने तुरंत ही मामला लपका. सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी का बयान आया, ‘हमें पता थी उनकी नीयत. यह सब वे राजनीति में आने के लिए ही कर रहे थे.’ भाजपा की प्रतिक्रिया फिर भी संयत रही. पार्टी उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी कहते हैं, ‘हम टीम अन्ना का स्वागत करते हैं. लोकतंत्र में सबको हक है चुनाव लड़ने का.’ लेकिन ऐसा हुआ कैसे? कभी रही टीम अन्ना की एक सदस्य शाजिया इल्मी इसकी वजह पर रोशनी डालते हुए कहती हैं, ‘एक तारीख की रात को हमें 23 वरिष्ठ नागरिकों के हस्ताक्षर वाला एक पत्र मिला. इसमें जेएम लिंग्दोह, वीके सिंह, कुलदीप नैयर जैसे वरिष्ठ लोगों ने अन्ना और उनके सहयोगियों से अपील की थी कि वे अनशन का रास्ता छोड़कर राजनीतिक विकल्प पर विचार करें, क्योंकि इस सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. अपनी जान दांव पर लगाने का कोई औचित्य नहीं है. इसके बाद हमने राजनीतिक विकल्प पर विचार करने का फैसला किया.’
हालांकि यह बात मुश्किल से ही गले उतरती है कि सिर्फ एक पत्र डेढ़ घंटे के भीतर डेढ़ साल के रुख को बदल सकता है. इस अचानक फैसले से जेहन में दो बातें आती हैं. पहली तो यह कि संभव है टीम पहले से ही राजनीतिक विकल्प पर गंभीरता से विचार कर रही हो. दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि सरकार द्वारा कोई भाव न दिए जाने की स्थिति में टीम अपना चेहरा बचाने का रास्ता खोज रही थी और यह पत्र उसके लिए माकूल अवसर लेकर उपस्थित हुआ. पत्र की आड़ में टीम ने राजनीतिक विकल्प पर विचार करने के साथ ही अपना अनशन समाप्त कर दिया. जो बातें टीम अन्ना के सदस्यों के जरिए निकल कर आ रही हैं, वे पहली स्थिति को बल देती हैं. गोपनीयता की शर्त पर टीम के एक अहम सदस्य बताते हैं, ‘लगभग छह महीने पहले से ही टीम में राजनीतिक विकल्प पर विचार शुरू हो गया था. फरवरी में टीम अन्ना के कोर सदस्यों की एक बैठक पालमपुर में प्रशांत भूषण के फार्महाउस पर हुई थी. उस बैठक में जेएम लिंग्दोह भी थे. वहीं पर राजनीतिक विकल्प देने की बात तय हो गई थी.’ अपना हर कदम बहुत नाप-तौल कर बढ़ाने वाली टीम अन्ना यहां भी एक योजना के तहत आगे बढ़ी. उसने जंतर-मंतर पर पहले अनशन का आयोजन किया, फिर पत्र सामने आया और उसके बाद राजनीतिक विकल्प देने की घोषणा के साथ अनशन समाप्त कर दिया गया.
अभी तक अन्ना और उनके सहयोगी सरकार को अपनी पिच पर आकर खेलने के लिए मजबूर कर रहे थे. अब स्थिति उलटी हो गई है
इस लिहाज से यह सारा मामला पहले से ही ‘स्टेज मैनेज्ड’ लगता है और इसे देखते हुए इस टीम के मकसद के प्रति शंकाएं पैदा होने लगती हैं. अन्ना का मुंबई अनशन असफल होने के बाद से ही यह बात साफ होने लगी थी कि जनसमर्थन कम होता जा रहा है. एक वर्ग का मानना है कि ऐसे में टीम की तरफ से एक ईमानदार पहल यह की जा सकती थी कि सार्वजनिक रूप से मान लिया जाता कि हमने जनता के एक मुद्दे पर आंदोलन करने का फैसला किया था, अब जब जनता ही हमारे साथ नहीं है तो हम आंदोलन वापस लेते हैं. लेकिन शुचिता और ईमानदारी की बात कर रहे लोग इतना नैतिक बल नहीं जुटा सके. यानी साफ है कि कहीं-न-कहीं अहं या फिर निहित स्वार्थ आड़े आ रहे थे. उसके नतीजे में अब राजनीतिक विकल्प की बात हो रही है.
खैर, यहां तक आने के बाद भी टीम किसी स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रही है. जैसा कि इल्मी बताती हैं, ‘अभी हमारे पास कोई नियत ढांचा नहीं है. हम यह भी नहीं बता सकते कि हमारा विकल्प कैसा होगा, उसका स्वरूप कैसा होगा. हम अभी सिर्फ बातचीत और बैठकों के दौर से गुजर रहे हैं. कोई पुख्ता ढांचा सामने आने में अभी कुछ वक्त लगेगा.’ लोगों की चिंता यही है. टीम के बीच भी इस फैसले को लेकर एकराय नहीं है. संतोष हेगड़े और अखिल गोगोई ने पहले ही दिन विरोध का सुर ऊंचा कर दिया था. स्वयं अन्ना हजारे घोषणा से पहले तक इसके खिलाफ थे, ऐसा टीम के कई सदस्य स्वीकारते हैं. एक मुद्दे पर आंदोलन हो सकता है, राजनीति नहीं. दरअसल राजनीति बहुत व्यापक दायरा है. अब इस टीम का लेना-देना सिर्फ भ्रष्टाचार से नहीं होगा. उससे कश्मीर पर भी राय मांगी जाएगी, बाबा रामदेव पर भी, नक्सलवाद पर भी और आतंकवाद पर भी. और जब इन मुद्दों की बात होती है तब टीम के सिर आपस में ही टकराने लगते हैं. कश्मीर पर प्रशांत भूषण का रुख टीम अन्ना की चुनावी उम्मीदों की हवा निकाल सकता है तो रामदेव के मुद्दे पर अरविंद का ही टकराव अन्ना के साथ हो जाता है.
जिस मध्यवर्ग पर इसकी उम्मीदें टिकी हैं, वह कई मसलों पर लगभग तालिबानी नजरिया रखता है, मसलन नक्सलियों का इस देश से सफाया कर दिया जाना चाहिए. तो सवाल उठता है कि टीम इससे कैसे निपटेगी. दूसरा मुद्दा यह है कि जिस मध्यवर्ग के भरोसे टीम राजनीति का मैदान मारने की फिराक में है वह वोट देने भी कितना निकलता है. अलग-अलग मौकों पर टीम के सदस्यों के आपसी अहं का टकराव भी देखा जाता रहा है. इन छोटी-छोटी लड़ाइयों के मद्देनजर इतने बड़े लक्ष्य को पाने के लिए क्या टीम एकजुट हो पाएगी? जाने-माने राजनीतिक चिंतक योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘कुछ हद तक नेता आंदोलनों का चरित्र तय करते हैं, लेकिन गहरे अर्थ में आंदोलन नेताओं का चरित्र गढ़ता है.’
लोकतंत्र की सेहत के लिए विरोध, अनशन और आंदोलन जरूरी तत्व हैं. इस लिहाज से अन्ना के लोकपाल जैसे आंदोलनों का अपना महत्व है और रहेगा. एक तबके का मानना है कि यह आंदोलन अपने लक्ष्य को पाने में असफल रहा. लेकिन सब ऐसा नहीं मानते. योगेंद्र यादव कहते हैं कि सामाजिक आंदोलनों की सफलता-असफलता को मापने का नजरिया अलग होता है. उनके शब्दों में, ‘अगर लक्ष्य प्राप्ति को पैमाना मानें तो गांधीजी के सारे आंदोलन असफल रहे, नर्मदा बचाओ आंदोलन भी असफल रहा. जन आंदोलनों की सफलता की कसौटी यह है कि इसने जनमानस की सोच में क्या बदलाव किया है, इसके दीर्घकालिक असर समाज और व्यवस्था पर क्या पड़े हैं. मेधा पाटेकर की असली सफलता यह है कि आज कोई भी बड़ा बांध बनाने से पहले 100 बार विचार होगा. इसी तरह लोकपाल ने जनता के मन में यह विश्वास जगाया है कि वह सरकार को अपनी बात सुनने के लिए मजबूर कर सकती है.’ टीम ने जब चुनाव में उतरने का निर्णय कर ही लिया है तब उन्हें रणनीतिक रूप से भी बहुत चतुर सिद्ध होना पड़ेगा. चुनावी राजनीति करने का सबसे सीधा-साधा तरीका तो यह होगा कि एक पार्टी बनाई जाए और सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए जाएं. लेकिन कइयों का मानना है कि यह तरीका तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है.
दूसरा तरीका है कि टीम अन्ना जेपी के फार्मूले का अनुसरण करे. 1974 में जेपी ने जबलपुर में शरद यादव को कांग्रेस के खिलाफ उतार कर अपने कांग्रेस विरोधी आंदोलन की शुरुआत की थी और अंतत: इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल होना पड़ा था. इसके लिए टीम अन्ना को पांच-दस या पंद्रह हाई-प्रोफाइल सीटों का चुनाव करना पड़ेगा. जरूरी है कि ये सीटें शहरी हों जहां अन्ना को जानने-समझने वालों की बहुतायत है. ये हाई-प्रोफाइल सीटें राहुल गांधी, सोनिया गांधी से लेकर कपिल सिब्बल, पी चिदंबरम, वी नारायणस्वामी, लालू यादव, सुषमा स्वराज तक की हो सकती हैं. एक बार उम्मीदवार तय हो जाने के बाद स्वयं अन्ना पूरी टीम के साथ इन चुनाव क्षेत्रों में पूरी ताकत के साथ भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाते हुए जोरदार हमला करें. केंद्रित लक्ष्य के साथ अगर अन्ना इनमें से कुछ सीटें भी जीतने में कामयाब रहते हैं तो इसके जरिए राजनीतिक समुदाय और जनता को बड़े संकेत प्रेषित किए जा सकते हैं. फिर किसी सरकार और पार्टी के लिए उन्हें नजरअंदाज कर पाना मुश्किल होगा.
टीम के राजनीतिगमन के नतीजे में कुछ राजनीतिक रिश्ते भी पुनर्परिभाषित होंगे. कांग्रेस के साथ इसके रिश्ते हमेशा से तल्ख रहे लेकिन भाजपा ने अप्रत्यक्ष रूप से आंदोलन को एक नैतिक समर्थन दिया था. टीम भी कहीं न कहीं नर्म रुख के जरिए इसकी कीमत चुका रही थी. लेकिन बदली परिस्थितियों में इनका अपरिभाषित रिश्ता प्रतिद्वंद्विता की श्रेणी में आ खड़ा हुआ है. भाजपा इस खुशी में थी कि सरकार के खिलाफ चल रहे सभी आंदोलनों का तयशुदा लाभ 2014 में उसे ही मिलेगा. पर अब सबसे बड़ी चिंता उसी के लिए है. टीम अन्ना अगर राजनीति में उतरती है तो सबसे बड़ा नुकसान वह भाजपा का कर सकती है. जो शहरी मध्यवर्ग जंतर-मंतर पर तिरंगा लहरा रहा था, वह परंपरागत रूप से भाजपा का समर्थक माना जाता है. यह भाजपा के लिए विचार की घड़ी है. लेकिन भाजपा सांसद शाहनवाज हुसैन पार्टी का बहादुर चेहरा पेश करते हुए कहते हैं, ‘भाजपा अन्ना की बैसाखी पर नहीं टिकी है. गली-गली, गांव-गांव में हमारा संगठन है. वह हमें 2014 का चुनाव जितवाएगा.’ हुसैन का बयान उनकी राजनीतिक मजबूरी का नतीजा भी हो सकती है.
अभी तक अन्ना और उनके सहयोगी सरकार को अपनी पिच पर आकर खेलने के लिए मजबूर कर रहे थे. अब स्थिति उलटी है. अन्ना ने उस पिच पर खेलने का फैसला किया है जिसमें महारत राजनीतिक पार्टियों को हासिल है. तो इस पिच पर सफल होने के लिए टीम को गिद्ध वाली दृष्टि, लोमड़ी जैसी चालाकी, बगुले जैसा ध्यान और इन सबसे ऊपर व्यक्तिगत ईमानदारी चाहिए होगी.