अनशन से सियासत तक

अन्ना हजारे के अनशन को महत्व न देकर उनकी योजना पटरी से उतारने वाली सरकार ने रामदेव के अभियान को दबाने के लिए यही रणनीति अपनाई थी. लेकिन राजग का खुला समर्थन हासिल करके रामदेव ने केंद्र और कांग्रेस के मंसूबों पर पानी फेर दिया. हिमांशु शेखर की रिपोर्ट.

 अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा राजनीतिक विकल्प का राग छेड़ने के बाद ज्यादातर लोग इसे लेकर सशंकित थे कि स्वामी रामदेव के अभियान को उत्साहजनक समर्थन नहीं मिलेगा. खुद रामदेव की बातों से भी ऐसा ही लग रहा था. लेकिन अचानक परिदृश्य ऐसे बदला कि हर तरफ वे ही छा गए. नौ अगस्त को रामलीला मैदान में अपना अभियान शुरू करने के एक दिन पहले मीडिया से बातचीत में रामदेव बार-बार यह दोहरा रहे थे कि उनका अभियान किसी पार्टी या व्यक्ति के खिलाफ नहीं है बल्कि वे काला धन वापस लाने और कुछ संवैधानिक पदों  की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार चाहते हैं. लेकिन यही रामदेव तीन दिन के बाद नारा देने लगे कि कांग्रेस को हटाना है और देश को बचाना है. अब सवाल उठता है कि आखिर अपने अभियान की शुरुआत बेहद रक्षात्मक ढंग से करने वाले रामदेव तीन दिन में ही इतने आक्रामक कैसे हो गए. जिस दिन रामदेव के अभियान की औपचारिक शुरुआत हुई, उसी दिन केंद्रीय मंत्री हरीश रावत की तरफ से यह बयान आया कि सरकार बातचीत के लिए तैयार है. लेकिन सूत्रों के मुताबिक सरकार के वरिष्ठ मंत्री रामदेव से किसी भी तरह की बातचीत के पक्ष में नहीं थे. सरकार मानकर चल रही थी कि रामदेव के अभियान का हश्र भी अन्ना के अभियान जैसा होगा. इसी उत्साह में केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने यह तक कह डाला कि रामदेव कौन हैं. उनसे पत्रकारों ने यह जानना चाहा था कि रामदेव के अभियान पर सरकार का क्या रुख है. रामदेव ने प्रधानमंत्री को जो पत्र लिखे उनका भी कोई जवाब सरकार की तरफ से नहीं दिया गया.

लोगों को यह भी लग रहा था कि कहीं रामदेव के साथ वही न हो जो पिछले साल हुआ था. पिछले साल न सिर्फ रामदेव पर पुलिसिया कार्रवाई हुई थी बल्कि उन्हें हरिद्वार में अपना अनशन कुछ उसी तरह से बेआबरू होकर तोड़ना पड़ा था जिस तरह से इस बार अन्ना हजारे और उनके सहयोगी अनशन खत्म करने को बाध्य हुए. लेकिन जानकारों की मानें तो रामदेव ने अंदर ही अंदर अपनी तैयारी कर ली थी. पिछले साल केंद्र सरकार द्वारा बेइज्जत किए जाने और महिलाओं की पोशाक में रामलीला मैदान छोड़कर भागने वाले रामदेव ने इस एक साल में ज्यादातर कांग्रेस विरोधी दलों से संपर्क साधा. उनके एक सहयोगी बताते हैं, ‘इन सभी मुलाकातों में उन्होंने राजनीतिक दलों से समर्थन मांगा लेकिन खुद इस पर कोई वादा नहीं किया कि वे कोई राजनीतिक दल नहीं बनाएंगे. इन मुलाकातों में ज्यादातर नेताओं ने काले धन के मुद्दे पर समर्थन का आश्वासन तो दिया लेकिन रामदेव को राजनीतिक दल न बनाने की नसीहत भी दी. लेकिन बाबा के मन से अलग राजनीतिक दल का मोह नहीं छूट रहा था. योजना यह थी कि नौ अगस्त को अभियान शुरू होगा और 12 अगस्त को रामदेव नई पार्टी की घोषणा करते हुए बताएंगे कि 2014 में सभी लोकसभा सीटों पर वे अपने उम्मीदवार उतारेंगे.’ तो फिर नई पार्टी की घोषणा क्यों नहीं हुई? जवाब में वे कहते हैं, ‘अन्ना हजारे के सहयोगियों से पूछिए कि उन्होंने राजनीतिक विकल्प की घोषणा करने में इतनी जल्दबाजी क्यों की. वे अगर राजनीतिक विकल्प की बात बाद में करते तो लोग कहते कि वे बाबा रामदेव के रास्ते चल रहे हैं. अन्ना के सहयोगियों द्वारा राजनीतिक विकल्प की घोषणा पहले कर देने से यही संकट रामदेव के सामने पैदा हो गया और उन्हें पार्टी बनाने की योजना टालनी पड़ी. उनके सामने अपना अभियान सम्मानजनक स्तर पर ले जाने के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) का समर्थन हासिल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा.’

जानकारों के मुताबिक भाजपा समेत राजग के सहयोगी दल रामदेव के खुले समर्थन के लिए तब तक तैयार नहीं थे जब तक बाबा यह वादा न कर दें कि वे कोई राजनीतिक दल नहीं बनाएंगे. जब सरकार की तरफ से रामदेव को कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली और उन पर दबाव बढ़ता गया तो पहले उन्होंने तीन दिन के अपने अल्टीमेटम को एक दिन के लिए बढ़ाया. लेकिन फिर भी सरकार ने रामदेव को भाव नहीं दिया. इसके बाद रामदेव के विकल्प सीमित होते गए. 12 अगस्त की दोपहर में संघ के एक बड़े अधिकारी की उनसे मुलाकात हुई. सूत्रों के मुताबिक इस मुलाकात में रामदेव ने संघ के इस अधिकारी से यह आग्रह किया कि वे भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी से बात करें और उन्हें समर्थन के लिए तैयार करें. यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि रामदेव के अभियान को संघ और उसके सहयोगी संगठनों का समर्थन पिछले साल से ही है. भाजपा के एक नेता कहते हैं, ‘संघ के अधिकारियों से भाजपा अध्यक्ष की हुई बातचीत के बाद 12 अगस्त की शाम को नितिन गडकरी और रामदेव के बीच फोन पर बातचीत हुई. रामदेव भाजपा समेत पूरे राजग का समर्थन चाह रहे थे. लेकिन गडकरी पहले यह आश्वासन चाह रहे थे कि रामदेव भविष्य में कोई पार्टी नहीं बनाएंगे. शुरुआत में रामदेव की तरफ से कहा गया कि उनका अभियान कांग्रेस विरुद्ध और राजगपरस्त रहेगा. इस पर गडकरी ने कहा कि राजग के अन्य घटकों को तैयार करना तब तक आसान नहीं होगा जब तक वे राजनीतिक दल नहीं बनाने की बात पर राजी नहीं होते.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘रामदेव ने अंततः यह बात मान ली कि वे राजनीतिक दल नहीं बनाएंगे और उन्होंने गडकरी को राजग के अन्य घटकों को समर्थन के लिए तैयार करने को कहा. गडकरी ने रामदेव से यह कहा कि वे अगली सुबह तक अंतिम तौर पर कुछ बता पाएंगे.’

भाजपा के ये नेता कहते हैं, ‘इस बीच गडकरी ने पहले शरद यादव से बात की. इसके बाद गडकरी और शरद यादव ने राजग के अन्य घटक दलों से बातचीत की. समर्थन के लिए राजग के घटकों को तैयार करने में ज्यादा कठिनाई इसलिए भी नहीं हुई क्योंकि खुद रामदेव इस बार रामलीला मैदान आने से पहले ज्यादातर दलों के प्रमुख से मिल चुके थे. गडकरी ने संसद के दोनों सदनों के नेता प्रतिपक्ष से बात की. न सिर्फ अगले दिन सहयोगियों के साथ रामदेव के समर्थन में रामलीला मैदान जाने की रणनीति बल्कि इस मसले को संसद के दोनों सदनों में जोर-शोर से उठाने की योजना भी बनाई गई. राजग से बाहर के अन्ना द्रमुक और बीजू जनता दल से भी बात की गई. खुद रामदेव ने भी कई नेताओं से बातचीत की और दोहराया कि वे राजनीतिक दल नहीं बनाएंगे.’ 13 अगस्त की सुबह एक बार फिर गडकरी और रामदेव के बीच फोन पर बातचीत हुई. इसके बाद से रामदेव का सुर बदल गया और रामलीला मैदान से उन्होंने न सिर्फ कांग्रेस और केंद्र सरकार पर हमले किए बल्कि कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ का नारा भी उछाल दिया. 

इसके बाद पहले राजग के एक घटक जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी रामलीला मैदान पहुंचे.  थोड़ी ही देर में रामदेव के मंच पर नितिन गडकरी और शरद यादव, भाजपा के कई नेता, बीजू जनता दल, शिव सेना, शिरोमणि अकाली दल और तेलगूदेशम पार्टी के प्रतिनिधि भी पहुंच गए. संसद में अन्ना द्रमुक ने भी काले धन के मुद्दे पर राजग का साथ देकर यह संदेश दिया कि वह भी रामदेव के साथ है. अक्सर संप्रग के आयोजनों में दिखने वाले समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी की मायावती ने भी रामदेव का समर्थन किया.  लेकिन अब हर तरफ यही बात चल रही है कि राजग के साथ जुड़ने के बाद रामदेव को फौरी राहत भले ही मिल गई हो लेकिन खुद उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का भविष्य अनिश्चय से घिर गया है.