बचपन में जब बडे़-बुजुर्ग दूरदर्शन पर समाचार सुनते थे, तो विकल्प के अभाव में हमें भी उन सभी के साथ समाचार देखना पड़ता था. (उस वक्त सिर्फ टीवी देखते रहने का ही बड़ा चार्म था), हम समाचार क्या सुनते! उस समय अकसर एक खबर सुनकर हम चक्कर में पड़ जाते थे और फौरन सवालों के घाट उतर जाते थे. कहीं कोई हमारी बात सुनकर हंस न दे, इस डर से हम उस खबर से संबंधित सारी जिज्ञासाओं को मन में ही रखते. उधर बडे़-बुर्जुग हमारी मनःस्थिति से बेखबर हो कर खबर सुनने में तल्लीन और इधर हम अंदर ही अंदर उन सवालों के उत्तर खोजने में लीन. उस खबर ने बचपन में ही मुझे बचपना करने पर मजबूर कर मुझे बचकाना चिंतक बना दिया.
वह खबर जानते हैं क्या होती थी? यही, पुलिस मुठभेड़ में दो अपराधी मारे गए और तीन अंधेरे का लाभ उठा कर भाग गए. या एक मारा गया दो अंधेरे का लाभ ले कर रफूचक्कर हो गए. अपराधियों की संख्या कम-बेसी हो सकती थी, मगर यह तय था कि अंधेरे का लाभ अपराधी ही उठा ले जाते थे. हम सोचते थे कि बार-बार हर बार अपराधी ही अंधेरे का लाभ क्यों और कैसे ले जाते है? अपराधियों की संख्या पुलिस वालों के मुकाबले कम होती है, फिर भी पट्ठे अंधेरे का लाभ ले लेते हैं? क्या अंधेरा पुलिसवालों के साथ पक्षपात करता है?
समाचार वाचक या वाचिका अपना काम तो कर जाता था. उसे तो बस खबर सुनाना होता था, सुना जाता था. मगर यह खबर सुन कर हमारी नींद उड़ जाती थी. सोचते थे कि जब पुलिस भी मानव (उस वक्त यही सोचते थे) और अपराधी भी आदम जात के, तो अंधेरे का लाभ लेने में इतना एकपक्षीय-एकतरफा परिणाम क्यों? क्या पुलिसवालों की आंखें कमजोर होती हैं? (और तो और सारे पुलिसवालों की!) कभी-कभी सोचता था कि हो न हो अपराधी वही बनता होगा जो, अंधेरे का लाभ उठाने का जन्मजात एक्सपर्ट होता होगा!
उस वक्त क्या-क्या सोचते थे, क्या बताएं! कभी हम यह सोचते, हो न हो अपराध की दुनिया में वही जाते हैं जिनकी नजरें तेज होती हैं और पुलिस में वे जाते हैं, जो कमनजरी के शिकार होते हैं. न समाचार सुनते न ऐसे सवालों में हमारी नन्ही-सी जान फंसती. वैसे भी बचपन में समाचार सुनने का क्या तुक? फिर भी हम सुनते थे, इस उम्मीद से कि शायद इस बार हमें यह खबर सुनने को मिले कि मुठभेड़ में पुलिस ने सारे अपराधियों को मार गिराया. इस बार अपराधी लोग अंधेरे का लाभ नहीं उठा पाए, क्योंकि इस बार अंधियारे का लाभ पुलिस ने उठा लिया. लेकिन ऐसी खबर हमारे बड़े होने पर अब तक न सुनी, उस वक्त क्या सुनते, जब हम छोटे थे!
जितने सवाल ऊपर लिखे हैं, उससे ज्यादा हमारे मन में आते थे. अब तो कई सारे सवालों को भूल गया. माना, उस वक्त हम बच्चे थे, दिल-दिमाग से थोड़े कच्चे थे. मगर आज भी जब हम यह खबर पढ़ते-सुनते हैं, तो बड़ी मौज आती है. न चाहते हुए भी हमारे अधरों पर मुस्कान आ ही जाती है. इतनी हृदय विदारक खबर पर भी हंसी! हंसी खबर पर नहीं, बल्कि खबर की उस प्रकृति पर आती है, जिसने बरसों से अपने चाल-चलन को रत्ती भर नहीं बदला. आज जब इतनी एडवांस तकनीकें आ गई हों, ऐसे में भी अपराधी अंधेरे का लाभ उठाने में सफल हो जाते हैं और पुलिस जो बरसों से इस मोर्चे पर असफल होती आ रही है, एक बार फिर असफल हो जाती है.
बचपन में ऐसे सवालों के भंवर में फंसने का कारण हमारा बचपना था इसलिए जो खबर में दिखाया-सुनाया जाता था, उसे हम सच मान बैठते थे. हम यह नहीं समझ पाते थे कि हमें अंधेरे में रख कर वास्तव में अंधेरे का वास्तविक लाभ कौन उठा रहा है.
-अनूप मणि त्रिपाठी