हिना रब्बानी खार पाकिस्तान का विदेश मंत्री पद संभालने की तैयारी में हैं. जल्द ही भारत के साथ शांति-वार्ता करने आने वालीं हिना की शख्सियत पर रुबाब शिराजी की रिपोर्ट
अगर पाकिस्तान में सब कुछ ठीक-ठाक रहा और दिन-ब-दिन गहराती अस्थिरता की वजह से अचानक कोई बड़ी उथल-पुथल नहीं हुई तो वहां की जूनियर विदेश और वित्तीय प्रशासन मंत्री हिना रब्बानी खार इस महीने विदेश मंत्री के रूप में नई दिल्ली आएंगी. उन्हें यहां भारतीय विदेश मंत्री एस एम कृष्णा के साथ मंत्री स्तरीय वार्ता करनी है. उनकी पदोन्नति दोनों देशों के बीच की मंत्री स्तर की बातचीत के बीच प्रोटोकॉल की अड़चन को दूर करने के लिए जरूरी थी.
34 वर्षीया खार जब फरवरी में विदेश मामलों की राज्यमंत्री बनी थीं, तब शायद ही किसी को ही उनकी नियुक्ति पर हैरानी हुई हो. दरअसल यह प्रतीकात्मक पद 2004 से ही मंत्रिमंडल में प्रभावशाली परिवारों के सदस्यों को खपाने के लिए सुरक्षित रखा गया है. लेकिन प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी द्वारा उन्हें विदेश मंत्री नियुक्त करने का फैसला खासी आलोचना के घेरे में है क्योंकि विदेश मामलों की जटिलता को संभालने के लिए उन्हें कम उम्र का और अपरिपक्व माना जा रहा है. यह अलग बात है कि वे 2004 से ही मंत्रिमंडल का हिस्सा हैं. 2003 में नेशनल-एसेंबली के चुनाव से शुरू हुए अपने राजनीतिक करियर के दौरान ज्यादातर वे लाइमलाइट से दूर रहने वाली नेत्री ही रहीं.
खार की नियुक्ति उस वक्त हो रही है जब पाकिस्तान के दूसरे देशों के साथ संबंध अच्छे दौर में नहीं हैं
एक ऐसे देश में जहां पहले से ही एक अप्रत्याशित राष्ट्रपति(आसिफ़ अली ज़रदारी) और प्रधानमंत्री (यूसुफ़ रजा गिलानी) है, एक अप्रत्याशित विदेश मंत्री भी कोई अजूबे की बात नहीं होगी. अगर सभी चीजें योजना के मुताबिक हुईं तो खार इसी महीने पाकिस्तान की छब्बीसवीं विदेश मंत्री के तौर पर शपथ लेंगी और साथ ही पाकिस्तान की पहली महिला विदेश मंत्री होने का रुतबा भी हासिल करेंगी. मगर विदेश मंत्रालय के नौकरशाह, जो अकेले में खार को ‘लड़की’ कह कर संबोधित करते हैं, कहते हैं कि खार पहले के विदेश मंत्रियों के मुकाबले कहीं नहीं ठहरतीं.
खार एक रसूखदार और संपन्न घराने से आती हैं. वे जाने-माने राजनेता गुलाम नूर रब्बानी खार की बेटी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल व अपनी रंगीनमिजाजी के लिए चर्चित गुलाम मुस्तफ़ा खार की भतीजी हैं. गुलाम मुस्तफ़ा खार की पत्नी तहमीना दुर्रानी ने एक किताब ‘मेरे आका’ लिखी थी, जिस पर काफी विवाद हुआ था. इसमें उन्होंने गुलाम मुस्तफा के साथ अपनी अपमानजनक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करने वाली शादी और एक पुरुष प्रधान समाज में अपने अनुभवों के बारे में लिखा है. सामंती पृष्ठभूमि के बावजूद, खार पाकिस्तान के सबसे उम्दा बिजनेस स्कूल, लाहौर यूनिवर्सिटी आॅफ मैनेजमेंट सांइस से पढ़ी हैं और यूनिवर्सिटी ऑफ मैसेच्यूसेट्स से हॉस्पिटैलिटी में मास्टर डिग्री हासिल की है. खार की नियुक्ति उस वक्त हो रही है जब पाकिस्तान के दूसरे देशों से संबंध अच्छे दौर में नहीं हैं. अमेरिका के साथ उसकी दोस्ती में तेजी से कड़वाहट घुल रही है. अफगानिस्तान के साथ बार-बार उसका कोई न कोई विवाद हो रहा है. और भारत-पाक संवाद भले ही आगे बढ़ रहा हो मगर मगर हाल में दोनों देशों की जो द्विपक्षीय बैठकें हुई हैं उनसे कोई खास उम्मीदें नहीं जग रहीं.
खार के यह पद पाने के बाद भी फैसला लेने की ताकत सेना के पास ही बनी रहने की संभावना है. खार के मंत्री होने से सेना को फायदा ही है क्योंकि वे सारे अहम फैसलों के लिए नौकरशाहों पर निर्भर रहेंगी और इससे रावलपिंडी में मौजूद सैन्य प्रतिष्ठान को विदेश नीति पर प्रभुत्व बनाने में मदद मिलेगी. खार के पूर्ववर्ती शाह महमूद कुरैशी को अपना पद इसलिए गंवाना पड़ा था कि उन्होंने सीआईए के एजेंट रेमंड डेविस के खिलाफ कड़ा रुख अख्तियार किया था. इसके उलट खार इस मामले पर स्वतंत्र राय रखने वाली के तौर पर नहीं जानी जातीं. डेविस जनवरी में दो युवाओं को गोली मारने के मामले में शामिल था.
विदेश विभाग में कोई भी यह नहीं जानता कि खार अहम मसलों जैसे अमेरिका, यूरोप, भारत और अफगानिस्तान के साथ रिश्ते और आतंक के खिलाफ लड़ाई के मामले में क्या राय रखती हैं. फरवरी से वे विदेश विभाग में हैं. लेकिन तब से अब तक उन्होंने विदेश नीति पर कोई बयान नहीं दिया है. हालांकि उनके बारे में काफी कुछ लिखा गया है, लेकिन अब भी वे पहेली बनी हुई हैं. विदेश राज्य मंत्री के बतौर उनके दो कार्यकालों के आधार पर ही विदेश मंत्रालय के अहम पद के लिए उन्हें योग्य माना गया है. आर्थिक मामलों में प्रधानमंत्री के विशेष सहयोगी के तौर पर भी उन्होंने काम किया है.
विदेश मामले उनके पसंदीदा विषयों में शामिल नहीं रहे हैं. उनकी दिलचस्पी वित्त, आर्थिक मामलों और कृषि विकास में रही है. इसके अलावा वे लाहौर में एक आला दर्जे का रेस्टोरेंट चलाती हैं. उनके पति फिरोज गुजराल कपड़ा कारोबारी हैं. अब तक खार अंतरराष्ट्रीय कर्ज और अनुदानों से संबंधित मसलों से जुड़ी रही हैं. विदेश सेवा के अधिकारी नाम न उजागर करने की शर्त पर कहते हैं कि असली कूटनीति बिल्कुल अलग काम है.
एक अन्य अधिकारी का कहना है कि सरकार द्वारा खार को विदेश विभाग में भेजे जाने के बाद यहां प्रशासनिक अव्यवस्था तेजी से बढ़ी है. जनरल मुशर्रफ के कार्यकाल में आर्थिक मामलों के लिए खार जिम्मेदार रही हैं. 2008 के चुनाव में उनकी पुरानी पार्टी पीएमएल (क्यू) की हार के लिए आर्थिक अव्यवस्था को खास तौर पर जिम्मेदार ठहराया गया था. उन्हें पार्टी ने टिकट न देने का फैसला किया था. लेकिन इसके कुछ हफ्तों के बाद ही खार पीपीपी में शामिल हो गईं.
यदि वे विदेश मंत्री का प्रतिष्ठित पद हासिल करने में कामयाब रहती हैं, तो यह कोई पहला मौका नहीं होगा जब उन्हें दूसरों की भूमिका में उतरना पड़ रहा है. 2003 में उन्हें चुनाव लड़ना पड़ा था क्योंकि उनके पिता ग्रेजुएट न होने के कारण चुनाव नहीं लड़ सकते थे. 2009 में वे बजट पेश करने वाली पहली महिला मंत्री बनीं, क्योंकि पूर्व वित्त मंत्री शौकत तरीन चुने हुए प्रतिनिधि नहीं थे.
उनकी पार्टी के लोग बताते हैं कि खार काफी चतुर और महत्वाकांक्षी हैं. वे उदाहरण देते हैं कि अनुभवहीनता के बावजूद कैसे उन्होंने पूर्व कानून मंत्री बरार अवान, पूर्व विदेश मंत्री सरदार आसिफ अली और नेशनल असेंबली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्जा जैसे राजनीतिक दिग्गजों को विदेश मंत्री पद की दौड़ से बाहर कर दिया. मीडिया द्वारा उनको पसंद न किया जाना उनकी एक और कमजोरी है. अगर उनके ऑनलाइन इंटरव्यू खोजे जाएं तो कई साल पुराने सेटर्डे पोस्ट जैसे अज्ञात अखबार में एक लेख के अलावा और कुछ भी नहीं मिलता. इससे चलते देश की विदेश नीति को पेश करने के मामले में वे कमजोर और प्रभावहीन साबित होंगी. अमेरिकी अधिकारी थॉमस निडेस के साथ अपने पहले मीडिया संबोधन में खार एकदम प्रभावहीन थीं. विदेश सचिव सलमान बशीर ने पी टीवी कैमरा के सामने बोलने के लिए उनके लिए जल्दी में कुछ लाइनें लिख दी थीं. लेकिन अधिकारियों ने बताया कि उन्हें इन्हें पढ़ने में भी परेशानी हुई.
कुछ दिनों बाद वे ब्रिटेन के विदेश सचिव के साथ मीडिया को संबोधित कर रही थीं. जब उनसे अफगान और तालिबान के बीच शांति समझौतों की संभावनाओं के बारे में पूछा गया तो वे स्वात में चरमपंथियों के साथ हुए एक ऐसे शांति समझौते के बारे में बोलने लगीं जो कब का टूट चुका है. शायद वे भूल गई थीं कि पाकिस्तान अफगान और स्थानीय तालिबान को एक ही नहीं मानता. पाकिस्तानी सरकार इन्हें दो अलग समूह मानती रही है.
उनकी संभावित पदोन्नति की ऑनलाइन खबरों पर नकारात्मक टिप्पणियों की भरमार है. पाकिस्तान डिफेंस नाम के ऑनलाइन डिस्कशन फोरम पर लगी एक टिप्पणी कहती है, ‘क्या विडंबना है. हम अपने विदेश मामलों में अब तक के सबसे नाजुक दौर से गुजर रहे हैं, शायद इसीलिए हमने इसकी जिम्मेदारी 34 साल की एक ऐसी महिला को सौंपी है जिसके पास हॉस्पिटैलिटी मैनेजमेंट की डिग्री है!’ उनके आलोचकों द्वारा लगाये जा रहे कर चोरी के आरोप तो किसी भी पाकिस्तानी राजनेता के लिए बहुत सामान्य हैं मगर हिना के पक्ष में एक बात जरूर जाती है कि उनका नाम अब तक किसी बड़े विवाद से नहीं जुड़ा है. l