साधो, वश नहीं भीड़ पर

रामदेव और उनके अनुयायियों के साथ पिछले महीने दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई सरकारी ज्यादती के प्रसंग में गांधी का व्यक्तिगत सत्याग्रह अनायास ही याद आ जाता है. राजसत्ता के पास युगों से भय, लालच और दंड नामक तीन अचूक अस्त्र रहे हैं, जिनका प्रयोग वह स्वयं को किसी भी शर्त पर कायम रखने के लिए आज भी बेहिचक करती है. बाबा रामदेव के पीछे उमड़ती-घुमड़ती भीड़ से भयातुर होकर दिल्ली की सत्ता ने ये तीनों हथियार बारी-बारी से चलाए और बाबा रामदेव भले ही इनके मारक प्रभाव से पूरी तरह भूलुंठित नहीं हुए हों, लेकिन घायल अवश्य हुए हैं. उनका तिलमिलाना, रो पड़ना और हुंकार भरना यही सिद्ध करता है.
आधी शताब्दी के प्रयोगों के बाद गांधी ने सत्ता के इन तीन अवैध हथियारों से निपटने का एक नुस्खा निकाला था, जिसमें वे सफल हुए और अंग्रेजों को मुंह की खानी पड़ी. वह था व्यक्तिगत ‘सत्याग्रह’ का कवच जिसके सामने अंग्रेजों के सारे आयुध भोथरे सिद्ध हुए थे.

मंत्रमुग्ध भीड़ को वे पहले अहिंसा के आयुध से लैस करके सत्याग्रह के महायुद्ध में पारंगत तो करें

1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में गांधी ने जब व्यक्तिगत सत्याग्रह की घोषणा की तो सारा देश चौंक उठा था. उस समय गांधी की स्वीकार्यता चरम पर थी. देश के किसी भी कोने से लगी उनकी एक हांक बगैर किन्हीं प्रचार माध्यमों के आनन-फानन देश भर में कौंध जाती थी. उनके एक इंगित पर देश के करोड़ों लोगों का एक साथ खड़ा होना बहुत स्वाभाविक, बल्कि अवश्यंभावी ही था. अंग्रेजों ने निषेधाज्ञा जारी की थी कि आंदोलन के नाम पर किसी भी सार्वजनिक स्थल पर चार या उससे अधिक व्यक्ति साथ इकट्ठा नहीं हो सकते.  इस पर गांधी का उत्तर था कि चार भी क्यों, दो व्यक्तियों को भी आंदोलन के लिए एक जगह पर इकट्ठा होने की भी जरूरत नहीं है. गांधी ने  ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ का आह्वान किया. अर्थात हर व्यक्ति अकेले सत्याग्रह करेगा. उनकी दूसरी चौंकाने वाली घोषणा पहले व्यक्तिगत सत्याग्रह के रूप में विनायक नरहरि भावे (विनोबा) को चुनने की थी. तब तक प्रकारांतर से गांधी स्वयं ही जवाहर लाल नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुन चुके थे. विनोबा का नाम तब तक लगभग अनचीन्हा-सा था. इसलिए गांधी की इन दोनों घोषणाओं पर अंग्रेजों समेत पूरे भारत का चौंकना स्वाभाविक ही था. लेकिन गांधी ने यह हथियार इतिहास का गहन उत्खनन करने के बाद हासिल किया था, इसलिए इसकी सफलता के प्रति वे पूरी तरह से आश्वस्त थे. इससे सदियों पहले ईसामसीह और सुकरात ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ के सफल प्रयोग कर चुके थे.

जब सारा देश गांधी के साथ खड़ा था तब उन्होंने मजमा जुटाने की बजाय लाखों की अंग्रेज फौज के मुकाबले एक व्यक्ति को क्यों चुना? यह बाबा रामदेव के संदर्भ में फिर से विश्लेषण करने योग्य प्रश्न है. बाबा रामदेव के पास निस्संदेह अनुयायियों की भारी भीड़ है, लेकिन गांधी के मुकाबले तो नहीं हो सकती. गांधी जानते थे कि उद्वेलित, उत्तेजित, आतुर और मुग्ध भीड़ अपने नायक के वश में भी नहीं रहती. यह उदाहरण गांधी चौराचौरी की  सामूहिक हिंसा की घटना के रूप में देख चुके थे और हमारी पीढ़ी के लोग 20 साल पहले बाबरी विध्वंस के मामले में देख चुके हैं. बाबा रामदेव के भगवा ध्वज तले हजारों की भीड़ जुट चुकी थी, और लाखों की जुटने वाली थी. लेकिन आरोग्य का महामंत्र बांट कर लोकप्रिय हुए बाबा के आभामंडल से खिंचकर आए वे लाखों लोग राजनीतिक रूप से इतने परिपक्व होंगे कि अपने आवेश और उकताहट को दबा कर भी अनुशासित बने रहेंगे, यह कौन जान सकता है?

व्यक्तिगत सत्याग्रही के रूप में नेहरू की बजाय विनोबा को चुनने  के पीछे भी गांधी की सुविचारित और सुपरीक्षित रणनीति थी. विनोबा एक ऐसे संन्यासी थे, जो भगवा न पहनते हुए भी सांसारिक राग-द्वेषों से मुक्त थे और संन्यासी होते हुए भी एक व्यावहारिक व्यक्ति थे. क्रिकेट खिलाड़ियों और फिल्मी सितारों के पीछे आनन-फानन अपार भीड़ जुट जाती है. वे अपनी लोकप्रियता के सहारे किसी भी कथित आंदोलन का बवंडर खड़ा कर सकते हैं. लेकिन दिशाहीन तथा मंत्रमुग्ध जन समूह का वह बवंडर क्या-क्या ध्वस्त करेगा, यह  कोई नहीं जानता. कहने का आशय यह नहीं कि बाबा चूंकि योग-ध्यान साधना के विशेषज्ञ हैं इसलिए उन्हें भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे नहीं उठाने चाहिए. बल्कि बढ़-चढ़ कर उठाने चाहिए. लेकिन अपने योग से मंत्रमुग्ध भीड़ को वे पहले अहिंसा के आयुध से लैस करके सत्याग्रह के महायुद्ध में पारंगत तो करें. 11,000 युवकों को शस्त्र और शास्त्र से लैस करने की उनकी घोषणा भी चिंतातुर करने वाली है. यदि वे सचमुच ऐसा करते हैं, तो किसी भी सरकार को अपने खिलाफ हिंसा करने का एक सहज अवसर प्रदान करेंगे.
भ्रष्टाचार से इस समय सारा देश इसी तरह अकुलाया हुआ है, जैसे हम गर्मी से अकुलाते हैं. गर्मी बढ़ाने के लिए जो लोग जिम्मेदार होते हैं वे भी उससे परेशान होते हंै. जाने-अनजाने भ्रष्टाचार को सींचने वाले लोग भी भ्रष्टाचार से अघाए हुए हैं. ऐसे में भ्रष्टाचार को एक राष्ट्रव्यापी लेकिन अमूर्त मुद्दा बनते देर नहीं लगती. लेकिन भ्रष्टाचार के दानव से लड़ने के लिए आनन-फानन अनगिनत लोग झंडों-डंडों से लैस होकर सड़कों पर उतर आते हैं. कुछ दिनों में झंडे तो फट जाते हैं, सिर्फ डंडे बच जाते हैं, जो क्लेश का कारण बनते हैं.

नेहरू की बजाय विनोबा को पहला सत्याग्रही चुनने का गांधी का फैसला अब इतिहास की नजीर बनकर बाबा से प्रश्न कर रहा है कि संघ परिवार उनके यज्ञ में हवन समिधा डालने क्यों और कैसे आतुर सक्रियता के साथ कूद पड़ा है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक और भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी उनके यज्ञ में प्रमुख यजमान कैसे बन गए? और वे जब अपनी राजनीतिक कामनाओं के संकल्पों के साथ उनके यज्ञ-हवन कुंड में  समिधा डालेंगे तो लपलपाती अग्नि जिह्वाएं किसे जलाएंगी और किसे बचाएंगी?

राजीव नयन बहुगुणा, वरिष्‍ठ पत्रकार