भययुक्त उत्तर प्रदेश

‘बहुजन समाज पार्टी की पूर्ण बहुमत से सरकार बनवाने के लिए उत्तर प्रदेश की महान जनता को धन्यवाद. जिसने भय, आतंक और जंगल राज समाप्त करने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है. जनता को अहसास है कि वे अब सुरक्षित हैं और राहत की सांस ले सकते हैं’, मई 2007 को चौथी बार देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद ये शब्द मुख्यमंत्री मायावती ने जनता को संबोधित करते हुए कहे थे. आज स्थितियां एकदम उलट हैं. गाजियाबाद से लेकर गोरखपुर तक अकेले जून, 2011 में ही दो दर्जन से अधिक ऐसी घटनाएं हुईं जिनमें महिलाओं के साथ-साथ नाबालिग बच्चियों की आबरू भी तार-तार हुई. कुछ को अपनी जान तक गंवानी पड़ी. खाकी से लेकर खादी तक दागदार हुई. जिन तीन चीजों (भय, आतंक और जंगलराज) को मिटाने का दावा करके मायावती 2007 में लखनऊ की सत्ता पर काबिज हुई थीं वही तीन चीजें उनके शासन के अंतिम साल में उनकी पहचान बन गई हैं. आज कानून-व्यवस्था की हालत बेहद लचर है और सरकार इस पर काबू पाने में खुद को असमर्थ पा रही है. लिहाजा चुनावी दृष्टि से  महत्वपूर्ण समय में अपनी साख बचाने के लिए मुख्यमंत्री मायावती अपराध दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता में बदलाव करने की बात कर रही हैं. वे महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को दुर्भाग्यपूर्ण बता रही हैं और इनके लिए खेद भी जता रही हैं.

मुख्यमंत्री जिस दिन महिलाओं के साथ हुई घटनाओं पर प्रदेश की जनता से दुख व्यक्त करते हुए नियम-कानूनों को और सख्त बनाने की अपनी मंशा जाहिर कर रही थीं उसी 21 जून की रात को बिजनौर से उनके विधायक शहनवाज राणा के भाइयों पर मुजफ्फरनगर में दिल्ली की दो युवतियों का अपहरण करके उनके साथ दुराचार का प्रयास करने के आरोप लगे. घंटों तक दोनों युवतियों को राणा के परिजनों और अंगरक्षकों ने बंधक बनाए रखा. महिलाओं के खिलाफ बलात्कार की ताबड़तोड़ घटनाओं से चौतरफा आलोचनाएं झेल रही मायावती को अपने विधायक को निलंबित करना पड़ा. देश के इतिहास में शायद यह पहली सरकार है जिसमें शामिल दर्जन भर से ज्यादा मंत्री और विधायक बलात्कार और हत्या के आरोपित हैं या सजा काट रहे हैं.

कभी अधिकारियों के बीच खौफ का पर्याय रही मायावती आज कानून-व्यवस्था के मामले में पूरी तरह से अक्षम साबित हो रही हैं

2007 के विधानसभा चुनाव में जब बसपा ने पूर्ण बहुमत हासिल किया था तब उसका चुनावी नारा था ‘चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर’. आज मायावती के विरोधियों ने इस नारे को सर के बल खड़ा कर दिया है – ‘गुंडे चढ़ गए हाथी पर, गोली मारें छाती पर’. विरोधियों के इन आरोपों का जवाब मुख्यमंत्री अपने इस बयान से देती हैं कि हाल की कुछ घटनाओं में उनकी पार्टी को बदनाम करने के लिए विरोधियों की राजनीतिक साजिश नजर आती है. मुख्यमंत्री यह कहना भी नहीं भूलतीं कि पूर्ववर्ती सरकारों और विशेष रूप से सपा के शासन काल के दौरान महिलाओं, दलितों, पिछड़ों सहित सर्वसमाज के कमजोर व गरीब वर्ग के खिलाफ जुल्म की कोई सुनवाई नहीं होती थी. कानून-व्यवस्था के नाम पर चार साल तक चुप्पी साधे रहने के बाद मुख्यमंत्री का यह बयान केवल उनके खुद के दिल को ही बहला सकता है. असलियत तो यह है कि बिना नागा लगातार घट रही घटनाएं, उन पर मुख्यमंत्री का खेद जताना और कानूनों में बदलाव जैसे बड़े कदम उठाने की बात करना ही इस बात की पुष्टि करते हैं कि स्थितियां अब काबू से बाहर जा चुकी हैं.

यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि कानून-व्यवस्था को संभालने की जिम्मेदारी जिस गृह विभाग के पास है उसकी मुखिया स्वयं मुख्यमंत्री ही हैं. कभी अपनी प्रशासनिक धमक के कारण अधिकारियों के बीच खौफ का पर्याय रही मायावती आज कानून-व्यवस्था के मामले में पूरी तरह से अक्षम साबित हो रही हैं. अवकाशप्राप्त आईपीएस अधिकारी श्रीराम अरुण कहते हैं, ‘सरकार ने 2007 के बाद से पुलिस विभाग में इतने अधिक प्रयोग कर डाले हैं कि पूरा सिस्टम ही एक तरह से छिन्न-भिन्न हो गया है. विभाग में एक तरह की दुविधा का माहौल है. पहले जोन स्तर पर आईजी का पद होता था जिस पर वरिष्ठ आईपीएस स्तर का अधिकारी नियुक्त होता था. कई जिलों के कप्तान और उसके अधीन आने वाले डीआईजी हर मामले में उसके प्रति जवाबदेह होते थे. इस व्यवस्था को खत्म कर दिया गया.’ एक आईपीएस अधिकारी बताते हैं,  ‘आगरा, मेरठ, लखनऊ, गोरखपुर सहित कई बड़े शहरों में डीआईजी का पद समाप्त कर डीआईजी स्तर के अधिकारियों को ही एसएसपी का चार्ज दे दिया गया. बड़े शहरों के लिए एसपी (लॉ ऐंड ऑर्डर) का अलग से पद बना दिया गया जिससे कई बार जिले में एक ही रैंक व पद के दो अधिकारियों की तैनाती से आईपीएस अधिकारियों के बीच मनमुटाव की स्थिति भी पनपी.’ सूत्र बताते हैं कि थाने से लेकर एसपी स्तर तक के अधिकारियों की नजदीक से निगरानी का जिम्मा जिस आईजी के पास होता था उसे समाप्त किए जाने के बाद पुलिस-कर्मियों में एक तरह की निरंकुशता और उदासीनता देखने को मिली है.

एक पूर्व डीजीपी कहते हैं, ‘पुलिस विभाग का केंद्रीकरण कानून-व्यवस्था के पंगु होते जाने की सबसे बड़ी वजह है.’ वे कहते हैं, ‘पहले इंस्पेक्टर का तबादला कप्तान और सीओ से लेकर आईजी स्तर के अधिकारियों का तबादला डीजीपी के हाथ में ही होता था. लिहाजा निचले स्तर पर अधिकारी भी इस बात से डरते थे कि यदि उनकी कोई शिकायत ऊपर होती है तो कार्रवाई होगी. लेकिन अब ऐसा नहीं है. जिला स्तर पर तैनात पुलिस अधिकारियों को भी हटाने का अधिकार डीजीपी के पास नहीं बचा है. तबादलों में सरकार के चहेते चंद अधिकारियों की ही सुनी जा रही है, जिसका नतीजा है कि सभी बेलगाम हो गए हैं.’

जो मामले जिला या मंडल स्तर पर निपटाए जा सकते थे उनमें सर्वोच्च पुलिस अधिकारियों और मुख्यमंत्री तक को मोर्चा संभालना पड़ रहा है

पुलिसवालों के मनमानेपन का प्रमाण हाल ही में डीजीपी की एक बैठक में भी देखने को मिला. सूत्र बताते हैं कि कुछ दिनों पूर्व राज्य के डीजीपी जिले के कप्तानों के साथ मीटिंग कर रहे थे. एक जिले के कप्तान की शिकायत मिली थी कि उन्होंने एक दागी इंस्पेक्टर को विशेष जांच दल का प्रभारी बना दिया है. इस मामले में जब डीजीपी ने जब उक्त आईपीएस की खिंचाई शुरू की तो उन अधिकारी महोदय का का कहना था कि इंस्पेक्टर की तैनाती सत्ता से करीबी रखने वाले एक विधायक के कहने पर की गई है. इतना ही नहीं डीजीपी की डांट से खफा उक्त आईपीएस अधिकारी ने भरी मीटिंग में यहां तक कह दिया कि जो करना हो कर लीजिए लेकिन इस तरह की शब्दावली का प्रयोग न करिए. मीटिंग में एक जूनियर आईपीएस का डीजीपी के प्रति ऐसा बर्ताव देख कर वहां मौजूद दूसरे अधिकारियों को लगा कि शाम तक इसकी पोस्टिंग किसी महत्वहीन पद पर कर दी जाएगी लेकिन तबादला तो दूर डीजीपी दबंग आईपीएस से स्पष्टीकरण तक नहीं ले सके.

चंद पुलिस अधिकारी व्यक्तिगत तौर पर सरकार के प्रति कितने निष्ठावान हैं इसका उदाहरण 26 जून की देर रात राजधानी लखनऊ में उस समय भी देखने को मिला जब एएसपी बीपी अशोक आईबीएन चैनल के पत्रकार शलभ मणि त्रिपाठी को उनके कार्यालय के बाहर से यह कहकर हजरतगंज थाने उठा ले गए कि वे सरकार के खिलाफ काफी खबरें दिखा रहे हैं. इससे खफा पत्रकारों ने जब आधी रात को मुख्यमंत्री बंगले की ओर कूच किया तो सरकार को सफाई देनी पड़ी कि उक्त पत्रकार और एएसपी के मामले से सरकार का कोई लेना-देना नहीं है. मामला सीधे तौर पर सरकार और मीडिया से जुड़ा था लिहाजा बिना देर किए सरकार ने उक्त एएसपी व एक सीओ को निलंबित कर दिया.

राज्य में पुलिस की निरंकुशता का यह आलम है कि जो जनप्रतिनिधि राज्य सत्ता के केंद्र तक अपनी जबर्दस्त पहुंच नहीं रखता है या फिर सत्ताधारी पार्टी से नहीं है उसकी भी इस सरकार में सुनवाई मुश्किल से ही होती है. दो साल पूर्व सभी जिलों को शासन स्तर से यह निर्देश दिया गया था कि हर थाने पर इलाके के जनप्रतिनिधियों से संबंधित पट्टिका लगाई जाए और थाना प्रभारी उनकी गरिमा को ध्यान में रखकर वरीयता के आधार पर उनकी समस्याओं का निराकरण करें. सरकार को ऐसा हास्यास्पद फरमान इसलिए जारी करना पड़ा था कि विपक्ष के साथ-साथ उनकी अपनी पार्टी के लोगों ने भी मायावती तक यह शिकायत पहुंचाई थी कि थाने में उनकी सुनवाई नहीं हो रही.

पुलिस पर स्वाभाविक अंकुश की कमी का फायदा जब सामान्य अपराधी उठा रहे हैं तो इस तरह की प्रवृत्ति वाले सत्तासीन लोगों को भला कौन रोक सकता है. पिछले कुछ सालों के दौरान हुई घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है.  इंजीनियर मनोज गुप्ता हत्याकांड के बाद थानाध्यक्ष होशियार सिंह ने आरोपित बसपा विधायक शेखर तिवारी के पक्ष में पूरा मामला निपटाने का प्रयास किया और खुद ही शव जिला अस्पताल में छोड़ कर गायब हो गया. हाल ही में अदालत ने तिवारी के साथ सिंह को भी दोषी करार दिया है. बांदा में दुराचार की शिकार शीलू को पुलिस ने बसपा विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी के घर से मोबाइल चोरी के आरोप में जेल भेज दिया था. हद तो तब हो गई जब कैबिनेट सेक्रेटरी शशांक शेखर सिंह ने बिना देर किए विधायक को निर्दोष करार दे दिया. चौतरफा दबाव के बाद मुख्यमंत्री को अपने ही कैबिनेट सेक्रेटरी के बयान का खंडन करते हुए विधायक को बलात्कार का आरोपित मानना पड़ा. मुख्यमंत्री को यह सफाई तब देनी पड़ी जब हाई कोर्ट ने खुद शीलू को रिहा करने का निर्देश दिया.

इन घटनाओं से साफ होता है कि पुलिस किस तरह मनमानी कर रही है. जो मामले जिला या मंडल स्तर पर निपटाए जा सकते थे उनसे निपटने के लिए बार-बार लखनऊ में बैठे सर्वोच्च पुलिस अधिकारियों और मुख्यमंत्री तक को मोर्चा संभालना पड़ रहा है. इसका एक उदाहरण लखीमपुर के निघासन थाने में नाबालिग लड़की सोनम के साथ कथित दुराचार और हत्या को आत्महत्या बनाने की कोशिश का है. घटना पर जबर्दस्त शोर मचने के बावजूद जिला स्तर पर कुछ न किए जाने की हालत में खुद मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशक को हस्तक्षेप करना पड़ा.

आखिर ऐसी स्थितियां बनी क्यों? इसके जवाब में कांग्रेसी नेता सुरेंद्र राजपूत कहते हैं, ‘हाथी की सवारी करने वालों में गुंडों के साथ-साथ दबंग पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी भी हैं जिनका काम किसी भी तरह सरकार को खुश करके अपना उल्लू सीधा करना है.’ कुछ ऐसी ही राय बीजेपी नेता कलराज मिश्र की भी है. मिश्र का आरोप है कि सरकार भ्रष्टाचार में डूबी है. उसके पास इतना समय ही नहीं है कि वह इस बात की निगरानी ठीक से कर सके कि अधिकारी क्या सही और क्या गलत कर रहे हैं. सरकार की कमजोरी का फायदा चंद अधिकारी उठा रहे हैं और खामियाजा पूरा प्रदेश भुगत रहा है.