नियति है मौत!

आंखों देखी-कानों सुनी

दोपहर करीब साढ़े तीन बजे का समय. मुजफ्फरपुर शहर का केजरीवाल मातृ सदन अस्पताल. एक बच्चे को लगी सलाइन वगैरह हटाकर कंपाउंडर अपने दूसरे काम करने में व्यस्त हो जाता है. बच्चा निढाल पड़ा रहता है. कुछ देर में दो महिलाएं आती हैं. बच्चे के शरीर से चिकित्सा के उपकरण और जिंदगी के सारे कनेक्शन कटे हुए देखती हैं. उसका पेट छूती हैं. छाती पर कान लगाकर धड़कन सुनने की कोशिश करती हैं. फिर दहाड़ें मारकर रोने लगती हैं – ‘साहील रे साहील. अब तोरा बिना कईसे रहेंगे रे साहील.’
अब पता चलता है कि बेफिक्री से खेलने-कूदने की उम्र में अपनी मां और इस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर चले जाने वाले इस बच्चे का नाम साहिल था. साहिल बंगरा गांव का रहनेवाला था. उसे बारी-बारी से गोद में लेकर चूमती-पुचकारती महिलाओं को कुछ ही मिनट बीतते हैं कि ठीक बगल वाले बेड पर भी लगभग यही प्रक्रिया दुहराई जाती है. वहां भी चीख-पुकार मच जाती है. इसी चीख-पुकार के मध्य पता चलता है कि साहिल के बगल में, दस मिनट के अंतराल पर ही जिसकी मौत हुई है, वह अर्चना थी. बहादुरपुर की रहनेवाली. मृत अर्चना को एक महिला जल्दी से पायजामा पहनाती है, उसे सीने से लगाती है. यह अर्चना की नानी माधो देवी हैं. अर्चना की मां सुशीला एक बार ही चिंघाड़ मार कर रो पाती हैं फिर बिस्तर पर गिर जाती हैं. माधो देवी रोते-रोते ही बार-बार कहती हैं, ‘470 रुपइया नाम लिखाई लगा था, 258 रुपइया सुईया का दाम, फिर भी नहीं बची मेरी बच्ची.’ 15 मिनट के अंदर ही साहिल को गोद में लेकर उसकी मां रोते-रोते अस्पताल की सीढ़ियां उतरती हैं. इसके कुछ देर बाद ही अर्चना की नानी भी अपनी नातिन की लाश के साथ अस्पताल से बाहर जाती नजर आती हैं.

जून खत्म होते-होते और जुलाई के चढ़ते-चढ़ते नन्हे-मुन्नों की मौतों का यह दुखद सिलसिला एक वार्षिक आयोजन की तरह धीरे-धीरे खत्म हो जाता है

यह घटना दो जुलाई की दोपहर की है. अस्पताल में दो नन्हे-मुन्नों की असमय मौत का गवाह बनने से कुछ घंटे पहले हम मणिका चांद टोला में पहुंचते हैं. यह मुसहरी के इलाके में बूढ़ी गंडक के तटबंध के नीचे बसा एक छोटा-सा मुसहरटोला है. यहां सबसे पहले हमारी मुलाकात मीना देवी से होती है. मीना के पति शंभू मजदूरी करने जा चुके हैं. सप्ताह भर पहले उनकी चार साल की बेटी राधा चल बसी थी. मीना अपनी बेटी की मौत से सदमे में हैं मगर उनसे ज्यादा सदमे में शंभू हैं. बकौल मीना, राधा की मौत के बाद से शंभू बगैर खाए-पीए रोज कुदाल उठाकर काम पर चले जाते हैं. मीना की सास नुनू देवी को अपने बेटे शंभू की चिंता है. बहू मीना की भी. पर काम पर जाए बिना कैसे काम चले? राधा के इलाज के लिए उनके बेटे ने तीन-चार हजार रुपये का जो महाजनी कर्ज ले लिया है वह कैसे चुकता होगा? रोते-रोते नुनू जो स्थानीय बोली में कहती हैं उसका हिंदी में अनुवाद कुछ इस तरह है- ‘मेरा बेटा अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था. वह रोज रोते-रोते काम पर जाता है. लौटता है तो भी रोता है. हमें चिंता है कि वह जो कमाएगा उससे घर का खर्च चलेगा कि महाजन का कर्ज चुकेगा!’

शंभू के घर के पास दो झोपड़ी छोड़कर लखिंदर का घर है. लखिंदर का चार साल का बेटा राहुल भी कुछ रोज पहले ही मरा है. लखिंदर से भी हमारी मुलाकात नहीं हो पाती. वे घास काटने निकल गए थे. लखिंदर की पत्नी बताती हैं, ‘पिछले साल भी हमारी दस साल की बेटी मर गई थी. साइकिल से इलाज के लिए हम लोग उसे ले जा रहे थे, रास्ते में ही…इस साल अस्पताल तो पहुंच गए मगर कोई फायदा नहीं.’ जिस वक्त राहुल ने अंतिम सांस ली लखिंदर पैसे के इंतजाम के लिए महाजनों के पास दौड़-धूप में लगे हुए थे. पैसे का इंतजाम तो हो गया पर वह राहुल के किसी काम नहीं आया. राहुल की दादी श्रीपतिया कहती हैं, ‘महाजनी भी ले लिए, बेटे को बचा भी नहीं सके.’

मणिका चांद से चलते समय हमारी मुलाकात बुधन मांझी से होती है. ‘पांच साल पहले हमने भी अपने दो बच्चों को खोया है. तीन साल का बेटा संजय और पांच साल की बेटी सुनैना, दोनों एक दिन के अंतराल पर मर गए थे.’ बुधन कहते हैं, ‘चमकी’ हर साल कहर बरपाते रहता है. हम गांव के लोग हैं, गरीब हैं, हर साल मरते हैं, क्या फर्क पड़ता है.’
बुधन जिस चमकी की चर्चा करते हैं वह स्थानीय बोली में उस बीमारी का नाम है जो रहस्य की तरह 16 साल से मुजफ्फरपुर के आसपास के कुछ ग्रामीण इलाकों में कहर बरपा रही है. इस साल आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 60 से ज्यादा मासूम जिंदगियों की कहानी खत्म हो चुकी है इस चमकी से. लेकिन यह है क्या बला, न तो इसकी थाह 16 साल से लग पा रही है और न ही इसकी औकात प्रशासन की निगाहों में इतनी हो सकी कि वह इतने सालों के निरंतर सफर के बाद भी उसे पूरी तरह चौकन्ना कर सके.
 
एक बीमारी, सब पर भारी

दो जुलाई को जब हम साहिल और अर्चना की मौत के गवाह बन रहे थे उस वक्त मुजफ्फरपुर के इलाके में मासूमों की मौत का सालाना जलसा करीब एक महीने तक अपने चरम पर रहने के बाद ढलान का रुख कर चुका था. 1995 से हर साल अमूमन इसी दौरान मुजफ्फरपुर के मीनापुर, मुसहरी, कांटी समेत कई इलाकों के मासूम एक के बाद एक भगवान को प्यारे होते रहते हैं. जून खत्म होते-होते और जुलाई के चढ़ते-चढ़ते नन्हे-मुन्नों की मौतों का यह दुखद सिलसिला एक वार्षिक आयोजन की तरह धीरे-धीरे खत्म हो जाता है. जिनके बच्चे मरते हैं उनकी चीत्कार या तो उनके गांव में ही दफन होकर रह जाती है या अधिक से अधिक अस्पताल की परिधि में.

यदि यह गरीबी और गरमी की बीमारी है तो गया में कोई कम गरीबी नहीं और गरमी में तो उसका कोई सानी ही नहीं. तो फिर यह बीमारी वहां क्यों नहीं होती है?

मुजफ्फरपुर का इलाका लीची के लिए मशहूर रहा है. आम के लिए भी. एक तबके में चतुर्भुज स्थान रोड के रेड लाइट एरिया के लिए भी. लेकिन 1995 से साल दर साल रहस्यमयी बीमारी से होने वाली मासूमों की मौतें इस इलाके को नयी पहचान दे रही है. 1995 में इस बीमारी ने महामारी का रूप ले लिया था. उस समय हजार से अधिक बच्चे इसकी चपेट में आए थे, 100 से अधिक भगवान को प्यारे हो गए थे. उसके बाद से हर साल घटते-बढ़ते आंकड़ों के साथ यह सिलसिला जारी रहा. पिछले साल भी कागजी आंकड़ों के हिसाब से करीब 40 बच्चे इस बीमारी के शिकार होकर असमय काल के गाल में समा गए. 21 बच्चों की मौत तो सिर्फ केजरीवाल अस्पताल में ही हुई थी.

पहचान न होने की वजह से इस बीमारी को अब तक कोई नाम नहीं दिया जा सका है. कुछ लोग इन्सेफलाइटिस कहते हैं, कुछ जापानीज इन्सेफलाइटिस यानि जेई. इस साल जब बीमारी शुरू हुई तो इसके तार लीची से भी जोड़े गए, लेकिन तुरंत ही बीमारी के लीची कनेक्शन को खारिज भी कर दिया गया. खतरा यह था कि यदि लीची का नाम इससे जुड़ा तो इस इलाके के आर्थिक भविष्य का क्या होगा. यहां की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा लीची उत्पादन पर ही टिका हुआ है. इस बार भी यहां नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ कम्युनिकेबल डिजीज की टीमें पहुंचीं. मरीजों के ब्रेन टिश्यू के सैंपल लिए गए. पिछले नौ साल से सैंपल लेने- ले जाने का कार्यक्रम चल रहा है, किंतु अब तक कोई ठोस रिपोर्ट नहीं मिल सकी है. डॉक्टर अनुमान के आधार पर इलाज करते रहते हैं. बच्चे मरते रहते हैं.

राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे का कहना है, ‘पुणे की जांच टीम की रिपोर्ट का इंतजार कर रहे हैं, रिपोर्ट आने के बाद नये सिरे से विचार होगा. नीतियों का मूल्यांकन किया जाएगा.’ स्वास्थ्य मंत्री रिपोर्ट के इंतजार का हवाला देते हुए जापानीज इन्सेफलाइटिस से निपटने की नीतियों पर पुनर्विचार की बात करते हैं, डॉक्टर इस बात को सिरे से नकार देते हैं. मुजफ्फरपुर के श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज ऐंड हॉस्पिटल (एसकेएमसीएच) के डॉ गोपाल सहनी कहते हैं, ‘इस बीमारी का संबंध सीधे-सीधे गरमी और गरीबी से है. गरमी जब भी बढ़ती है, बच्चों के ब्रेन का थर्मोस्टेट डैमेज होता है, गरीब परिवारों के बच्चे ज्यादा कुपोषित होते हैं, इसलिए उनके बच्चों पर हीट स्ट्रोक का असर ज्यादा होता है.’ डॉ सहनी कहते हैं, ‘मैंने सात साल से इस बीमारी के ट्रेंड को देखा है. इस साल भी यह बीमारी 12 जून के करीब शुरू हुई, तब तापमान 42-44 डिग्री के करीब था. 18 जून को बारिश हुई, तापमान 30 पर पहुंच गया तो मरीजों का आना बंद हो गया. 22 जून से फिर तापमान में बढोतरी हुई तो 25-26 जून से फिर मरीज आने लगे’. डॉ सहनी का अध्ययन ठीक माना जाए तो सवाल उठता है कि यदि यह गरीबी और गरमी की बीमारी है तो गया जिले में कोई कम गरीबी नहीं और गरमी में तो उसका कोई सानी ही नहीं. या फिर मुजफ्फरपुर के ही दूसरे हिस्सों में क्या गरीबी या गरमी कोई कम है! तो फिर वहां यह बीमारी क्यों नहीं होती है? इस विरोधाभास को स्वीकार करते हुई डॉ सहनी कहते हैं, ‘हां, यह एक उलझन तो है.’
कुछ डॉक्टर चंडीपुरा वायरस की बात करते हैं, जिससे कुछ साल पहले महाराष्ट्र के विदर्भ और आंध्र प्रदेश में कई बच्चों की मौतें हुई थीं. लेकिन उसकी भी पुष्टि अब तक नहीं हो सकी है. केजरीवाल मातृ सदन के प्रशासक बीबी गिरी कहते हैं, ‘इस बीमारी से गांव के बच्चे पीड़ित होते हैं, जो गरीब होते हैं, हम उनका मुफ्त में इलाज कर रहे हैं. एक मरीज पर औसतन 12-13 हजार रुपये खर्च कर रहे हैं.’

मुजफ्फरपुर के इतने बड़े हिस्से में इस बीमारी का फैलाव हुआ, तब भी पीड़ित बच्चों के परिजन मेडिकल कॉलेज की बजाय एक निजी अस्पताल की ओर क्यों भागते रहे?

जापानीज इन्सेफलाइटिस है नहीं, गरमी की बीमारी जैसी बात भी ठीक नहीं लगती, तो फिर मुफ्त में और पूरी मुस्तैदी के साथ ही सही लेकिन इलाज किया किस बीमारी का जा रहा है? एसकेएमसीएच के उपाधीक्षक डॉ सुनील शाही कहते हैं, ‘हम यह मानकर चल रहे हैं कि इस बीमारी में ब्रेन का इनवॉल्वमेंट है, वायरल और बैक्ट्रियल डिजीज है, इसलिए उसी को रिकवर करने के लिए दवा चलाते हैं.’ डॉ गोपाल सहनी कहते हैं, ‘इस बीमारी के नाम पर एसाइक्लोवीर एंटीवायरल दवा का इस्तेमाल भी किया जा चुका है लेकिन यह जहां भी हुआ, उसमें खेल हुआ. चिकेन पॉक्स या हरपीज सिंपलेक्स वायरस से जनित बीमारियों में एसाइक्लोवीर देना चाहिए. इसके एक इंजेक्शन की कीमत 800 रुपये है. इसे दिन भर में तीन-तीन बार दिया गया, जिससे यह ब्लैक भी होने लगा था.’ यानी बीमारी मालूम नहीं तो इलाज के नाम पर जिसका अपनी सुविधानुसार जो मन आया उसने वही किया. डॉ सहनी की बातें यदि सही हैं तो गरीब बच्चों के इलाज के नाम पर पता नहीं किस-किस किस्म के खेल-तमाशे होते रहे हैं.
ये खेल सिर्फ इलाज के दौरान ही नहीं, उसके पहले और बाद भी खूब हुए. यह बीमारी जापानीज इन्सेफलाइटिस ही है, इसकी पुष्टि नहीं हो पा रही है लेकिन इसके टीकाकरण का काम बिहार में तेजी से चलता रहा. 2007-08 में दस लाख से अधिक बच्चों को टीका दिया गया. 2006 से जिलों में नियमित तौर पर जेई के टीकाकरण का अभियान परवान चढ़ना शुरू हुआ. हर जिले में लाखों बच्चों को जेई का टीका दिया गया. आखिर क्यों जेई का टीकाकरण अंधाधुंध जारी है, यह भी एक सवाल है.
 
गंवई व गरीब बच्चे मरते हैं, क्या घबराना…

दो जुलाई को ही केजरीवाल अस्पताल में दो बच्चों की मौत आंखों के सामने देखने के बाद शाम को  मेडिकल कॉलेज जाना हुआ. कथित तौर पर इन्सेफलाइटिस के शिकार बच्चों के लिए बने वार्ड में. 12-13 जून को बीमारी शुरू हुई थी, लेकिन हर साल होने वाली इस बीमारी के लिए अलग से वार्ड बनाने में मेडिकल कॉलेज को सप्ताह भर से ज्यादा का समय लग गया. जब पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा तब जाकर ऑर्थोपेडिक वार्ड को इन्सेफलाइटिस वार्ड में बदला जा सका था. जब हम उस वार्ड में पहुंचे तब वहां सिर्फ तीन बच्चे सीतामढ़ी के एक गांव के विवेक, कांटी इलाके की निम्मी और सीतामढ़ी के ही कृष्णा भर्ती थे. कृष्णा की हालत गंभीर थी. वार्ड में एक तरफ कृष्णा की मां अपने बच्चे को बचाने के लिए गांव के ब्रह्म बाबा से लेकर देवी माई तक की दुहाई दे रही थीं तो दूसरी तरफ नर्सों और अस्पताल कर्मियों के बीच जबर्दस्त हंसी-ठहाकों का दौर चल रहा था. वार्ड में मौजूद रहे कुछ लोग बताते हैं कि मेडिकल कॉलेज में कथित इन्सेफलाइटिस के दौरान जब मासूमों की मौतें होती रहीं, तब भी कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा था. डॉ गोपाल सहनी तो टीवी कैमरों के सामने उस वक्त रो तक पड़े थे, जब यह सामने आया था कि इलाज के दौरान नर्सिंग की लापरवाही या देखभाल में कमी के कारण एक बच्चे की जान चली गई थी.

गौर करने वाली बात यह भी है कि मुजफ्फरपुर के इलाके में आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 63 गांवों में जब इस बीमारी का फैलाव हुआ, तब भी इतनी सुस्ती क्यों रही. क्यों पीड़ित बच्चों के परिजन मेडिकल कॉलेज की बजाय एक निजी अस्पताल -केजरीवाल अस्पताल –  की ओर भागते रहे? मेडिकल कॉलेज में तो फिर भी कुछ मरीज आ गए लेकिन जिले का सदर अस्पताल, जो गरीबों के लिए सबसे बड़ा आसरा होता है, वहां इस बदहवासी में भी किसी ने अपने लाड़लों को लेकर जाना मुनासिब नहीं समझा. इन सवालों के जवाब कई तरह से मिलते हैं. एसकेएमसीएच के उपाधीक्षक डॉ सुनील शाही, जो इस बीमारी के दौरान अधीक्षक के छुट्टी पर जाने के कारण यहां का प्रभार देख रहे थे, कहते हैं, ‘सब पेपरबाजी होते रहा है, कौन कहता है कि हम मरीजों के लिए तैयार नहीं थे या नहीं रहते. लेकिन सरकारी का ठप्पा होने की वजह से लोग ही नहीं आते तो क्या करें? 1995 से मौतें हो रही हैं, अस्पताल तो अपने स्तर से तैयार ही रहता है लेकिन हमारी तैयारी से क्या होगा? बीमारी का कुछ अता-पता ही नहीं चल पा रहा है, कुछ स्पष्ट भी तो हो! तैयारी प्रारंभिक स्तर पर करने की जरूरत है. हेल्थ एजुकेशन पर जोर देना होगा, छिड़काव वगैरह पर जोर देना होगा. हमारे यहां तो एक आदमी, तीन-तीन आदमी का ड्यूटी करता है. और रही-सही कसर पीडब्ल्यूडी, पीएचईडी और बिजली विभाग पूरा करता है. कई सालों से वार्ड कंस्ट्रक्शन वगैरह के लिए पैसा आया हुआ है, लेकिन उसका कोई अता-पता नहीं चला, अब जाकर टेंडर की प्रक्रिया शुरू हुई है. हमें जिनसे सहयोग चाहिए उन पर हमारा कोई वश ही नहीं.’

मुजफ्फरपुर से ही सटे सीतामढ़ी जिले के पुपरी ब्लॉक के टेम्हुआ गांव में कालाजार से पिछले चार-पांच साल में 44 मौतें हुई हैं. कालाजार भी एक रहस्यमयी बीमारी की तरह लगता है यहां

डॉ शाही की बातें कुछ हद तक सही भी हैं और अभाव से गुजरते संस्थान का प्रभारी होने की वजह से तनाव भी स्वाभाविक है. लेकिन गरीबों की उम्मीद तो सरकारी संस्थान ही होते हैं. डॉ शाही तो सिर्फ मेडिकल कॉलेज के प्रभारी थे, जिले की स्वास्थ्य व्यवस्था का जिम्मा तो सदर अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर भी होता है. लेकिन अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति देख साफ लगता है कि यहां मजबूरी न हो तो लोग आने से भी तौबा करें. मगर मजबूरी भी अगर साथ छोड़ दे तो गरीब तो बिलकुल अकेला हो जाएगा. सदर अस्पताल के एक कर्मचारी शशि कहते हैं, ‘ऐसी बात नहीं, हमारे यहां करीब 500 मरीज रोज ओपीडी में पहुंचते हैं.’

मुजफ्फरपुर के सिविल सर्जन डॉ अर्जुन प्रसाद सिंह कहते हैं, ‘डीडीटी स्प्रे और फॉगिंग का काम हो रहा है, हमने अस्पताल में वार्ड भी तैयार रखा था लेकिन यहां मेडिकल कॉलेज होने की वजह से मरीज  आए ही नहीं.’ यह पूछने पर कि जब बीमारी हर साल एक निश्चित समय पर दस्तक देती है तो स्प्रे और फॉगिंग का काम पहले क्यों नहीं किया गया, सिविल सर्जन सरकारी विभाग होने की दुहाई देते हैं. कहते हैं, ‘जब संभव होगा, तभी तो होगा न! सरकारी विभाग है, यहां एक दिन में सब कुछ नहीं हो सकता. बजट बनता है, ऐक्‍शन प्लान तैयार होता है, स्वीकृति ली जाती है, तब जाकर काम होता है.’ डॉ प्रसाद कहते हैं कि पटना में महकमे की बैठक होने वाली है, पूरी स्थिति को रखेंगे. तब योजना बनाएंगे, वैसे इस बीमारी के लिए अनुसंधान और अस्पतालों के सिविल वर्क पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है. डॉ प्रसाद कहते हैं, ‘हम क्या करें, भवन निर्माण विभाग पैसा लेकर ही बैठा हुआ है.’

मेडिकल कॉलेज के उपाधीक्षक डॉ शाही या सिविल सर्जन डॉ प्रसाद जो मजबूरियां गिना रहे हैं वे पिछले और उससे पिछले साल भी गिनाई जाती रही हैं. और बीमारी गरीबों की नियति बन कर उनके मासूमों पर कहर बरपाती रही है. जिस तरह सिविल सर्जन दूसरे विभागों द्वारा सहयोग नहीं किए जाने की बात कहते हैं, उसी किस्म के हालात निचले स्तर पर भी नजर आते हैं. वरिष्ठ समाजवादी विचारक व लेखक सच्चिदानंद सिन्हा से जब मणिका में उनके आवास पर मुलाकात होती है तो वे बताते हैं कि कुछ दिनों पहले उनके गांव में छिड़काव करने वाले आए. वे कालाजार के लिए छिड़काव कर रहे थे. सिन्हा के यह कहने पर कि सामने जलजमाव है, उसमें भी छिड़काव कर दीजिए, जवाब मिला- ‘मलेरिया विभाग से नहीं आए हैं, उसका आदमी आएगा तो बोलिएगा.’

बिहार में जिले 38 हैं मगर जिला अस्पताल 25. यहां अनुमंडल 101 हैं पर अनुमंडलीय अस्पतालों की संख्या 25. राज्य में चिकित्सकों के 6,500 पद स्वीकृत हैं, लेकिन चिकित्सक करीब 3,500 ही हैं

जिले के सिविल सर्जन बीमारी से निपटने के लिए अनुसंधान कार्य पर जोर देने की बात कहते हैं लेकिन सदर अस्पताल का निरीक्षण किया जाए तो शायद सबसे पहले उसी पर अनुसंधान की जरूरत है. सदर अस्पताल जलजमाव का एक बेहतरीन स्थल है. वहां इन्सेफलाइटिस के लिए दो जुलाई के एकाध रोज पहले आइसोलेशन वार्ड को तैयार किया गया था. मगर इसके बिस्तरों की हालत ऐसी नहीं कि किसी मरीज को उन पर लिटाया जा सके. हमें इन पर कुत्तों का मल आदि भी नजर आता है. पूरे अस्पताल परिसर की बात तो दूर, अगर थोड़ी बारिश हो जाए तो सिविल सर्जन के चैंबर तक पहुंचना भी जंग लड़ने जैसा है.

सिर्फ एक बीमारी नहीं, स्वास्थ्य महकमा, समाजसेवी, राजनीतिबाज… सब रहस्यमय ही हैं

मुजफ्फरपुर जिले के साथ ही सीतामढ़ी, समस्तीपुर, पूर्वी चंपारण आदि के इलाके में विस्तारित होकर हर साल कहर बरपाने वाली यह बीमारी रहस्यमयी है, यह तो सभी बता रहे हैं लेकिन इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए गौर करें तो और भी बहुत कुछ है जो यहां रहस्यों से भरा हुआ है. बिहार में ज्ञात बीमारियों के शिकार होने को भी नियति मान लेने वालों की संख्या कम नहीं है. मुजफ्फरपुर से ही सटे सीतामढ़ी जिले के पुपरी ब्लॉक के टेम्हुआ गांव में कालाजार से पिछले चार-पांच साल में 44 मौतें हुई हैं. साल-दर-साल यह सिलसिला जारी है. कालाजार भी एक रहस्यमयी बीमारी की तरह लगता है यहां.

गया जिले के शेरघाटी के आमस प्रखंड का एक गांव है भूपनगर. वहां विकलांग पीढ़ियां वर्षों से जवान हो रही हैं. यह सब पानी में फ्लोराइड के कारण हो रहा है. नवादा में भी कई गांव भूपनगर की तरह हैं. फ्लूरोसिस भी एक रहस्य बना हुआ है यहां! राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल आपूर्ति कार्यक्रम की मई, 2011 में आई रिपोर्ट कहती है कि बिहार में 18,431 गांव शुद्ध पेयजल से वंचित हैं. 3,339 गांव फ्लोराइड की अधिकता से प्रभावित हैं. 1,112 गांव आर्सेनिक की अधिकता से त्रस्त हैं. इनकी अधिकता से त्वचा, खून और फेफडे़ की बीमारियां होंगी, बच्चों का कार्डियोवस्कुलर सिस्टम प्रभावित होगा, कैंसर की संभावना बनेगी, दांत और हड्डियों का रोग होगा लेकिन पेयजल का मामला पेयजल वाले जाने, स्वास्थ्य विभाग की योजनाएं दूसरी हैं. ऐसा क्यों, यह भी एक रहस्य ही है.
12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के लिए एक एप्रोच पेपर तैयार होने वाला है. उसके लिए योजना आयोग ने एक वर्किंग टीम बनाई है. उस वर्किंग टीम में पटना के डॉ. शकील भी शामिल हैं. डॉ. शकील आंकड़ों की जबान में कुछ बातें बताते हैं. कहते हैं, ‘राज्य की आबादी अब 10 करोड़ हो गई है, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 538 है. यानी औसतन दो लाख की आबादी पर एक, जबकि 30 हजार की आबादी पर एक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए. राज्य सरकार 1,200 अतिरिक्त पीएचसी को भी उसमें जोड़ती है, तो भी संख्या काफी कम रह जाती है.’ डॉ शकील आगे बताते हैं कि बिहार में आबादी के अनुसार 20 हजार उपप्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र चाहिए लेकिन हैं 8,500 ही. यहां रेफरल अस्पताल एक लाख की आबादी पर एक होना चाहिए लेकिन कुल रेफरल अस्पतालों की संख्या 72 है. बिहार में कुल जिलों की संख्या 38 है मगर जिला अस्पताल 25 ही हैं. यहां अनुमंडल 101 हैं पर अनुमंडलीय अस्पतालों की संख्या 25 है. झारखंड के बंटवारे के बाद राज्य में चिकित्सकों के 6,500 पद स्वीकृत हैं, लेकिन अभी राज्य में करीब 3,500 चिकित्सक ही हैं. 1998 के बाद से रेगुलर डॉक्टरों की नियुक्ति नहीं हुई, कॉन्ट्रैक्ट पर डॉक्टर रहना नहीं चाहते. बिहार के डॉक्टर गुजरात- महाराष्ट्र आदि राज्यों में जा रहे हैं. स्टेट प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन प्रोग्राम की 2010-11 की रिपोर्ट कहती है कि बिहार में विशेषज्ञों के 68 प्रतिशत पद रिक्त हैं. फार्मासिस्ट, रेडियोग्राफर, लैब तकनीशियन आदि की कमी 60 से 92 फीसदी तक है. बिहार में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 92 रुपये खर्च होते हैं, राष्ट्रीय औसत 216 रुपये हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि 1,700 रुपये खर्च करने से नागरिक स्वस्थ रहेंगे. ऐसे ही कई आंकड़े बताने के बाद डॉ शकील कहते हैं, समझ सकते हैं कि हालत और हालात कैसे रहेंगे?

रहस्यों का सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता. मुजफ्फरपुर में इस बार बीमारी फैलने के बाद कुछ राजनीतिज्ञों और कुछ राजनीतिबाजों का भी जाना हुआ. कुछ ने पटना लौटकर बयानबाजी की, कुछ वहीं बोल लिये. सत्ता पक्षवालों ने कहा- ‘सरकार सक्रिय है, बीमारी को गंभीरता से ले रही है.’ विपक्षियों और विक्षुब्धों का कहना है- ‘नीतीश सरकार के राज में स्वास्थ्य विभाग और गरीबों की कैसी दुर्गति है, इसकी पोल खुल रही है.’ जो आज नीतीश सरकार की पोल-पट्टी खोलने की बात कर रहे हैं, कभी वे भी सत्ता मंे थे. कुछ नीतीश के साथ भी थे, तब भी मुजफ्फरपुर में बच्चे ऐसे ही मरते थे. दर्जनों की संख्या में. मौत ने सैकड़ा का आंकड़ा भी छुआ था. तब उनके लिए यह कोई मसला क्यों नहीं था यह भी किसी रहस्य से कम नहीं.

फिर सबसे बड़ा रहस्य खुद मुजफ्फरपुर ही है जिसे पटना के बाद बिहार का दूसरा सबसे अहम शहर माना जाता है. यहां की हर गली में जलजमाव, गंदगी का अंबार और सड़कों की खस्ता हालत के बाद भी यदि इस बात के गीत गाए जाएं कि पटना के बाद हमीं हैं, तो इसे क्या कहेंगे? इन्सेफलाइटिस के लिए जिम्मेदार मच्छर क्यूलेक्स की तलाश में जब शहर के आसपास के इलाकों में पिछले दिनों विशेषज्ञों ने जाल लगाए तो क्यूलेक्स को छोड़कर डेंगू, मलेरिया समेत कई बीमारियों के मच्छर यहां मिले. 497 मच्छरों की वेरायटी की तो पहचान ही नहीं हो सकी. इतने किस्म के मच्छरों का शहर है मुजफ्फरपुर.

मुजफ्फरपुर के मुसहरी में 1968 में जयप्रकाश नारायण ने नक्सलियों को आत्मसमपर्ण कराने के लिए अपना डेरा डाला था. यहीं रहकर उन्होंने आमने-सामने पुस्तिका लिखी थी. जेपी के लिए वह प्रयोगभूमि था. मुजफ्फरपुर में 1995 से बच्चों की मौत का सिलसिला जारी है बड़े व राष्ट्रीय सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए जल-जंगल-जमीन की तरह ही जीवन क्यों मुद्दा नहीं बन पा रहा है अब तक, यह भी कोई कम रहस्य नहीं. बच्चों पर काम करने वाली कई संस्थाएं भी हैं लेकिन एक मत होकर उन्होंने इसे मसला बनाया हो, ऐसा नहीं दिखा. इसके पीछे भी जरूर कोई रहस्य होगा! मुजफ्फरपुर के समाजसेवी रमेश पंकज कहते हैं, ‘हम अपने स्तर पर इसे मसला बनाने की कोशिश करते हैं लेकिन इसके लिए सबका साथ चाहिए.’ समाजसेवी डॉ एचएन विश्वकर्मा भी कुछ ऐसा ही कहते हैं. कई और मिलते हैं, जो इस रहस्यमयी बीमारी से चिंतित हैं लेकिन बिहार में स्वास्थ्य कोई राजनीति का मसला नहीं है, इसलिए सब कुछ स्थानीय स्तर पर दम तोड़ता है. बात सही भी है. अगर स्वास्थ्य राजनीति का मसला होता तो पांच दर्जन बच्चों की मौत पर बिहार के मुख्यमंत्री या कम से कम उपमुख्यमंत्री तो एक बार जरूर मुजफ्फरपुर पहुंचते.

मुजफ्फरपुर के इलाके में इस बीमारी के दौरान घूमते हुए बीमारी से इतर और भी कई रहस्यमयी बातें देखने को मिलीं. यहां कई पंचायतों में मुखिया की बजाय उपमुखिया बनने के लिए लाखों बहाए जाने की चर्चा है. उपमुखिया के यहां मुखिया की जिंदगी बंधक की तरह रहती है. जिन गरीबों के बच्चे बीमारियों से मरते हैं उनके लिए इंदिरा आवास के नाम पर जब 35 हजार आता है तो उन्हें सात हजार और एक ट्रॉली ईंट देकर चलता किया जाता है, यह भी बताया गया.  मुजफ्फरपुर के सिविल सर्जन जाली बहाली से लेकर अन्य मामलों में भी आरोपित हैं, इसके बावजूद मुजफ्फरपुर जैसे संवेदनशील जिले में उनका सिविल सर्जन जैसे अहम पद पर बने रहना भी यहां के कुछ लोगों को रहस्यमय लगता है.

मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत हर रोज हो रही थी, इससे बेपरवाह मुजफ्फरपुरवाले शहर के चौक-चौपालों पर उन मौतों की बजाय जिला परिषद के गुणा-गणित में ज्यादा मजा ले रहे थे. संवेदनाओं का इस कदर बदलना भी कोई कम रहस्य नहीं.