तुम कहती हो या मैं कहता हूं

sfsdयूं तो बड़ा अटपटा लगता है कि मैं हिंदी भाषा के बारे में कुछ कहूं पर ऐसा आग्रह है कि तहलका के प्रथम हिंदी संस्करण के लिए मैं अपने अनुभवों और विशेष रूप से उन अनुभवों का जो हिंदी भाषा से जुड़े हैं, जिक्र करूं. हिंदी मेरे लिए एक ऐसी भाषा कभी नहीं रही जिसे मैंने विधिवत सीखा हो. जैसे मुझे यह स्मरण नहीं कि कैसे मैंने सरकते-सरकते दो पैरों पर खड़ा होकर चलना शुरू किया, ऐसे ही मुझे यह भी याद नहीं कि कब और कैसे मैंने हिंदी बोलना और लिखना शुरू किया. मैं यह दावा तो नहीं कर सकता कि मेरे हिंदी ज्ञान में कभी कोई त्रुटि नहीं हो सकती या हिंदी के महापंडित अगर कोई मीन-मेख निकालने पर उतारू हो जाएं तो उन्हें कुछ भी इधर-उधर नहीं मिलेगा. लेकिन एक बात जरूर कह सकता हूं कि हिंदी और मेरे बीच मां और बेटे का-सा संबंध है. जो सहजता एक शिशु और मां के बीच होती है मैं हिंदी के साथ वही सहजता महसूस करता हूं. मैं जब चाहे उसकी चोटी, उसका आंचल खींच सकता हूं और वह जब चाहे मुझे डपट कर चुप करा सकती है. यह हिंदी से मेरी सहजता ही थी जिसके कारण चाहे विज्ञापन की दुनिया हो या फिल्म जगत मैंने अपनी ही तरह से स्वाभाविक लेखन किया, बिना किसी परंपरा को निभाने की कोशिश किए.

मुझे याद है, जब मैंने विज्ञापन के क्षेत्र में कदम रखा था तब यहां पूरी तरह से अंग्रेजी का बोलबाला था. ऐसा नहीं था कि हिंदी में विज्ञापनों की रचना नहीं होती थी परंतु किसी को यह विश्वास नहीं था कि हिंदी में सोचने वाले लोग भी विज्ञापनों की रचना कर सकते हैं. अंग्रेजी का ज्ञान अनिवार्य था या यह कहूं कि पहली शर्त ही यही थी कि आप अंग्रेजी जानते हों. मैं जब भी अंग्रेजी में लिखे विज्ञापनों का हिंदी में अनुवाद होते देखता तो मुझे बड़ा कष्ट होता था. मैनेजमेंट की डिग्री होने की वजह से अगर मैं चाहता तो उस समय विज्ञापन जगत को सदा के लिए अलविदा कह देता. पर थोड़ा सोचने के बाद मुझे लगा कि भागना तो गलत होगा. यदि मुझे सचमुच यह लगता है कि विज्ञापन जगत की यह धारणा गलत है कि मूलत: हिंदी में सोचने वाले लोग विज्ञापन की रचना नहीं कर सकते, तो मुझे यह लड़ाई लड़नी होगी. उस समय तक एक बात मैं समझ चुका था कि यहां क्रोध और आक्रोश के लिए कोई जगह नहीं है. क्योंकि बाजार का हवाला देकर आपका मुंह कभी भी कोई भी बंद करा सकता है.

भाषा सिर्फ व्याकरण में बंधे शब्दों से बना कोई गुच्छा नहीं है. भाषा तो संस्कृति के घोल में डूब-डूब कर, सामाजिक बदलावों से गुजर-गुजर कर, पल-पल बदलता सत्य है

और यहां से शुरू हुआ मेरा सफर, उतार-चढ़ावों, खट्टे-मीठे अनुभवों से भरा-पूरा. मैं हमेशा से यही मानता आया हूं कि झूठ की लड़ाई आप कभी नहीं जीत सकते इसलिए मेरे लिए सर्वप्रथम यह जानना निहायत ही जरूरी था कि  हिंदी में सोचने वालों की जरूरत इस व्यवसाय को सचमुच है भी या यह सिर्फ मेरा कोरा हिंदी-प्रेम है? विज्ञापन व्यवसाय में सबसे बड़ा होता है उपभोक्ता, ग्राहक. क्योंकि कोई भी उत्पाद हो उसका कोई न कोई खरीदार तो होना ही चाहिए अन्यथा उसका औचित्य ही क्या. और विज्ञापन का उद्देश्य है उस उत्पाद की जानकारी उपभोक्ता तक पहुंचाना. जब मैंने बाजार का बारीकी से अध्ययन किया तो सच साफ हो गया. यहां पर हिंदी में सोचने की बहुत बड़ी जरूरत थी क्योंकि आम आदमी अपनी जुबान में ही संदेश सुनना चाहता था और उसे उस समय के विज्ञापनों की भाषा बड़ी अटपटी लगती थी. और क्यों न लगती, कुछ ऐसे लोग विज्ञापनों की रचना कर रहे थे जिनका आम जीवन से कुछ लेना-देना ही नहीं था.

इन्होंने आम आदमी को या तो कार के शीशों के उस पार देखा तो या फिर घरों में पोंछा लगाते, खाना बनाते, चौकीदारी करते या फि र हिंदी फिल्मों में. वह कैसे सोचता है, उसके जीवन के सत्य क्या हैं, इन सबसे उसका कोई नाता नहीं था. मार्केट रिसर्च रिपोर्ट में जब मैं आम आदमी की छवि देखता तो मन खट्टा हो जाता था. गोरखपुर की गीता – मार्केटिंंग और एडवर्टाइजिंग से जुड़े हर आदमी ने यह नाम ज़रूर सुना होगा. गोरखपुर की गीता  यानी एक आम मध्यवर्गीय महिला. पर इस बात की परवाह किसी को नहीं थी कि इस महिला के धड़कते हृदय में क्या कुछ चल रहा है? किस कोने में पल रहे हैं उसके सपने? किस कोने में संजो रही हैं वह यादें, किस धड़कन में छिपी है प्रतीक्षा और किसमें भय या वहम? उन रिसर्च रिपोर्ट्स में उसका जिक्र तो होता था पर वहां वह सिर्फ एक उपभोक्ता थी. मुट्ठी में एक मुड़ा-तुड़ा नोट लिए किसी दुकान के काउंटर पर  खड़ी, खरीदारी करने के लिए लालायित, नए-नए उत्पादनों से अपने घर को भर देने पर उतारू. मुझे इसी गीता को जीवंत करना था, मुझे इसी गीता की भावनाओं को स्वर देना था और उसका संपूर्ण परिचय  कराना था विज्ञापन जगत से. सवाल तर्क से जीतने का नहीं था, सवाल था सफलता का. विज्ञापनों की सफलता का, उत्पादनों की सफलता का. तो बस एक ही रास्ता था, कलम का. और अंतत: वहीं किया – मैं लिखता रहा, विज्ञापन पर विज्ञापन, हेडलाइंस पर हेडलाइंस, जिंगल्स पर जिंगल्स, स्लोगन पर स्लोगन. और तब तक ताबड़तोड़ लिखता रहा जब तक बाजार से प्रतिध्वनि नहीं सुनाई दी.

धीरे-धीरे विज्ञापन जगत को यह अहसास होने लगा कि अंतर है. हिंदी में सोचे गए विज्ञापन अलग हैं. मैं यह नहीं कह सकता कि इस तरह  का काम सिर्फ मैं ही कर रहा था. उस समय कुछ और लोगों को भी इस बात पर विश्वास था कि विज्ञापनों में बदलाव की ज़रूरत है, और विज्ञापन जगत इस ओर जागरुक हो रहा था. दरअसल दोष विज्ञापन जगत का भी नहीं था. हमारे देश ने विज्ञापनों की संस्कृति विदेशियों से सीखी थी तो विज्ञापनों की रचना भी उसी तरह से हो रही थी. पर उस समय हम भूल रहे थे कि हमारे देश की संस्कृति और यहां का सामाजिक ढांचा इतना सरल नहीं है. परतें हैं. परतों पर परतें हैं. और यहां लोगों से संवाद करने के लिए भाषा की सहजता को और भाषा को समझना बहुत ही जरूरी है. क्योंकि भाषा सिर्फ व्याकरण में बंधे शब्दों से बना कोई गुच्छा नहीं है. भाषा तो संस्कृति के घोल में डूब-डूबकर, सामाजिक बदलावों से गुजर-गुजरकर, पल-पल बदलता सत्य है. एक सतत बहती धारा है. और उस धारा के साथ जुड़ कर ही आप अपना संदेश आम जनता तक, उपभोक्ताओं तक पहुंचा सकते हैं. सच कहूं तो भाषा के सही अर्थ का अहसास मुझे भी विज्ञापन जगत से जुड़ने के बाद ही हुआ. उससे पूर्व मैं भी भाषा के संप्रेषण पक्ष को पूरी तरह नहीं समझता था. इसके लिए मैं विज्ञापन व्यवसाय का सदैव ऋणी रहूंगा.

बोलचाल की हिंदी की शक्ति का अंदाजा मुझे बिल्कुल नहीं था. मैं नहीं जानता था कि अगर आप डायलॉग लिखने की कला जानते हैं तो आप मुश्किल से मुश्किल बात भी बड़ी आसानी से लोगों तक पहुंचा सकते हैं. ठंडा मतलब कोका कोला सीरिज के तहत मैंने कई विज्ञापन लिखे जहां मैंने बोलचाल की हिंदी को खूब इस्तेमाल किया और परिणामस्वरूप उन विज्ञापनों को ऐतिहासिक सफलता मिली. हालांकि मैंने आरंभ से ही हिंदी में लिखना शुरू कर दिया था, कविताएं, कहानियां, गीत इत्यादि पर विज्ञापनों से जुड़ने के बाद मेरी लेखन-शैली में बहुत अंतर आ गया था. मुझे उसमें ज्यादा स्वाभाविकता और स्वच्छंदता का अनुभव हो रहा था. और इसी समय मेरे सामने अवसर आया गीत लिखने का. पहले-पहल मैंने शुभा मुद्गल जी के साथ कुछ निजी एलबमों के लिए गीत लिखे जैसे — अब के सावन, मन के मंजीरे इत्यादि जो श्रोताओं को खासे पसंद आए और एक सिलसिला-सा चल निकला. मैं फिल्मों के लिए भी गीत और डायलॉग्स लिखने लगा. फिल्मों में ना ही मैं किसी को जानता था और ना ही मेरे परिवार में कोई मुझसे पहले इस क्षेत्र से जुड़ा था. मेरे पास अगर कुछ था तो कलम और हिंदी से मेरी सहजता. यहां का दृश्य विज्ञापनों से बिल्कुल अलग था. यहां हिंदी समझने वालों की कमी नहीं थी मगर ज़्यादातर लोग एक घिसी-पिटी स्टाइल में ही लिख रहे थे. मुझे याद है जब शुरू-शुरू में मैं अपने गीतों को पढ़कर सुनाता था तो कई लोग मुझे अजीब-सी दृष्टि से देखते थे. यह कौन है जो फिल्मी गीतों की जांची-परखी भाषा के साथ छेड़छाड़ कर रहा है? और तब मैं बार-बार यही सुनता था कि जो बिकता है वही टिकता है. पर क्योंकि बेचने और खरीदने से मेरा रिश्ता सर्वविदित और पुराना हो चुका था इसलिए मैं बार-बार विवाद करता और प्रयास करता था कि मैं अपनी तरह की रचनाओं को फिल्मों में जगह दिला पाऊं. मेरा विज्ञापन जगत का अनुभव कई निर्देशकों और निर्माताओं के साथ बहुत काम आया. उन्होंने यह समझ कर मुझे छूट दी कि यह व्यक्ति कम से कम बाज़ार को तो समझता ही है. इसलिए एक अवसर इसे दे देना चाहिए. और इसी तरह धीरे-धीरे रंग दे बसंती, हम-तुम, और तारे जमीं पर के गीत में मैं वह लिख पाया जो मेरी जुबान थी. वह भाषा जिसमें मैं बात कर सकता था, और यहां मैं भाग्यशाली रहा. क्योंकि मुझे फिल्मों से जुड़े ऐसे लोग मिले जो स्वयं नएपन की तलाश में थे. जो स्वयं फार्मूलों को तोड़ना चाहते थे.

भाषा से मैंने पूछा — तुम कहती हो या मैं कहता हूं.
तुम गढ़ती हो या मैं गढ़ता हूं.
भाषा गहरी निद्रा में थी.
उसने लिहाफ थोड़ा और ऊपर खींचा.
और मुंह ढंक लिया
मैंने उसके तलवों में गुदगुदी की
और कुहनी से ठेल कर पूछा…
बताओ ना, सत्य क्या है?
तुम मात्र अभिव्यक्ति हो
या फिर बूंद-बूंद में टपकती हो
मेरी हर रचना में
मस्तिष्क की सीली दीवारों से रिसती हो
मेरे विचारों के पलस्तरों पर
भाषा फिर भी मौन रही.
पर मैं लिखता रहा
शब्द हंसे — मैंने पास जाक र देखा
भाषा के होंठों पर एक मुस्कान थी
बात समझ में आ रही थी,
पर गुत्थी अब तक गुत्थी थी.
31 अक्टूबर 2008
तुम कहती हो या मैं कहता हूं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here