खेल, खिलाड़ी और प्यादे

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आजीवन प्रतिबंध किसी भी खिलाड़ी के लिए सबसे बड़ी सजा माना जाता है. भारतीय खेलों के इतिहास में ऐसे कम ही नाम हैं जिन्हें यह सजा भुगतनी पड़ी हो. यह प्रतिबंध उन्हीं खिलाड़ियों को झेलना पड़ा जिन्होंने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए खेल या देश से धोखा किया हो. मैच फिक्सिंग करना, चयनकर्ताओं को घूस देना या फिर डोपिंग जैसे गंभीर अपराधों के लिए ही किसी खिलाड़ी पर आजीवन प्रतिबंध लगाया जाता है. बीते दिनों मशहूर बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा पर भी आजीवन प्रतिबंध लगाए जाने की घोषणा हुई. यह खबर सारे देश में चर्चा का विषय बनी. इस मामले में हैरान करने वाली बात यह थी कि ज्वाला पर मैच फिक्सिंग, डोपिंग या घूस देने जैसा कोई आरोप नहीं थे. उन पर यह प्रतिबंध भारतीय बैडमिंटन महासंघ (बीएआई) द्वारा अनुशासनहीनता के आरोप में लगाया गया था. यह शायद अपनी तरह का पहला ही मामला था जब इस तरह के आरोप में किसी खिलाड़ी पर आजीवन प्रतिबंध लगाए जाने की बात हुई हो. यही कारण था कि बीएआई के इस फैसले पर कई पूर्व खिलाड़ियों और केंद्रीय मंत्रियों तक ने आपत्ति जताई.

तहलका ने जब इस मामले की पड़ताल की तो कई तथ्य सामने आए. यह मामला सिर्फ एक खिलाड़ी की अनुशासनहीनता या उस पर की गई बीएआई की कार्रवाई का नहीं बल्कि उससे कहीं बड़ा है. इस पड़ताल से यह भी साफ होता है कि बीएआई में कुछ गिने-चुने लोगों का वर्चस्व है जिसका खामियाजा सिर्फ ज्वाला को ही नहीं बल्कि कई अन्य खिलाड़ियों को भी भुगतना पड़ रहा है. ज्वाला ने उसी वर्चस्व को चुनौती देने का साहस किया. नतीजा यह हुआ कि आज ज्वाला और बीएआई दो दुश्मनों की तरह आमने-सामने हैं. इन तमाम मुद्दों पर आगे चर्चा करेंगे, पहले जानते हैं उस मामले को जिसके चलते बीएआई ने ज्वाला पर आजीवन प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव किया.

आईपीएल की तर्ज पर बैडमिंटन में भी इस साल से इंडियन बैडमिंटन लीग (आईबीएल) शुरू की गई थी. आईपीएल की ही तरह यहां भी खिलाड़ियों की नीलामी हुई और कई टीमें बनाई गईं. ज्वाला ‘दिल्ली स्मैशर्स’ टीम की कप्तान बनाई गईं. 25 अगस्त को ज्वाला की टीम का मुकाबला ‘बंगा बीट्स’ नाम की टीम से होना था. बेंगलुरु में होने वाले इस मुकाबले से 40 मिनट पहले ज्वाला को पता चला कि सामने वाली टीम ने अंतिम समय पर अपना खिलाड़ी बदल दिया है. बंगा बीट्स ने अपने एक खिलाड़ी हू युन की जगह डेनमार्क से बुलाए गए खिलाड़ी जॉन जॉगरसन को टीम में खिलाने का फैसला कर लिया था. ज्वाला बताती हैं, ‘यह हमारे लिए चौंकाने वाला था क्योंकि हमें इसकी कोई जानकारी नहीं थी. हमारी तैयारी सामने वाले की टीम के अनुसार थी. मेरे साथ ही टीम के बाकी सभी खिलाड़ियों को भी इसकी कोई जानकारी नहीं थी. मैंने अपनी टीम के ओनर से इस बारे में बात की. उन्होंने बताया कि उन्हें भी इसकी कोई जानकारी नहीं है और वो अभी गवर्निंग काउंसिल से इस बारे में बात करेंगे.’

बैडमिंटन के जानकार बताते हैं कि टीम में खिलाड़ियों को बदलने की एक निर्धारित प्रक्रिया होती है. किसी भी खिलाड़ी को बदलने से पहले गवर्निंग बॉडी और सामने वाली टीम को सूचित करना होता है. साथ ही अंतिम समय में किसी भी बदलाव का ठोस कारण देना भी अनिवार्य होता है. यदि गवर्निंग बॉडी को कारण उचित लगे और वह इसकी अनुमति दे तभी कोई खिलाड़ी बदला जा सकता है. ज्वाला यह भी बताती हैं, ‘जिस खिलाड़ी को सामने वाली टीम ने अंतिम समय पर खिलाने का फैसला किया था उसे डेनमार्क से बुलाया गया था. डेनमार्क इतनी दूर है कि वहां से अचानक तो किसी को बुलाया नहीं जा सकता. साफ है कि सामने वाली टीम ने पहले से ही इसका मन बना लिया था. यह साफ तौर पर नियमों का उल्लंघन था.’ अपनी टीम के ओनर से बात करने के बाद ज्वाला और टीम के अन्य खिलाड़ियों ने यह तय किया कि जब तक यह मामला सुलझ नहीं जाता कोई भी खिलाड़ी मैदान में नहीं जाएगा.

ज्वाला की टीम के मैदान में न उतरने के कारण मैच अपने निर्धारित समय पर शुरू नहीं हो सका. अंततः सामने वाली टीम को खिलाड़ी बदलने के अपने फैसले को वापस लेना पड़ा और तभी मैच शुरू हुआ.

इस घटना के कुछ ही दिनों बाद, 31 अगस्त को बीएआई की मीटिंग में यह तय किया गया कि ज्वाला के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी. चार सितंबर को बीएआई की अनुशासन समिति के अध्यक्ष एस मुरलीधरन ने ज्वाला को एक नोटिस भेजा. इस नोटिस में कहा गया था, ‘मैच के रेफरी श्री गिरीश नातू ने ज्वाला को मैच में हुई देरी के लिए जिम्मेदार माना है. रेफरी ने यह भी कहा है कि ज्वाला ने अपनी टीम के खिलाड़ियों को मैदान में उतरने से रोका जिसके कारण प्रतियोगिता की छवि खराब हुई और बीएआई को सारे विश्व के सामने शर्मिंदा होना पड़ा.’ इस नोटिस में रेफरी के हवाले से यह भी कहा गया कि ज्वाला ने गवर्निंग काउंसिल के उन सदस्यों से भी अपमानजनक तरीके से बहस की जो मामले को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे. इन आरोपों का स्पष्टीकरण मांगते हुए ज्वाला से 14 दिन के भीतर नोटिस का जवाब देने को कहा गया.

इस नोटिस के जवाब में ज्वाला ने 14 सितंबर को अपना स्पष्टीकरण पेश किया. इसमें उन्होंने बताया कि मैच में देरी गवर्निंग काउंसिल द्वारा उनकी आपत्ति पर फैसला लेने में समय लिए जाने के कारण हुई. साथ ही गवर्निंग काउंसिल के सदस्यों से अपमानजनक बहस करने के आरोप को ज्वाला ने सिरे से नकार दिया. इस स्पष्टीकरण को संतोषजनक न पाते हुए बीएआई की अनुशासन समिति ने सात अक्टूबर को एक आदेश जारी कर दिया. इस आदेश में ज्वाला को अनुशासनहीनता का दोषी करार देते हुए कड़ी सजा (बीएआई द्वारा आयोजित सभी खेलों से आजीवन प्रतिबंध अथवा देश में होने वाली किसी भी बैडमिंटन गतिविधि से छह साल के लिए निलंबन) प्रस्तावित की गई थी और उनसे एक बार फिर से स्पष्टीकरण मांगा गया था. इसके अलावा उनका नाम जापान ओपन से भी वापस ले लिया गया था और डेनमार्क तथा फ्रेंच ओपन के लिए उनसे कहा गया कि यदि वे उनमें खेलना चाहती हैं तो उन्हें अपने खर्चे पर ही जाना होगा.
ज्वाला ने इस आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी. 10 अक्टूबर को उच्च न्यायालय ने इस आदेश पर अंतरिम रोक लगाते हुए बीएआई को निर्देश दिए कि आने वाले मैचों में ज्वाला को खेलने की अनुमति दी जाए. साथ ही न्यायालय ने ज्वाला को भी बीएआई को स्पष्टीकरण देने को कहा. न्यायालय के इस आदेश के बाद बीएआई ने एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया. इस समिति को इस मामले में अंतिम फैसला लेने का काम सौंपा गया. इस समिति के अध्यक्ष आनंदेश्वर पांडेय ने ज्वाला को एक और ‘कारण बताओ नोटिस’ जारी किया. इस नोटिस की भाषा से ही समिति के पूर्वाग्रह का अनुमान लगाया जा सकता है. नोटिस में लिखा है, ‘यह कारण बताओ नोटिस तुम्हें जारी किया जा रहा है ताकि न्याय के सिद्धांत की पूर्ति के लिए तुम्हें सुना जा सके और अनुशासन समिति द्वारा प्रस्तावित सजा पर अंतिम निर्णय लिया जा सके.’

अब सवाल उठता है कि आखिर बीएआई की ज्वाला से ऐसी क्या दुश्मनी है जो वह उन पर आजीवन प्रतिबंध तक लगाने को उतारू है. ज्वाला गुट्टा देश की सबसे बेहतरीन डबल्स खिलाड़ियों में से हैं. उन्होंने 2010 राष्ट्रमंडल खेलों के विमेंस डबल्स में स्वर्ण पदक और मिक्स्ड डबल्स में रजत पदक जीता है. 2011 में लंदन में हुई विश्व चैंपियनशिप में उन्होंने कांस्य पदक हासिल किया है और पिछले कुछ सालों में उन्होंने कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खिताब अपनी झोली में डालते हुए देश को गौरवान्वित किया है. फिर बीएआई की उनसे दुश्मनी के क्या कारण हो सकते हैं?

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इनका जवाब ढूंढ़ने के लिए कुछ साल पहले के घटनाक्रमों को समझना जरूरी है. साल 2006 में ज्वाला मेलबर्न राष्ट्रमंडल खेलों से कांस्य पदक जीतकर लौटी थीं. लेकिन इसके तुरंत बाद ही उन्हें टीम से बाहर कर दिया गया. उनसे कहा गया कि अब वे बहुत सीनियर हो गई हैं और उन्हें नए खिलाड़ियों को मौका देना चाहिए. उस वक्त ज्वाला मात्र 22 साल की थीं और देश की सर्वश्रेष्ठ डबल्स खिलाड़ी थीं. वे विश्व रैंकिंग में भी सर्वोच्च 20 में शामिल थीं. उसी साल पुलेला गोपीचंद राष्ट्रीय टीम के कोच बने थे. नए खिलाड़ियों को मौका देने की बात गोपीचंद ने ही ज्वाला से कही थी. जबकि वे खुद 29 साल की उम्र में ऑल इंग्लैंड टूर्नामेंट जीते थे.

राष्ट्रीय टीम का कोच बनने के बाद से ही गोपीचंद पर कई गंभीर आरोप लगते रहे हैं. इनमें अपनी निजी अकादमी के खिलाड़ियों को ज्यादा मौका देने और खिलाड़ियों के बीच भेदभाव करने जैसे आरोप शामिल हैं. नाम न छापने की शर्त पर एक पूर्व बैडमिंटन खिलाड़ी बताते हैं, ‘आज गोपीचंद राष्ट्रीय टीम के कोच हैं. बीएआई और आईबीएल दोनों में उनका जबरदस्त दखल है. वो चयनकर्ताओं में भी हैं और उनकी अपनी निजी अकादमी भी है. वो रंगारेड्डी डिस्ट्रिक्ट बैडमिंटन एसोसिएशन के प्रमुख भी हैं और इंडियन आयल के कर्मचारी भी. इतने सारे पदों पर एक साथ काबिज होना साफ तौर से हितों के टकराव का मामला है. भारतीय टीम में सबसे ज्यादा खिलाड़ी उनकी ही अकादमी से हैं. जब वो निजी अकादमी चला रहे हैं तो एक चयनकर्ता और कोच के रूप में उनको निष्पक्ष कैसे माना जा सकता है?’ पूर्व खिलाड़ी आगे बताते हैं, ‘गोपीचंद पर वित्तीय गड़बडि़यों के भी मामले बनते हैं. जब वो अपनी निजी अकादमी से पैसा कमा रहे हैं तो फिर सरकारी नौकरी कैसे कर सकते हैं? भारतीय खेल प्राधिकरण के कैंप में गोपी को प्रत्येक खिलाड़ी हर दिन लगभग 3000 रुपये का भुगतान करता है. साथ ही वो अपनी अकादमी में बच्चों से बिना कोई रसीद दिए शुल्क लेते हैं. मेरी जानकारी के अनुसार वो प्रत्येक खिलाड़ी से 25 हजार रुपये प्रतिमाह तक लेते हैं.’

पुलेला गोपीचंद एक चयनकर्ता के रूप में भी विवादों से घिर चुके हैं. बीते महीने विमेंस डबल्स खिलाड़ी प्राजक्ता सावंत को राष्ट्रीय टीम में जगह नहीं दी गई थी. सावंत विमेंस डबल्स में देश की दूसरी वरीयता वाली खिलाड़ी हैं. उन्होंने गोपीचंद की अध्यक्षता वाली चयन समिति पर सवाल उठाते हुए अपने साथ भेदभाव करने का आरोप लगाया था. टीम में चयन न होने पर सावंत को मुंबई उच्च न्यायालय तक जाना पड़ा. न्यायालय ने इस संबंध में भारतीय खेल प्राधिकरण और केंद्र सरकार से जवाब तलब किया है. सावंत पहले भी गोपीचंद पर मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगा चुकी हैं. उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि गोपीचंद अपनी अकादमी के खिलाड़ियों को मनमाने तरीके से बढ़ावा देते हैं. तहलका ने गोपीचंद से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं दिया गया.

सावंत ऐसी इकलौती खिलाड़ी नहीं हैं जिन्हें भेदभाव के कारण हाशिये पर धकेला जा रहा हो. देश की सर्वश्रेष्ठ सिंगल्स खिलाड़ी रह चुकी सयाली गोखले को इस आईबीएल की नीलामी में किसी ने नहीं खरीदा. जबकि सयाली वर्तमान चैंपियन पीवी सिंधु तक को हरा चुकी हैं. सयाली से कम रैंकिंग वाले और जूनियर खिलाड़ियों तक को भारी रकम देकर आईबीएल से जोड़ा गया लेकिन सयाली उपेक्षित ही रहीं. सयाली कहती हैं, ‘मेरा करियर खराब करने की साजिश की जा रही है. इसके लिए एक ही शख्स जिम्मेदार है. मैं किसी का नाम नहीं लूंगी वरना मेरी रही-सही उम्मीदें भी खत्म हो जाएंगी.’ जाहिर है उनका इशारा किस व्यक्ति की तरफ है.

आईबीएल में सिर्फ सयाली की ही उपेक्षा नहीं हुई बल्कि अन्य कई वरिष्ठ और जाने-माने खिलाड़ियों को भी इसमें बेइज्जत किया गया. ज्वाला गुट्टा को आईबीएल का आइकॉन खिलाड़ी और प्रचारक भी बनाया गया था. उनका बेस प्राइस 50 हजार डॉलर तय हुआ था. उनके अनुबंध में भी यही रकम दर्ज की गई थी. लेकिन अचानक ही यह रकम घटा कर बिल्कुल आधी कर दी गई. ज्वाला बताती हैं, ‘मुझे बिना बताए यह रकम आधी कर दी गई. मेरे पास अनुबंध है जिसमें दोनों पक्षों के हस्ताक्षर हैं. मैं चाहती तो अदालत जा सकती थी. लेकिन मैंने इसलिए ऐसा नहीं किया क्योंकि मुझे लगता था इस प्रतियोगिता से देश में बैडमिंटन को बढ़ावा और प्रचार मिलेगा. मैं इसकी प्रचारक भी थी. मैंने कई जगह इसके प्रमोशन्स किए और मेरी कई तस्वीरें भी इसके लिए इस्तेमाल की गईं.’ ज्वाला एकमात्र ऐसी खिलाड़ी थीं जिन्होंने खिलाड़ियों की रकम घटाए जाने का खुलकर विरोध किया था.

इंडोनेशियाई बैडमिंटन खिलाड़ी तौफीक अहमद वर्ल्ड और ओलंपिक चैंपियन रह चुके हैं. आईबीएल की बिडिंग प्रक्रिया के बाद वे खासे असंतुष्ट थे. इस पर जब साइना नेहवाल ने यह टिप्पणी की कि उन्हें ज्यादा पैसों की उम्मीद नहीं करनी चाहिए तो ज्वाला ने इसका विरोध किया. उस प्रकरण को याद करते हुए ज्वाला कहती हैं, ‘आईबीएल का आयोजन केवल देसी खिलाड़ियों के लिए नहीं किया गया था. उसमें विदेशी खिलाड़ियों को बुलाया गया था ताकि हमारे खिलाड़ियों को अपनी क्षमताओं का आकलन करने का अवसर मिले. तौफीक वर्ल्ड और ओलंपिक चैंपियन है. अपने देश में उन्हें सचिन तेंडुलकर जैसी ही लोकप्रियता हासिल है. कम से कम साइना जैसी सीनियर खिलाड़ी को उनका अपमान नहीं करना चाहिए था. आप बताओ सचिन तेंडुलकर के बारे में कोई ऐसे बात करेगा तो अच्छा लगेगा आपको?’

ज्वाला इसके अलावा भी कई बार खिलाड़ियों के पक्ष में खुलकर बीएआई का विरोध कर चुकी हैं जिसके कारण वे उन लोगों की आंखों में खटकने लगी थीं जो एक तरह से बीएआई के पर्यायवाची बन चुके हैं. अपने हालिया विवाद से जुड़े एक दिलचस्प तथ्य के बारे में ज्वाला बताती हैं, ‘अनुशासन समिति के अध्यक्ष एस मुरलीधरन मुझसे कहते हैं कि तुम बीएआई के अध्यक्ष अखिलेश दासगुप्ता से माफी मांग लो तो तुम पर लगा आजीवन प्रतिबंध खत्म किया जा सकता है. यह कैसा आजीवन प्रतिबंध है जो मेरी एक माफी से खत्म हो जाएगा?’

ज्वाला का सवाल सच में महत्वपूर्ण है. पहले एक खिलाड़ी पर आजीवन प्रतिबंध लगाया जाता है. फिर उसे कहा जाता है कि माफी मांगने से प्रतिबंध खत्म हो जाएगा. इससे इतना तो साफ होता है कि यह मामला खिलाड़ी की गलती का नहीं बल्कि किसी भी तरह उसे नियंत्रित करने का है. ज्वाला के विद्रोही तेवर इस बात को और भी मजबूती देते हैं.

ज्वाला के इस हालिया विवाद में यदि एक बार मान भी लिया जाए कि सारी गलती ज्वाला की ही है, उनके ही कारण खिलाड़ी मैदान में नहीं आए और मैच में देरी हुई, तो भी क्या इस गलती की सजा आजीवन प्रतिबंध हो सकती है? ज्वाला के इस प्रसंग से 1999 का एक क्रिकेट मैच याद आता है. 23 जनवरी 1999 को श्रीलंका और इंग्लैंड के बीच एक वन-डे मैच खेला जा रहा था. मैच के अंपायर रौस एमर्सन थे. उन्हें श्रीलंकाई गेंदबाज मुरलीधरन के गेंदबाजी करने के तरीके पर आपत्ति थी. जबकि मुरलीधरन की गेंदबाजी को आईसीसी की विशेषज्ञ समिति पहले ही सही ठहरा चुकी थी. इसके बावजूद भी अंपायर एमर्सन ने मुरलीधरन की गेंदबाजी को ‘नो बॉल’ करार दे दिया. उस वक्त श्रीलंका के कप्तान अर्जुन रणतुंगा थे. उन्होंने अंपायर के इस फैसले को मानने से इनकार किया और इसके विरोध में अपनी पूरी टीम को लेकर मैदान से बाहर आ गए.

इसे क्रिकेट के मुकाबले बैडमिंटन की उपेक्षा कहें या क्रिकेट खिलाड़ियों के मुकाबले बैडमिंटन खिलाड़ियों की. एक तरफ रणतुंगा के उस कदम को साहसिक मानते हुए आज भी याद किया जाता है तो दूसरी तरफ ज्वाला गुट्टा एक ऐसे ही कदम के लिए आजीवन प्रतिबंध की कार्रवाई झेल रही हैं.