राजा ने लूटी रंकों की रोटी

यह किसी केंद्रीय मंत्री और बड़े औद्योगिक घराने के बीच हुए अनैतिक लेन-देन की कहानी नहीं है. यह कहानी है हमारे समाज के सबसे वंचित और शोषित तबके के मुंह से निवाला छीनने की. यह कहानी राजनीति, अपराध और भ्रष्टाचार के गंदे गठजोड़ की है. करीब डेढ़ महीने पहले उम्मीद की साइकिल पर सवार होकर अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल की थी. जब उन्होंने डीपी यादव को पार्टी का टिकट देने से मना किया तो लोगों में उनके सुशासन के दावों के प्रति विश्वास की लहर पैदा हो गई थी. मगर उन्होंने राजा भैया को जेल और खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री बना कर उस लहर की तीव्रता को खत्म-सा कर दिया है. जिस खाद्य और आपूर्ति विभाग की जिम्मेदारी राजा भैया को सौंपी गई है उसी विभाग में पिछली बार उन्होंने ऐसा कारनामा किया था कि उन्हें किसी भी विभाग का मंत्री बनाने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. इस कहानी में तहलका उनके कारनामों के जिन पुख्ता सबूतों का जिक्र करने जा रहा है, उन्हें देखने के बाद स्पष्ट है कि उनकी सही जगह जेल में है, जेल मंत्री के ऑफिस में नहीं.

राजा भैया के बेहद करीब रहे उनके एक सहयोगी ने सीबीआई और सर्वोच्च न्यायालय के सामने चौंकाने वाले रहस्योद्घाटन किए हैं. उनका कहना है कि अपनी पिछली पारी में राजा भैया ने एक बेहद व्यवस्थित अवैध तंत्र की मदद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अनाज आदि की जमकर लूटपाट की. राजा भैया के इस सहयोगी का दावा है कि इस अनाज की अवैध बिक्री से उन्होंने 4 साल में करीब 100 करोड़ रुपये बनाए. अपने दावे को सच्चा साबित करने के लिए इस गवाह ने एक सनसनीखेज डायरी  भी सीबीआई को दी है जिसमें बड़ी तरतीब से अवैध धन के लेन-देन को दर्ज किया गया है. सबसे ज्यादा विस्फोटक बात यह है कि इस गवाह का दावा है कि अवैध धन की हर प्रविष्टि के नीचे राजा भैया की पत्नी के हस्ताक्षर भी हैं.

बीते साल के दिसंबर महीने की बात है. 38 वर्षीय राजीव यादव लखनऊ के हजरतगंज में स्थित सीबीआई दफ्तर पहुंचे. यादव कुछ साल पहले तक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया के जनसंपर्क अधिकारी हुआ करते थे. उन्होंने वहां सीबीआई अधिकारियों को एक डायरी की प्रति सौंपी. यह डायरी यादव और सचिवालय के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी अशोक कुमार ने साल 2004 से 2007 के बीच तैयार की थी. उस वक्त ये दोनों राजा भैया के आधिकारिक स्टाफ का हिस्सा हुआ करते थे. राजा भैया तब मुलायम सिंह यादव की सरकार में खाद्य और आपूर्ति विभाग के काबीना मंत्री थे.

लगभग चार साल तक यादव और अशोक पूरी सावधानी से डायरी में उस पैसे का हिसाब-किताब लिखते रहे जो राशन की दुकानों को मिलने वाले रियायती अनाज और केरोसिन आदि की चोरी के बाद उन्हें बेचने से मिला करता था. विभाग का मंत्री होने के नाते राजा भैया की यह जिम्मेदारी थी कि वे सार्वजनिक वितरण विभाग के काम-काज पर नजर रखते और अनाज आदि की पहुंच ईमानदारी से शहरी और ग्रामीण गरीबों तक सुनिश्चित करते. जिस तबके के लिए यह सुविधा है उसका ज्यादातर हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करता है. ‘चोरी का यह राशन या तो बांग्लादेश और नेपाल में तस्करी के जरिए भेजा जाता था या फिर पड़ोसी राज्यों में बेच दिया जाता था’, यादव सीबीआई को दिए शपथपत्र में कहते हैं.

यादव के मुताबिक सारा पैसा राजा भैया के चार सहयोगी अक्षय प्रताप सिंह उर्फ गोपाल सिंह (ये उस वक्त प्रतापगढ़ से सपा के सांसद थे), यशवंत सिंह (तत्कालीन एमएलसी), जयेश प्रसाद और रोहित सिंह (राजा भैया का ड्राइवर) इकट्ठा करते थे. यह सारा पैसा लाकर चारों यादव को सौंप देते थे. तब यादव अक्सर राजा भैया के लखनऊ स्थित शाहनजफ रोड वाले आधिकारिक आवास में रहा करते थे.

राजा भैया के करीबी रहे राजीव यादव ने सीबीआई को एक डायरी सौंपी है जिसमें उनके अवैध लेन-देन का लेखा-जोखा हैं. इस पर राजा भैया की पत्नी के हस्ताक्षर भी हैं

अखिलेश यादव के साफ-सुथरी सरकार के दावों के बावजूद राजा भैया एक बार फिर से उसी खाद्य और आपूर्ति विभाग के मंत्री बना दिए गए हैं. ‘2004 में मंत्री बनने के बाद मंत्री जी ने मुझसे कहा कि हर महीने के पहले हफ्ते में उक्त चारों व्यक्ति वितरण विभाग के अधिकारियों और माफियाओं से इकट्ठा की गई रकम मुझे सौंपेंगे. मुझे यह सारा पैसा मंत्री जी की पत्नी भान्वी कुमारी को सौंपना था’, यादव  तहलका को बताते हैं.

कुमारी को पैसा सौंपने से पहले यादव सारे पैसे का लेखा-जोखा एक डायरी में दर्ज कर लेते थे. ‘हिसाब-किताब दुरुस्त रखने और किसी तरह के विवाद से बचने के लिए जो भी पैसा दर्ज होता था उस पर भान्वी कुमारी अक्सर दस्तखत भी कर दिया करती थीं’, यादव ने सीबीआई के एसपी संजय रतन को यह बात पिछले साल दिसंबर में बताई थी. इसके तीन महीने बाद यादव ने अंदर तक हिला देने वाली यह कहानी तहलका को सुनाई.

डायरी में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक राजा भैया ने 2006 से 2007 के बीच 15 महीनों के दौरान अनाज और मिट्टी के तेल की तस्करी, अपने विभाग के अधिकारियों की नियुक्ति और स्थानांतरण और माप-तौल विभाग से मिलने वाली एक निश्चित रकम को मिलाकर करीब 40 करोड़ रुपये कमाए. राजा भैया लगभग 40 महीने तक मंत्री रहे. अगर पंद्रह महीनों में 40 करोड़ के आंकड़े को मानक मानें तो अपने मंत्रित्वकाल में उन्होंने गरीबों के लिए जारी किए गए अनाज और मिट्टी के तेल की चोरी करके कम से कम 100 करोड़ रुपये तो कमाए ही होंगे.

यादव के मुताबिक पैसा मिलने के बाद तुरंत ही इसे भान्वी कुमारी को सौंपना पड़ता था. जब तहलका ने यादव से पूछा कि पैसा सीधे-सीधे कुमारी को क्यों नहीं दिया जाता था तो उनका जवाब था कि राजा भैया के परिवार में महिलाएं बाहरी लोगों के साथ बातचीत नहीं करती हैं. इसीलिए इस काम के लिए उसे इस्तेमाल किया जाता था. ‘इसके अलावा शायद राजा भैया को यह ठीक नहीं लगता होगा कि उनकी पत्नी इस तरह के लेन-देन में शामिल हो’, यादव कहते हैं.

इस पैसे का कुछ हिस्सा अचल संपत्ति और कारें खरीदने में लगाया गया. यादव ने ऐसी दो संपत्तियों की जानकारी दी है. नई दिल्ली के ग्रीन पार्क में एक बंगला और एक लखनऊ के एमजी रोड पर.

‘2004-05 में रामजानकी नाम से एक ट्रस्ट का पंजीकरण इलाहाबाद में करवाया गया. इसमें राजा भैया और उनके परिजन ट्रस्टी थे. कुछ पैसा इस ट्रस्ट के नाम ट्रांसफर कर दिया गया जिससे एमजी मार्ग पर स्थित 214 नंबर के बंगले को लीज पर लिया गया. 2007 में दिल्ली के ग्रीन पार्क एक्सटेंशन में राजा की पत्नी भान्वी कुमारी के नाम से 7-बी नंबर का बंगला खरीदा गया’, यादव ने अपने शपथपत्र में बताया है.

कथित तौर पर राजा ने इस काले धन में से कुछ को सफेद बनाने का एक नायाब तरीका भी ईजाद कर रखा था. यादव ने अपने शपथपत्र में फर्जी जीवन बीमा पॉलिसी और बैंक खातों का जिक्र किया है जो राजा भैया और उनके परिवार द्वारा चलाए जा रहे निजी स्कूलों के अध्यापकों और दूसरे कर्मचारियों के नाम पर हैं. ‘इन बीमा पॉलिसियों में चार सालों के दौरान 7.5 करोड़ रुपयों का निवेश किया गया जिसे  अवधि पूरा होने पर राजा के परिजनों को सौंप दिया गया. ऐसी ही एक पॉलिसी मेरे नाम पर भी थी’, यादव ने यह बात सीबीआई के समक्ष पेश अपने शपथपत्र में कही है. यादव ने सीबीआई को उस बीमा कंपनी और एजेंट के नाम भी बताए हैं जिनसे ये पॉलिसियां ली गई थीं.

सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दर्ज है जिसमें कोर्ट की निगरानी में इस घोटाले की जांच की मांग की गई है. यह शपथपत्र अब उसी याचिका का हिस्सा है. इसी शपथपत्र में यादव ने बताया है कि इस पैसे से राजा भैया ने लेक्सस, फोर्ड एंडेवर, टोयटा फॉर्चुनर और मित्शुबिशी पजेरो जैसी लग्जरी गाड़ियां खरीदीं जिनमें से ‘अधिकतर कारें फर्जी नामों से खरीदी गई थीं.’

डायरी के मुताबिक राजा भैया ने 2006 से 2007 के बीच 15 महीनों के दौरान अनाज, चीनी और मिट्टी के तेल की तस्करी से करीब 40 करोड़ रुपये बनाए

यह सनसनीखेज डायरी भी अब सुप्रीम कोर्ट में पहुंच चुकी है. तहलका के पास भी इस डायरी की एक कॉपी है. इसमें अलग-अलग जिलों से मिले पैसों का तारीख दर तारीख विवरण है. डायरी में अलग-अलग कॉलम में अलग-अलग स्रोतों से मिले पैसे का जिक्र है. उदाहरण के तौर पर डायरी का एक पेज चार कॉलम में बंटा है. इसका शीर्षक है पीडीएस यानी जन वितरण प्रणाली. इस पन्ने पर लखनऊ, मुरादाबाद, कानपुर और बरेली डिवीजन से आए पैसे का ब्यौरा है. इसके मुताबिक जनवरी से जुलाई 2006 के दौरान रियायती अनाज की चोरी करके लखनऊ, मुरादाबाद और कानपुर से 58 लाख रुपये वसूले गए. उसी पन्ने पर बरेली से फरवरी से जुलाई, 2006 के बीच वसूली गई रकम थी 13.6 लाख रुपये. अगले पन्ने पर फरवरी से जुलाई, 2006 के बीच मेरठ, सहारनपुर, इलाहाबाद और वाराणसी डिवीजन से इकट्ठा किए गए 13.5 लाख रुपये का जिक्र है. इसके अगले पन्ने पर गोरखपुर, बस्ती और देवीपाटन जिलों से मिले 40.70 लाख रुपये दर्ज हैं.

एक और पन्ने पर माप-तौल विभाग से आने वाले  धन का विवरण है. इसके मुताबिक मई से दिसंबर, 2006 के बीच प्रति महीने चार लाख रुपये मिले. एक पन्ने पर लखनऊ के रीजनल मार्केटिंग अधिकारी द्वारा दी गई मासिक रकम का विवरण है.

रीजनल मार्केटिंग अधिकारी का काम है राज्य सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से की जा रही चावल और गेहूं की खरीद की निगरानी करना. इस खरीद का मकसद है छोटे किसानों की उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद कर उनकी सहायता करना.

लेकिन यादव के मुताबिक राजा भैया के दौर में किसानों से ज्यादातर खरीद सिर्फ कागजों पर हुई. ‘तरीका बहुत आसान था. जिन मिल मालिकों के ऊपर छोटे किसानों से अनाज खरीदने की जिम्मेदारी थी वे या तो फर्जी खरीद की एंट्री करवा देते थे या फिर कभी-कभी वितरण विभाग से चुराए गए अनाज को खरीद के रूप में दिखा दिया जाता था. इसके एवज में मिल मालिक को सरकार चेक दे देती थी और मिल मालिक मंत्रीजी को उनका हिस्सा पहुंचा देते थे’ यादव ने तहलका को बताया.

तहलका ने राजा भैया के दफ्तर में फोन करके पूरी स्टोरी उन्हें बताई और उनसे इस संबंध में स्पष्टीकरण मांगा. पर राजा भैया ने खुद जवाब देने की बजाय अपने जनसंपर्क अधिकारी ज्ञानेंद्र सिंह की मार्फत जवाब देना उचित समझा. ‘यह सच है कि यादव पिछले कार्यकाल में मंत्री जी के जनसंपर्क अधिकारी थे. पर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था. कोई अपनी डायरी में कुछ भी लिख सकता है. वो दुर्भावना के चलते ऐसा कर रहे हैं’, सिंह ने तहलका को बताया.

जब तहलका ने उनसे पूछा कि क्या कोई राजा भैया की पत्नी के हस्ताक्षर भी कर सकता है, तो सिंह का जवाब था कि यह जांच का विषय है.

यादव प्रतापगढ़ के गोतनी गांव के रहने वाले हैं. यह गांव राजा भैया के पैतृक गांव बेंती से छह किलोमीटर दूर है. यादव के मुताबिक वे राजा भैया के साथ 1993 से जुड़े हुए हैं. तहलका ने उनके इस दावे की जांच की. उत्तर प्रदेश पुलिस के रिकॉर्ड बताते हैं कि यादव 1993 से राजा भैया के सक्रिय सहयोगी रहे थे. इसी साल राजा भैया पहली बार विधायक बने थे.

राजा भैया और उनके लोगों पर चल रहे तमाम आपराधिक मामलों में यादव भी नामजद हैं. इनमें गैंगस्टर ऐक्ट से लेकर हत्या तक के मामले शामिल हैं. तहलका ने अपनी पड़ताल में पाया कि यादव को 2004 में राजा भैया के काबीना मंत्री बनने के साथ ही उनका जनसंपर्क अधिकारी नियुक्त किया गया था. तब से लेकर 2007 तक वे राजा भैया के जनसंपर्क अधिकारी बने रहे.

यादव को लगातार सरकारी खाते से मासिक वेतन मिलता रहा. (तहलका के पास यादव के एसबीआई बैंक वाले उस खाते की जानकारी है जो सिविल सेक्रेटरिएट ब्रांच लखनऊ में है. इस खाते में हर महीने सचिवालय प्रशासनिक विभाग द्वारा वेतन जमा किया जाता था).

यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यादव का राजा से मोहभंग कब और कैसे हुआ. यह भी स्पष्ट नहीं हो सका है कि इतने सालों बाद अब यादव ने अपना मुंह क्यों खोला. यादव तहलका को सफाई में बताते हैं कि उन्होंने ऐसा अपनी अंतरात्मा की आवाज पर किया क्योंकि गरीब और बेसहारा लोगों का हक मार कर इकट्ठा की गई संपत्ति उनके मन पर बोझ बन गई थी.

मौजूदा वित्त वर्ष में भारत सरकार ने देश से भूख मिटाने के लिए 75,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी अनाज पर दी है. देश का सबसे अधिक जनसंख्या वाला राज्य उत्तर प्रदेश इसका सबसे बड़ा हिस्सा पाता है. जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत उत्तर प्रदेश को 2001 से 2011 के बीच एक लाख करोड़ का अनुदान केंद्र सरकार ने दिया है. पीडीएस के अलावा अन्त्योदय, मिडडे मील, बीपीएल और एपीएल के तहत राज्य सरकारों को केंद्र सरकार सब्सिडी देती है.

दिसंबर, 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पीडीएस और अनाज वितरण में व्यापक भ्रष्टाचार को देखते हुए कोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच के आदेश जारी किए

संपूर्ण रोजगार योजना जिसका नाम बाद में महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) कर दिया गया था और काम के बदले अनाज योजना को यदि छोड़ दिया जाए तो उपर्युक्त सभी योजनाओं को लागू करने और निगरानी करने की जिम्मेदारी सीधे खाद्य और आपूर्ति विभाग की है.

यादव ने तहलका को बताया कि पीडीएस और दूसरी योजनाओं के तहत आने वाले गेहूं और चावल को चुराकर या तो खुले बाजार में बेच दिया गया या फिर उन्हें तस्करी के जरिए नेपाल और बांग्लादेश में बेच दिया गया. खुले बाजार में चुराए गए चावल की कीमत 20-35 रुपये प्रति किलो और गेंहू की कीमत 20-25 रुपये प्रति किलो तक वसूली गई.

‘हर महीने मंत्री जी जिले के अधिकारियों की एक मीटिंग लिया करते थे. जो अधिकारी ज्यादा पैसा देते थे वे कम पैसा देने वालों से बेहतर माने जाते थे. इन अधिकारियों के ट्रांसफर और उनकी पोस्टिंग उनकी पैसा इकट्ठा करने की क्षमता के आधार पर किए जाते थे’, यादव तहलका को बताते हैं. उन्होंने ऐसे चार अधिकारियों के नाम अपने हलफनामे में शामिल किए हैं जिन्हें भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों और विभागीय कार्रवाइयों की सिफारिशों के बावजूद पदोन्नतियां दे दी गई यादव के मुताबिक, ‘रीजनल मार्केटिंग अधिकारी वीके सिंह, जिला आपूर्ति अधिकारी(डीएसओ) रामपलट पांडेय, डीएसओ छत्तर सिंह और मार्केटिंग इंस्पेक्टर वीवी सिंह को उनके खिलाफ लंबित विभागीय जांचों के बावजूद पदोन्नति दे दी गई.’

इस घोटाले के संबंध में 2004 से लेकर अब तक इलाहाबाद हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में जितनी भी जनहित याचिकाएं दायर हुई हैं उनके हिसाब से कम से कम एक लाख करोड़ रुपये का घपला हुआ है. मायावती के शासनकाल में इस घोटाले को आंशिक तौर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष स्वीकार किया गया और राज्य सरकार 2007 के अंत में इस मामले की सीबीआई जांच कराने के लिए राजी हो गई थी.

वर्ष 2002 से लेकर 2007 तक यानी मुलायम सिंह यादव और मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में यह घोटाला अपने चरम पर था (राज्य में बहुजन समाज पार्टी की सरकार मई, 2002 से लेकर अगस्त, 2003 तक रही. उसके बाद मई, 2007 के मध्य तक मुलायम सिंह का शासन रहा).

लखनऊ के सामाजिक कार्यकर्ता विश्वनाथ चतुर्वेदी का कहना है, ‘यह ठीक है कि घोटाला बीएसपी और एसपी की देन है. लेकिन इसके लिए कांग्रेस भी बराबर की जिम्मेदार है क्योंकि सब्सिडी का आवंटन उसी ने किया है. एफसीआई के गोदामों की व्यवस्था करने और राज्य के निगमों को अनाज आवंटन के मामले में कांग्रेस सीधे-सीधे जिम्मेदार है. हतप्रभ करने वाली बात तो यह है कि केंद्र सरकार ने 2004 में घोटाला सामने आने के बाद से लेकर अब तक इस मामले में अपने रुख को स्पष्ट करने वाला एक भी शपथपत्र दाखिल नहीं किया है.’

यह घोटाला पहली बार 2004 में एक अधिकारी के साहस की वजह से उजागर हुआ था. वर्ष 2004 के नवंबर में खाद्य और सार्वजनिक आपूर्ति विभाग के विशेष सचिव एचएस पांडेय ने एक विभागीय जांच की थी. इस जांच में उन्होंने पाया कि गोंडा जिला प्रशासन के रिकॉर्ड में वर्ष 2001 से 2004 के बीच संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना और बीपीएल के तहत आवंटित 457 करोड़ रुपये के अनाज का कोई हिसाब-किताब ही नहीं था. हालांकि कागजों में जिले के 14 प्रखंडों को अनाज दिए जाने का विवरण था, मगर इसके बाद वह अनाज कहां गया इसका कोई अता-पता नहीं था.

हैरत तो यह है कि जिले के जिम्मेदार अधिकारियों मसलन परियोजना विकास अधिकारी और मुख्य विकास अधिकारी ने गायब अनाज के उपयोग का  प्रमाण-पत्र भी जारी कर दिया था. इस प्रमाण-पत्र का सीधा मतलब होता है कि खरीदा गया अनाज पूरी तरह से जरूरतमंदों और योग्य लोगों के बीच वितरित कर दिया गया है. इन प्रमाण-पत्रों को वरिष्ठ अधिकारियों मसलन आयुक्त, उपायुक्त और खाद्य और सार्वजनिक आपूर्ति विभाग के विशेष सचिवों से सत्यापित करवाने के बाद केंद्र सरकार को भेज दिया गया.

पांडेय की रिपोर्ट ने राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया था. चारों ओर से दबाव बनने के बाद मुख्यमंत्री मुलायम सिंह ने सीबीआई जांच के आदेश दे दिए. लेकिन कुछ ही हफ्तों के बाद उन्होंने जांच के आदेश को वापस ले लिया. लेकिन जब चतुर्वेदी इस मामले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में लेकर चले गए और इस मामले की सीबीआई जांच की मांग की तब सरकार के लिए स्थिति हास्यास्पद हो गई. मुलायम सरकार कोर्ट को इस बात का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाई कि उसने एक बार सीबीआई जांच का आदेश देने के बाद उसे वापस क्यों ले लिया. इसकी बजाय सरकार ने एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन कर दिया.

एसआईटी का कभी हिस्सा रहे एक अधिकारी ने तहलका को बताया कि एसआईटी असल में अधिकारियों को सजा देने का जरिया बन गया है. अधिकारी के अनुसार, ‘एसआईटी के पास न तो इतने संसाधन हैं और न ही वह इतने बड़े घोटाले की जांच कर पाने में सक्षम है. यह घोटाला 2001 से चल रहा है और इसका दायरा पूरे प्रदेश में फैला हुआ है.’ न्यायालय समय-समय पर एसआईटी जांच की सुस्त रफ्तार पर अपनी नाराजगी व्यक्त करता रहा है.

राजा भैया के दौर में किसानों से सिर्फ कागजों पर अनाज खरीदा गया. कभी-कभी वितरण विभाग से चुराए गए अनाज को खरीद के रूप में दिखा दिया गया

दिसंबर, 2007 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सभी जिलों में अनाज घोटाले की सीबीआई जांच के आदेश दे दिए. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सीबीआई ने ऐसा करने में अपनी असमर्थता जताते हुए केवल तीन जिलों- बलिया, लखीमपुर खीरी और सीतापुर- की जांच शुरू कर दी.

इस बीच उत्तर प्रदेश की जन वितरण प्रणाली में व्याप्त भयंकर भ्रष्टाचार और माफिया, नेता व  नौकरशाहों के बीच बने मजबूत गठजोड़ से जुड़े सबूत सामने आते रहे. दिसंबर, 2010 में इलाहाबाद हाई कोर्ट की दो जजों की पीठ ने पीडीएस और अनाज वितरण से जुड़ी तमाम योजनाओं में व्यापक भ्रष्टाचार को देखते हुए कोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच के आदेश जारी किए. कोर्ट ने सीबीआई को अपनी जांच का दायरा बढ़ाकर इसमें तीन अन्य जिलों- गोंडा, लखनऊ और वाराणसी- को भी शामिल करने का आदेश दिया. अपने फैसले में कोर्ट ने यह भी कहा कि जिन मामलों में एसआईटी को राज्य या देश से बाहर तस्करी के सबूत मिले हैं उन्हें सीबीआई के सुपुर्द कर दिया जाए. कोर्ट ने पाया कि राज्य सरकार अधिकारियों की जांच और उन पर मुकदमे चलाने के लिए जरूरी अनुमति देने में आनाकानी करके जांच की राह में बाधा खड़ी कर रही है.  इसलिए जांच को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए कोर्ट ने इस मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि सीबीआई और राज्य एजेंसियों को इस मामले में सरकार से किसी तरह की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है. कोर्ट के आदेश से लैस सीबीआई ने अपनी जांच के दायरे में गोंडा, लखनऊ और वाराणसी को भी शामिल कर लिया लेकिन जांच की रफ्तार सुस्त की सुस्त बनी रही.

आज की तारीख तक सीबीआई ने इस मामले में सिर्फ दो आरोप पत्र दाखिल किए हैं जिनमें सिर्फ निचले स्तर के अधिकारियों को मात्र दो मामलों में आरोपित बनाया गया है (सिर्फ ओपी गुप्ता नाम के पूर्व विधायक की गिरफ्तारी को छोड़कर).

इस मामले को लटकाने में सिर्फ सीबीआई की  भूमिका नहीं है. पिछली मायावती सरकार ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. सरकार को पहली दिक्कत कोर्ट की निगरानी में जांच से थी, इसके अलावा उसे सरकारी आज्ञा के बिना सरकारी कर्मचारियों की जांच और उन्हें गिरफ्तार करने के कोर्ट के आदेश से भी परेशानी थी. सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल, 2011 में उच्च न्यायालय के आदेश पर स्टे लगा दिया है. तब से जांच जहां की तहां अटकी हुई है.

हाल में याचिकाकर्ता चतुर्वेदी ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष याचिका दायर करके मांग की है कि सीबीआई राजनीतिक दबावों के चलते इस मामले की जांच में हीलाहवाली कर रही है लिहाजा पूरे मामले की जांच कोर्ट की निगरानी में करवाई जाए. यादव के शपथपत्र को चतुर्वेदी ने अपने आवेदन का हिस्सा बनाया है. मामले की सुनवाई इस हफ्ते किसी दिन हो सकती है. इस बीच सीबीआई ने सत्ता में बैठे लोगों पर दो बार छापे मारे हैं.

पिछले साल दिसंबर में सीबीआई ने वरिष्ठ सपा नेता विनोद कुमार सिंह उर्फ पंडित सिंह के दफ्तर और आवास पर छापे मारे थे. पंडित इस समय राजस्व मंत्री हैं. इसके बाद फरवरी महीने में सीबीआई ने दलजीत सिंह के खिलाफ छापे की कार्रवाई की. दलजीत उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं.

अनाज घोटाले की जांच में हो रही देरी की अगर कोई एक वजह ढूंढ़ी जाए तो शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि इस मामले में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों के हाथ काले हैं. कोई भी सरकार, चाहे वह केंद्र की हो या राज्य की इस मामले की जांच को आगे नहीं बढ़ाना चाहती है.

पिछले महीने जब अखिलेश यादव ने सूबे की सत्ता संभाली थी तब उन्होंने तमाम जन दबावों और विरोधों को दरकिनार करते हुए राजा भैया को काबीना मंत्री के तौर पर अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था. उनका जवाब था कि राजा भैया के खिलाफ सारे आरोप पूर्ववर्ती मायावती सरकार ने दुर्भावना के तहत लगाए  हंै. लेकिन यह स्टोरी किसी विपक्षी खेमे से नहीं छपी है, यह विशुद्ध प्रमाणों और अंदरूनी लोगों की जुबानी पर आधारित है.

अगर नए मुख्यमंत्री इतने पुख्ता सबूतों को नजरअंदाज करते हैं तो उनके साफ-सुथरे और ईमानदार होने के दावे का क्या होगा? (वीरेंद्रनाथ भट्ट के सहयोग के साथ)

 

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