मरते मुलाजिम

केस- एक
भारतीय पुलिस सेवा के 2002 बैच के अफसर एवं बिलासपुर जिले में पुलिस कप्तान की हैसियत से तैनात राहुल शर्मा ने इस साल 12 मार्च, 2012 को खुदकुशी कर ली थी. उन्होंने पुलिस ऑफिसर्स मेस में अपनी सर्विस रिवॉल्वर से खुद को गोली मारी थी. तब उनकी पत्नी गायत्री शर्मा ने सीधे तौर पर यह आरोप लगाया था कि उनके पति को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दिया जा रहा था. वैसे पुलिस ने जो सुसाइड नोट बरामद किया था उसमें भी उल्लेख था कि हद से ज्यादा अड़चन पैदा करने वाले बॉस और एक हठधर्मी जज ने उनकी शांति छीनी हुई है. अड़चन पैदा करने वाले बॉस के तौर पर शक की सुई एक वरिष्ठ पुलिस अफसर जीपी सिंह की ओर घूमी, जबकि हठधर्मी जज के बारे में कहा गया कि उसने शहर की यातायात व्यवस्था में सुधार को लेकर राहुल शर्मा को बुरी तरह प्रताड़ित किया था. आत्महत्या से पहले राहुल शर्मा ने चुनावी फंड एकत्रित करने के लिए दबाव बनाए जाने का जिक्र भी किया था. फेसबुक पर एक मित्र से बातचीत में उन्होंने लिखा था, ‘यार बहुत बेगार करवाते हैं. कोई सेल्फ रिसपेक्ट ही नहीं है. इलेक्शन के खर्चों का टारगेट अभी से दे दिया है. क्या इसलिए इतनी पढ़ाई करके आईपीएस बना था.’ पिछले नौ महीने से सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है, लेकिन गुत्थी अब भी सुलझी नहीं है.

केस- दो
16 मार्च, 2012 को बिलासपुर जिले के पंचायत विभाग में पदस्थ एक परियोजना अधिकारी मंजू मेहता ने अपने निवास में फांसी लगा ली थी. विभाग में पदस्थ कुछ कर्मी नाम न छापने की शर्त पर बताते है कि मंजू की मौत की जड़ में उनकी अपनी ईमानदारी ही थी. कर्मचारी बताते हैं कि मंजू अपने दो विकलांग भाइयों के साथ-साथ अपनी अशक्त मां की ठीक-ठाक देखरेख कर रही थीं कि उनका तबादला बिलासपुर से 20 किलोमीटर दूर मस्तूरी स्थित जनपद पंचायत में कर दिया गया. यहां उन्हें कार्यपालन अधिकारी के तौर पर कार्य करने का मौका मिला, लेकिन थोड़े ही दिनों बाद उनसे फिर बिलासपुर में शिफ्ट होने के लिए कह दिया गया. अपनी नई पदस्थापना और तरक्की से खुश मंजू बिलासपुर लौटीं तो जरूर लेकिन यहां उससे कार्यपालन अधिकारी के बजाय सहायक परियोजना अधिकारी के तौर पर कार्य लिया जाने लगा. कर्मचारियों की मानें तो मंजू जैसे-तैसे काम तो करती रहीं लेकिन योग्यता और क्षमता पर सवाल खड़ा होता हुआ देख अंतत: उन्होंने आत्महत्या कर ली.

छत्तीसगढ़ में योग्य, ईमानदार और स्वाभिमानी अफसर-कर्मचारियों के प्रताड़ित होने के बाद मौत को गले लगा लेने के अकेले ये दो मामले नहीं हंै. प्रशासन में पारदर्शिता की कमी, भ्रष्टाचार और कार्यस्थल पर तनाव के चलते अफसर और कर्मचारी लगातार ऐसे आत्मघाती कदम उठा रहे हैं. एयरफोर्स में लंबे समय तक वारंट अफसर के पद पर पदस्थ रहे सूर्यकांत वर्मा की बेवा कृष्णा वर्मा का बयान यह समझने के लिए काफी है कि छत्तीसगढ़ में अफसरों और कर्मचारियों को ऐसे कदम उठाने के लिए क्यों बाध्य होना पड़ रहा है.

‘फोर्स से रिटायर होने के बाद जब मेरे पति को जिला सैनिक कल्याण बोर्ड में वेलफेयर आर्गेनाइजर की नौकरी मिली तब भी वे खुश थे. लेकिन जल्द ही हमारी खुशियों को किसी की नजर लग गई. वर्ष 2007 में उनका तबादला रायपुर से जगदलपुर कर दिया गया. इस बीच वे दो-तीन महीनों में जैसे-तैसे समय निकालकर मुझसे और बच्चों से मिलने के लिए रायपुर आते-जाते थे. एक रोज उन्होंने बताया कि राममूर्ति पांडेय नाम के किसी आदमी ने भूतपूर्व सैनिकों और उनकी विधवाओं से पैसे की वसूली के नाम पर उनके खिलाफ झूठी शिकायत की है. इस शिकायत के बाद वे खामोश रहने लगे और फिर एक रोज…’

इतना कहते-कहते कृष्णा वर्मा रोने लगती हैं. फिर कुछ देर बाद खुद को संभालते हुए वे कहती हैं, ‘एक फौजी जो अपने घर और परिवार से लगभग 20 सालों से अलग था उसके अलगाव से उपजे दर्द को सिस्टम में बैठे नुमाइंदों ने कभी समझने की कोशिश नहीं की. वे अपने परिवार के सदस्यों के बीच रहते हुए काम करने के लिए सरकार को चिट्ठी-पत्री लिखते रहे लेकिन बदले में उन्हें झूठे मामले में फंसाने की कोशिश की गई.’ तबादले के लिए लगाया गया आवेदन और जगदलपुर के डिप्टी कलेक्टर निरंजन सिंह ठाकुर की ओर से शिकायत की जांच-पड़ताल के लिए सूर्यकांत वर्मा को जारी किया पत्र तहलका को दिखाते हुए कृष्णा वर्मा बताती हैं, ‘तीन जुलाई, 2012 की सुबह मेरे पति जगदलपुर से रायपुर आए थे और फिर बिना कुछ बोले ही घर से निकल गए थे. हमने काफी खोजबीन की. दोपहर बाद जब बड़ा बेटा तुषार यूं ही छत पर टहलते हुए पहुंचा तो उसने पिता की लाश को स्टोर रूम में लटकते देखा.’

कुछ ऐसी ही व्यथा रायपुर की अनीता शर्मा की भी है. अनीता के पति किशोर शर्मा जल संसाधन विभाग में सब इंजीनियर  थे. अनीता बताती हैं कि उनके पति अभनपुर स्थित जिस जल प्रबंध क्रमांक कार्यालय में पदस्थ थे उसके अधीन काडा (कैनाल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी) की योजनाओं के तहत खेतों को पानी पहुंचाने के लिए नहर का निर्माण कराया जा रहा था. एक रोज जब उन्होंने जांच-पड़ताल की तो पाया कि निर्माण के दौरान जरूरत से ज्यादा सामग्री का इस्तेमाल दिखाया गया है. इसके बाद उन्होंने ठेकेदारों के भुगतान के लिए नोटशीट पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया. अनीता बताती हैं कि अनुविभागीय अधिकारी गोपाल मेमन और एक इंजीनियर केआर साहू की ओर से उनके पति पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला जाता रहा लेकिन वे नहीं माने. दबाव बढ़ता गया और फिर 29 जुलाई, 2012 को जब परिवार के सभी लोग बाहर गए हुए थे तब किशोर शर्मा ने फांसी लगा ली. जो सुसाइड नोट मिला, उसमें  एसडीओपी गोपाल मेमन और इंजीनियर केआर साहू को इस कदम का जिम्मेदार बताया गया था. आरोप है कि मेनन और साहू राजनीतिक रसूख रखते हैं इसलिए उनका जिक्र आने के बाद भी पुलिस ने अब तक उन पर आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने का मामला दर्ज नहीं किया है.

इस घटना के बाद 16 अगस्त, 2012 को जब बस्तर के धुर नक्सली इलाके नारायणपुर में पदस्थ एक कार्यपालन यंत्री ने आत्महत्या की तब एक बार फिर खलबली मची और सवाल उठा कि क्यों छत्तीसगढ़ में स्वाभिमान के साथ काम करने वाले अफसरों और कर्मचारियों के लिए  माहौल अनुकूल नहीं है. नारायणपुर के जनपद पंचायत के अधीन ग्रामीण अभियांत्रिकी सेवा (आरईएस) में कार्यपालन यंत्री की हैसियत से पदस्थ रामेश्वर प्रसाद सोनी ने खुद को आग के हवाले कर दिया था. पति की मौत के बाद मध्य प्रदेश के दमोह में जा बसी पत्नी सरिता सोनी का आरोप है कि उनके पति पर विभाग के लोग गलत काम करने के लिए दबाव डालते थे. सोनी की मौत के ठीक दो महीने बाद जब 26 अक्टूबर, 2012 को नारायणपुर के अपर कलेक्टर एच कुजूर ने अपने निवास में फांसी लगाई तब कहा गया कि वे समय पर बतौर आईएएस पद्दोन्नत न होने से हताश थे. उनके कमरे में जो सुसाइड नोट मिला उसमें लिखा था कि वे जाति प्रमाण पत्र संबंधी काम को निर्धारित प्रपत्रों में पूरा न कर पाने की वजह से तनाव में थे. लेकिन बड़ी सच्चाई यह भी है कि जाति प्रमाण पत्र संबंधी काम की जिम्मेदारी सामान्य तौर पर अनुविभागीय अधिकारी यानी एसडीएम ही संभालते हैं. ऐसे में यह काम कुजूर को क्यों दिया गया इसका जवाब किसी जिम्मेदार अफसर के पास मौजूद नहीं है.

गौरतलब यह भी है कि राज्य में काफी समय से अधिकारियों का भी टोटा पड़ा हुआ है. इस वर्ष जुलाई में कांग्रेस विधायक धर्मजीत सिंह ने राज्य में प्रशासनिक सेवा से जुड़े अधिकारियों के बारे में सवाल किया था. इसके जवाब में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने बताया कि राज्य में 178 आईएएस होने चाहिए लेकिन केवल 126 अधिकारियों से ही काम चलाया जा रहा है. मुख्यमंत्री ने यह भी बताया था कि अफसरों की कमी को दूर करने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने केंद्र सरकार से कई मर्तबा संवाद कायम करने की कोशिश भी की लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. वहीं नाम न छापने की शर्त पर प्रदेश के एक प्रमुख अफसर कहते हैं, ‘राज्य निर्माण के कुछ समय बाद तक तो अफसर छत्तीसगढ़ को एक चुनौतीपूर्ण लेकिन सीखने लायक जगह मानकर पदस्थापना पाने के लिए इच्छुक रहते थे, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं.’ इन अफसर का मानना है कि छत्तीसगढ़ में संविदा यानी ठेके में पदस्थ कुछ अफसरों ने प्रशासनिक ढांचे को चरमराकर रख दिया है, फलस्वरूप अच्छे अफसरों का टोटा बना हुआ है.

केवल बड़े अफसर ही नहीं बल्कि प्रदेश में भृत्य से लेकर सिपाही भी आत्महत्या का रास्ता चुनने के लिए मजबूर हुए हैं. छह मई, 2012 को बालोद की नगरपालिका में पदस्थ एक सफाई कर्मी राजूराम रगड़े ने अर्जुन्दा नगर पंचायत में स्थानांतरण हो जाने के बाद भी ज्वाइनिंग नहीं दिए जाने से क्षुब्ध होकर खुदकुशी कर ली थी. पिथौरा जनपद पंचायत में पदस्थ एक भृत्य लच्छीलाल डडसेना ने भी अफसरों की प्रताड़ना से तंग आकर कार्यालय में ही फांसी लगा ली थी. 30 जुलाई, 2011 को दंतेवाड़ा में पदस्थ एक सिपाही भुवनेश्वर ध्रुव ने खुदकुशी कर ली थी तो अगस्त, 2012 में एक सिपाही ने अपनी सर्विस रायफल से खुद को गोली मार ली थी. इसी महीने महासमुंद थाने में पदस्थ एक आरक्षक अजीत ब्रम्हे ने भी जहर खा लिया था.

वैसे इस बात का कोई ठीक-ठाक रिकॉर्ड शासन के पास मौजूद नहीं है कि प्रदेश में कुल कितने सरकारी कर्मचारी आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन 27 जिलों में मौजूद कुछ प्रमुख थानों से एकत्रित की गई जानकारी के आधार पर मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि वर्ष 2008 से लेकर 2012 तक लगभग 200 कर्मचारी मौत को गले लगा चुके हैं.

प्रशासन अकादमी के पूर्व महानिदेशक बीकेएस रे इन मौतों के लिए सरकार की संवेदनहीन नीति को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है जिसके चलते प्रशासन का ढांचा पूरी तरह से लीपा-पोती पर आधारित हो गया है. भ्रष्ट कार्यों में लिप्त अफसरों को लगातार गलत काम करने की छूट मिली हुई है’. प्रदेश के एक मनोचिकित्सक डॉक्टर अरुणांशु परियल कहते हैं, ‘अब से पांच साल पहले तक डिप्रेशन यानी अवसाद के कुछ प्रकरण ही उनके सामने आते थे लेकिन वर्ष 2005 के बाद सरकारी मुलाजिमों के अवसाद से गुजरने के प्रकरणों की तादाद बढ़ी हुई लगती है.’

परियल मानते हैं कि छत्तीसगढ़ के सरकारी मुलाजिम दबाव के तहत काम करते हुए गहरे अवसाद को झेलने के लिए मजबूर हैं. जबकि मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव एन बैजेंद्र कुमार का कहना है कि सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों में हर तरह के तनाव को झेलने की क्षमता मौजूद रहनी ही चाहिए. आत्महत्या के ज्यादातर कारण व्यक्तिगत भी होते हैं. लेकिन सच तो यह है कि पदस्थापना में भेदभाव, ईमानदारी की अनदेखी और अनावश्यक दबाव के चलते फिलहाल छत्तीसगढ़ को सरकारी मुलाजिमों की एक नई कब्रगाह के तौर पर भी देखा जाने लगा है.