न सख्त न नरम, बस नाकाबिल

प्रतिशोध को न्याय मानने की भूल हम पहले ही करते रहे हैं, अफजल की फांसी ने इसे प्रहसन में बदल डाला है

यह सच है कि अफजल गुरु को देश के सर्वोच्च न्यायालय से सजा हुई थी. लेकिन इसी सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में माना है कि पिछले दिनों कम से कम 14 मामले ऐसे रहे जिनमें फांसी की गलत सजा सुनाई गई. देश के 14 महत्वपूर्ण जजों ने इसीलिए बाकायदा पत्र लिखकर राष्ट्रपति से अपील की कि इन फैसलों को उम्रकैद में बदला जाए.

अफजल के मामले में ऐसी कोई अपील नहीं हुई हालांकि उसके मामले की असंगतियां सबसे प्रखरता से दिखती रहीं. अदालत ने भी माना कि पुलिस ने मामले की ठीक से जांच नहीं की. इंदिरा जयसिंह और नंदिता हक्सर जैसी वकीलों ने कहा कि अगर अफजल को कायदे का वकील मिल गया होता तो उसे फांसी नहीं होती. उसे वकील तक नहीं मिला क्योंकि वकीलों ने तय कर रखा था कि संसद पर हमले के आरोपितों को वे कोई कानूनी मदद नहीं देंगे. एक तरह से यह पुलिस के लिए सुनहरा मौका था कि वह जिसे चाहती उसे संसद भवन का आरोपित बना डालती. इन सबके बावजूद सरकार ने राष्ट्रपति को यही सलाह दी कि वे उसकी माफी याचिका खारिज कर दें. जाहिर है, अफजल को सजा उस जुर्म की नहीं मिली जो उसने किया, उस पहचान की मिली जो उस पर थोप दी गई- एक आतंकवादी की पहचान, जिसने देश की संप्रभुता पर हमला किया. यह पहचान उस पर चिपकाना इसलिए भी आसान हो गया कि वह मुसलमान था, कश्मीरी था और ऐसा भटका हुआ नौजवान था जिसने आत्मसमर्पण किया था.

यह सवाल बेमानी नहीं है कि अफजल गुरु को लेकर नफरत भरी जो राष्ट्रवादी आंधी दिखती रही, क्या उसके पीछे उसकी इस पहचान का भी हाथ था. वरना जो बीजेपी यह मासूम तर्क देती है कि आतंकवादियों से बिल्कुल आतंकवादियों की तरह निपटा जाना चाहिए, उनका मजहब नहीं देखा जाना चाहिए, वही पंजाब में अदालत द्वारा सजायाफ्ता एक ऐसे आतंकवादी को बचाने के काम में अकाली दल के साथ शामिल होती है जो खुलेआम कहता है कि वह न भारतीय लोकतंत्र पर भरोसा करता है और न भारतीय न्यायतंत्र पर. यह मामला बलवंत सिंह राजोआना का है जो बेअंत सिंह की हत्या का मुख्य अभियुक्त है. उसे न अपने किए पर कोई पछतावा है और न ही अपने रवैये पर कोई संदेह. लेकिन अफजल के मामले में देरी की शिकायत कर रही बीजेपी राजोआना के मामले में जैसे आंखें मूंदे बैठी है.

इस मामले में सरकार का घुटनाटेकू या अवसरवादी रवैया ज्यादा अफसोसनाक रहा. जिस दौर में फांसी पर पुनर्विचार की बहस सबसे तीखी है, उस समय अफजल को फांसी पर चढ़ा दिया गया. क्या इसलिए कि सरकार को बीजेपी के उग्र राष्ट्रवाद का एक सटीक राजनीतिक जवाब देना था?  या इसलिए कि 2014 के चुनाव आने से पहले उसे महंगाई, भ्रष्टाचार और गैरबराबरी का मुकाबला करने में अपनी नाकामी की तरफ से जनता का ध्यान खींचना था? 

अफजल की फांसी से वे लोग पुनर्जीवित नहीं होने वाले हैं जिन्हें 13 दिसंबर, 2001 की सुबह संसद परिसर पर हमले के दौरान अपनी जान गंवानी पड़ी. मृत्यु अंततः सब कुछ हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर देती है. लेकिन राजनीति मातम की भी दुकान लगा लेती है. जो परिवार आतंकवाद या ऐसे किसी भी हादसे के शिकार होते हैं, उनके दिमाग में प्रतिशोध कूट-कूट कर भरा जाता है, इस प्रतिशोध में दिखने वाली अमानवीयता को देशभक्ति के मुलम्मे से ढका जाता है, उनके जख्मों को हरा रखा जाता है ताकि उनका राजनीतिक इस्तेमाल हो सके.

लेकिन यह प्रहसन उस विराट ट्रैजडी का एक छोटा-सा हिस्सा भर है जो हमारे लोकतंत्र के साथ घटित हो रही है हम बहुत बुरे दिनों से गुजर रहे हैं

अंततः इन सबसे एक ऐसे अंधराष्ट्रवाद का निर्माण होता है जो बेईमान और तानाशाह प्रवृत्तियों को सबसे ज्यादा रास आता है क्योंकि इसके बाद हर असुविधाजनक सवाल गद्दारी में बदल जाता है, हर संशय को देशद्रोह करार दिया जाता है और हर असहमति पर एक सजा नियत कर दी जाती है, जिसे कोई भी सड़कछाप संगठन अमल में लाने को तैयार रहता है और व्यवस्था उसके संरक्षण में जुटी रहती है.

अफजल के मामले में भी यही होता दिख रहा है. जिन लोगों ने इस फांसी का विरोध करने की लोकतांत्रिक कोशिश की, उनके चेहरों पर पुलिस की मौजूदगी में कालिख पोती गई. अमन-चैन कायम रखने के नाम पर नागरिकों को नजरबंद किया गया, एक पूरे राज्य का केबल-मोबाइल नेटवर्क ठप कर दिया गया, वहां कर्फ्यू लगा दिया गया. कैसे कोई यह पूछने की हिम्मत दिखाए कि इस फैसले से कश्मीर करीब आया या कुछ और दूर चला गया? कैसे कोई इस दावे पर सवाल उठाए कि यह आतंकवाद के खिलाफ एक बड़ी जीत है? कैसे कोई याद दिलाए कि हमारे लोकतंत्र में न्याय के वास्तविक तकाजे अभी बाकी हैं? कैसे कोई पूछे कि 1984 की सिख विरोधी हिंसा में मारे गए 3000 लोगों और 2002 के गुजरात में मारे गए 2000 लोगों की मौत का भी कोई इंसाफ होगा या नहीं?

यह सब पूछना देशद्रोह है- यह बताना भी कि अपने आप को सख्त राज्य साबित करने में जुटी सरकार दरअसल अपनी असली चुनौतियों से आंख चुरा रही है. आतंकवाद से लड़ने के लिए पुलिस तंत्र, खुफिया तंत्र और न्याय तंत्र में जो बदलाव जरूरी हैं उनका दूर-दूर तक कुछ अता-पता नहीं है. हम एक तार-तार सुरक्षा वाली व्यवस्था में रह रहे हैं जिसका फायदा कोई भी उठा सकता है. इस व्यवस्था को सुधारने की जगह, उसे अचूक और अभेद्य बनाने की जगह, सरकार अफजल को फांसी पर चढ़ाकर वाहवाही लूटने में लगी है.

हकीकत यह है कि भारत न सख्त राज्य है न नरम राज्य, यह एक नाकाबिल राज्य है जो अपना निकम्मापन ढकने के लिए फांसी का इस्तेमाल कर रहा है.