ठोस आयोजन, खोखले दावे

किसी राज्य में निवेश की बात हो और वहां गुजरात कनेक्‍शन न निकले यह हो नहीं सकता. ज्यादातर मामलों में ये कनेक्‍शन बहुत सकारात्मक होते हैं यानी गुजरात में हो रहे निवेश से सबक सीखने वाले पर कभी-कभी इनमें बहुत विचित्रता होती है. ऐसा ही कुछ विचित्रता इसी नवंबर महीने की दो तारीख को रायपुर से 22 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ की नई राजधानी में इन्वेस्टर्स मीट के आयोजन के दौरान देखने को मिली. यहां गुजरात कनेक्‍शन बस ये था कि वहां के  कुशल ठेकेदारों ने ही यह पंडाल तैयार किया था. बाकी जहां तक गुजरात से सबक सीखने की बात है तो अपने इस पहले ही इन्वेस्टर मीट में छत्तीसगढ़ इस मामले फिसड्डी साबित होता हुआ दिखा.  बाहरी का तो छोड़िए छत्तीसगढ़ में स्थानीय उद्योगपति भी अपने उद्योगों के सामने उपजी विषम परिस्थितियों के चलते बेबस महसूस कर रहे हैं. मिनी स्टील प्लांट एसोसिएशन के अध्यक्ष अशोक सुराना कहते हैं, ‘उद्योगों को फलने-फूलने और बेहतर वातावरण देने के मामले में सरकार का रवैया कभी सकारात्मक नहीं रहा. अब यह लगता है कि हमने छत्तीसगढ़ में उद्योगों को लगाकर भारी गलती कर दी है.’ कुछ इसी तरह के विचार भिलाई इंसलरी एसोसिएशन के अध्यक्ष केके झा के भी है. वे कहते हैं, ‘राज्य की स्थापना के 12 साल पूरे होने के बाद भी सरकार उद्योग धंधों के विकास के लिए सजग नहीं है. यही एक वजह है कि ज्यादातर उद्योग या तो बीमार हैं या फिर उन्होंने दम तोड़ दिया है.’ स्पंज आयरन एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल नचरानी तहलका को बताते हैं कि स्पंज आयरन संयंत्रों को कच्चा माल हासिल करने के लिए भारी मशक्कत का सामना करना पड़ रहा है सो प्रदेश के एक सौ पांच स्पंज आयरन संयंत्रों में से पच्चीस तो पूरी तरह से बंद हो गए हैं.

अब से कुछ समय पहले जब दुर्ग जिले के कुम्हारी इलाके में मौजूद धरमसिंह केमिकल फैक्ट्री में ताला लगा था तो दो हजार से ज्यादा मजदूर सड़क पर आ गए थे. कुछ इसी तरह की स्थिति रायगढ़ जिले में मौजूद मोहन जूट मिल के बंद होने के बाद उपजी थी. हकीकत यह है कि प्रदेश के वे उद्योग जिन पर सरकारी होने का ठप्पा लगा रहा उन्हें भी बचाने की दिशा में कभी कोई  कोशिश नहीं दिखी है. अपने सूती कपड़ों और विशेषकर मच्छरदानियों के निर्माण के लिए मशहूर बंगाल नागपुर काटन मिल ने भी तब दम तोड़ा जब छत्तीसगढ़ नया राज्य बनने की ओर अग्रसर था और रमन सिंह केंद्र में उद्योग  राज्यमंत्री थे.

इधर चुनावी घड़ी से ठीक एक साल पहले जब राज्य में इन्वेस्टर्स मीट  का आयोजन हुआ तो पहले-पहल यह माना गया कि छत्तीसगढ़ ने कोई ऊंची छलांग लगा दी है, लेकिन पुराने दावों की जमीनी सच्चाई को खंगालने पर संशय के कुहासों को कायम होने में भी देर नहीं लगी. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2009 में जब प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह पूरे लाव-लश्कर के साथ दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर गए थे तब यह दावा सामने आया था कि कोयले पर आधारित गैस के उत्पादन और प्लेटनियम धातुओं के संयंत्रों के विकास के लिए दक्षिण अफ्रीका और छत्तीसगढ़ के बीच व्यापार-वाणिज्य के नजरिए से एक नए संबंधों की शुरुआत होगी. वर्ष 2011 में जब मुख्यमंत्री ने अमेरिका की यात्रा की तब भी अप्रवासी भारतीयों को छत्तीसगढ़ में निवेश करने की दावत दी गई थी लेकिन किसी एक निवेशक ने रुचि का प्रदर्शन नहीं किया. अपनी इस नाकामी के बावजूद जब सरकार ने पूरे तामझाम के साथ इंन्वेस्टर्स मीट के ग्लोबल होने का दावा ठोंका तो यही समझा गया कि शायद इस बार दावे महज दावे नहीं रहेंगे, लेकिन मीट में अर्जैटीना, कोस्टारिका, त्रिनिडाड- टुबेगो, नाइजीरिया, तजाकिस्तान सहित कुछ अन्य देशों के राजदूतों के शामिल होने के अलावा किसी भी विदेशी निवेशक ने पहल करने की जहमत नहीं उठाई. मीट में टाटा, बिडला, अंबानी जैसे नामचीन औद्योगिक घरानों के प्रतिनिधि भी नजर नहीं आए. 
समारोह में आए हुए उधोगपतियों के साथ मंच पर राज्य के मुखिया
सम्मेलन में सरकार यह दावा करते हुए दिखी कि कुल 272 उद्योगपतियों ने 1.24 करोड़ रुपए के पूंजी निवेश करने को लेकर अपनी रुचि प्रदर्शित की है लेकिन राज्य निवेश बोर्ड में पदस्थ एक अफसर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि एमओयू की वास्तविक संख्या 140 से ज्यादा नहीं है और संभावित पूंजी का निवेश भी 67999 करोड़ ही है. मजे की बात यह है कि सम्मेलन में भाजपा अध्यक्ष नितिन गड़करी के व्यापारिक मित्र अजय संचेती की कंपनी एसएमएस इन्फ्रास्ट्राकचर ने भी शहरी क्षेत्रों में शापिंग माल आदि तैयार करने के लिए एमओयू करने की जुगत भिड़ा ली थी लेकिन भटगांव कोल ब्लाक में उपजे विवाद के बाद एक और नए विवाद को जन्म देने से बचने के लिए कंपनी के प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. मुख्य तौर पर मीट में शहरी अधोसंरचना और स्पोटर्स सिटी के निर्माण के लिए आम्रपाली समूह, व्यावसायिक परिसरों और शापिंग मालों के निर्माण के लिए एबियंस ग्रुप, सोलर एनर्जी के क्षेत्र में अजूर पावर, ऊर्जा के क्षेत्र में रायगढ़ इलाके में पहले से ही 14 सौ करोड़ रुपए का निवेश कर चुकी वीसा पावर कंपनी ने विस्तार योजना के लिए रुचि जाहिर की.  छत्तीसगढ़ में लंबे समय से कार्यरत अनोपचंद तिलोकचंद ग्रुप ने ज्वेलरी पार्क और एनटीपीसी ने  रायगढ़ में कालेज स्थापना की मंशा प्रकट की तो रावघाट  परियोजना में नक्सली खौफ का ग्रहण लगने के बाद स्टील अथारिटी आफ इंडिया ने कवर्धा स्थित कोल खदानों के लिए एमओयू किया है. इस एमओयू के बदले सेल ने यह आश्वस्त किया है कि वह राजनांदगांव में मेडिकल और मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह के गृहनगर कवर्धा में एक इंजीनियरिंग कालेज खोलेगा. मीट में ताप विद्युत परियोजनाओं की बाढ़ के बावजूद जीएमआर समूह ने तेरह सौ मेगावाट के विद्युत संयंत्र को लगाने में सहमति जताई है. जबकि गेल इंडिया लिमिटेड ने छत्तीसगढ़ में भूमिगत गैस पाइप लाइन बिछाए जाने को लेकर अनुबंध किया है.

मीट में सहारा ग्रुप की ओर से सीमांतो राय शामिल हुए लेकिन उनकी रुचि डेयरी उद्योग की स्थापना के लिए महज पूछताछ तक ही सीमित रही. जबकि एसईसीएल, रेलवे की सार्वजनिक उपक्रम इकाई इरकान और राज्य शासन के बीच प्रदेश में रेल कारीडोर की स्थापना के लिए दो महीने पहले नई दिल्ली में किए गए अनुबंध को भी मीट में किया एमओयू बताए जाने से यह सवाल भी उठा कि सरकार आंकड़ों की बाजीगरी में लगी हुई है. प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता राजेश बिस्सा कहते हैं, ‘रमन सरकार ने गत आठ साल से केवल अपनी पीठ थपथपाने के उपक्रम में ही जुटी है. जबकि हकीकत यह है कि सरकार ने कोर सेक्टर में कार्यरत 142 कंपनियों से अनुबंध किया था जिसमें से 21 एमओयू सीधे तौर पर निरस्त हो चुके हैं. 41 उद्योग ऐसे हैं जो भूमि चयन की प्रकिया के बाद भी काम की शुरुआत नहीं कर पाए है.’ बिस्सा के इन आरोपों में इसलिए भी दम नजर आता है क्योंकि देश के सर्वाधिक चर्चित उद्योग टाटा ने वर्ष 2005 में बस्तर के लोहंडीगुडा क्षेत्र में 32 लाख टन वार्षिक क्षमता के स्टील प्लांट की स्थापना को लेकर कवायद प्रांरभ की थी. प्लांट की स्थापना के लिए सीएसआईडीसी ने जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई प्रारंभ तो की लेकिन सात सालों के बाद भी टाटा को जमीन का स्वामित्व नहीं मिल पाया है. इधर चुनावी वर्ष में किए गए एमओयू के धरातल में नजर आने को लेकर भी सुगबुगाहट शुरू हो गई है. कहा जा रहा है कि यदि किसी निवेशक ने दिसंबर-जनवरी में  प्रपोजल तैयार किया तो वह केंद्र की ओर से फरवरी में प्रस्तुत होने वाले बजट और क्लोजिंग डेट ( मार्च ) के बाद ही वह सरकार के समक्ष आएगा. इस तिथि के बाद चुनावी माहौल नजर आने लगेगा और फिर आचार संहिता लग जाएगी. स्थानीय उद्योगपतियों का मानना है कि चुनावी वातावरण उद्योग धंधों के विकास में सहायक होने के बजाए सिरदर्द साबित होते हैं. इस माहौल में राजनीतिक अस्थिरता कायम होती है और निवेशक निवेश करने से घबराते हैं. कई सारे किंतु और परंतु के बीच राजनीतिक एवं प्रशासनिक हल्कों में ग्लोबल मीट को चुनावी चंदे के योजनाबद्ध आयोजन के तौर पर भी देखा जा रहा है. वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एवं भाजपा के पूर्व विधायक वीरेंद्र पांडे आरोप लगाते हुए कहते हैं कि मीट के बहाने सरकार ने विधानसभा चुनाव के खर्चों के लिए सुनिश्चित तरीके से अग्रिम व्यवस्था को बेहद चालाकी के साथ अंजाम दे डाला है.

बिजली-पानी और सड़क की हकीकत
उद्योग धंधों के विकास के लिए बिजली-पानी और सड़क की बेहतर स्थिति का होना अनिवार्य माना जाता है. छत्तीसगढ़ में इन बुनियादी आवश्यकताओं की स्थिति कैसी है, एक नजर-

जीरो पावर कट का सच
मीट में सरकार ने यह दावा किया कि बिजली उत्पादन के मामले में छत्तीसगढ़ जीरो पावर कट राज्य है. जबकि वास्तविकता यह है कि छत्तीसगढ़ के कुछ शहरी हिस्सों को छोड़ दिया जाए तो ग्रामीण हिस्सों में बिजली की कमी बनी ही रहती है. गत वर्ष जब भिलाई इस्पात संयंत्र, बालको और जिंदल की विद्युत संयंत्र इकाईयों में खराबी आई थी तब प्रदेश के एक बड़ी आबादी को बिजली के संकट से जूझना पड़ा था. कमोबेश यह स्थिति वर्ष 2012 में भी तब कायम हुई थी कोरबा स्थित बिजलीघरों  का उत्पादन ठप्प हुआ था.प्रदेश में इस समय पावर कंपनी की ओर से निर्मित की बिजली 1924.70 मेगावाट ही है. यदि बिजली बोर्ड को नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन से 805, भूसे से बिजली उत्पादन करने वाली 24 उत्पादक कंपनियों से 121 एवं निजी क्षेत्र की कंपनियों से 355 मेगावाट बिजली न मिले तो प्रदेश में स्थायी तौर पर बिजली का संकट कायम हो ही सकता है. प्रदेश में इस समय उच्चदाब के 1805 एवं निम्नदाब के 27 हजार 211 औद्योगिक उपभोक्ता है. नाम न छापने की शर्त पर एक उदयोगपति बताते हैं कि औद्योगिक इलाकों में बिजली व्यवस्था में सुधार के नाम पर सप्ताह में एक दिन और प्रतिदिन शाम छह से नौ बजे ( पिक आवर्स ) में बिजली की कटौती की ही जाती है.’ औद्योगिक उपभोक्ताओं को बिजली देने के मामले में बिजली बोर्ड का रवैया भी काफी विसंगतिपूर्ण है. बिजली बोर्ड 24 घंटे संयंत्र चलाने की दशा में औद्योगिक उपभोक्ताओं से चार रुपए पचास पैसे प्रति यूनिट के हिसाब से चार्ज वसूलता है जबकि 24 घंटे से कम अवधि पर संयंत्र चलाने पर उपभोक्ताओं को पांच रुपए रुपए दस पैसे देने होते हैं. इतना ही नहीं इन उपभोक्ताओं को प्रति किलोवाट 350 रुपए का डिमांड चार्ज भी देना होता है.

पानी के लिए मारा-मारी
प्रदेश में पानी की मौजूदगी भी आशाजनक नहीं है. कुछ समय पहले जब केंद्रीय भूजल बोर्ड की क्षेत्रीय इकाई ने छत्तीसगढ़ में पानी की उपलब्धता को लेकर सर्वे किया था तब बिलासपुर में बिल्हा, धमतरी में कुरूद और नगरी, दुर्ग जिले में बालोद, बेमेतरा, धमधा, गुरूर, पाटन- साजा, कवर्धा में पंडरिया, रायगढ़ में बरमकेला और राजनांदगांव इलाके में भू-जल स्त्रोतों की स्थिति काफी खतरनाक पाया था. प्रदेश में सतही जल की स्थिति भी कागजों में ही बेहतर दिखाई देती है. वाटर रिसोर्स सेंटर में जो डाटा मौजूद है उस पर यकीन करें तो फिलहाल छत्तीसगढ़ में 62 हजार 844 मिलियन घनमीटर पानी उपलब्ध है. इस पानी में से 28 सौ मिलियन घनमीटर पानी 175 उद्योगों को पहले ही बेचा जा चुका है. कृषि के लिए 13 हजार 456 मिलियन घनमीटर पानी सुरक्षित रखने के बावजूद घरेलू व अन्य उपयोगों के लिए हर साल गांव व कस्बों में मारा-मारी देखने को मिलती है. नदी घाटी मोर्चा के संयोजक गौतम बंदोपाध्याय के मुताबिक प्रदेश की सभी 23 प्रबंधन जरूरत से ज्यादा कमजोर है फलस्वरूप नदियों में जल भराव की स्थिति कमजोर हुई है. उरला इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष विवेक रंजन गुप्ता कहते हैं, सरकार सुविधाजनक ढंग से पानी देने का दावा तो करती है लेकिन अकेले उरला में स्थापित उद्योगों को कड़ी मशक्कत के बाद एक एमएलटी पानी मिल पाता है. गर्मी के दिनों में उद्योग चलाने के लिए टैकरों से पानी मंगवाना पड़ता है.

सड़कों का बेड़ा गर्क
राज्य में सड़कों की हालत बेहद खस्ता है. हकीकत यह है कि सड़कों को काटकर किसी भी रूप में अपने आधार इलाकों में सरकार को दाखिल न होने देने की माओवादी रणनीति की काट अब तक ढूंढी ही नहीं जा सकी है.  वैसे तो छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की तूती हर जगह बोलती है ( शायद यही एक वजह है कि इन्वेस्टर्स मीट में भी नक्सली हमले के मद्देनजर  इंस्वेस्टर्स को सशस्त्र सुरक्षा गार्ड की सुविधा दी गई थी.)  लेकिन सरगुजा, जशपुर, बस्तर और राजनांदगांव जिले जहां उनकी अपनी सत्ता पूरी तरह से कायम है वहां के  अंदरूनी इलाकों की सड़कें बेहद जर्जर हैं. हालात यह है कि सरकार को अब भी बस्तर के दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर और कांकेर जैसे जिलों में तैनात पुलिसकर्मियों के लिए हेलिकाफ्टर के जरिए राशन भेजना पड़ता है. प्रदेश के 14 औदयोगिक क्षेत्रों के सड़कों की हालत इतनी ज्यादा खस्ता है कि इनके सुधार के लिए उद्योगपति समय-समय पर धरना-प्रदर्शन भी करते रहे हैं. इन्वेस्टर्स मीट में मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह को भी यह मानना पड़ा है कि औद्योगिक इलाकों में सड़कों की दशा वाकई बेहद खराब है और इसके लिए सौ करोड़ की लागत से कांक्रीट सड़कों के जाल को फैलाने की जरूरत है.