गुरिल्ला राजनेता

अरविंद केजरीवाल मार्का राजनीति का पहला फार्मूला यह है कि इसका कोई फार्मूला नहीं है. अरविंद उन सभी स्थापित मानकों के खिलाफ जाकर अपनी राजनीतिक लड़ाई को आगे बढ़ा रहे हैं जिनकी अपेक्षा किसी मझे हुए राजनीतिक दल से की जाती है. पिछले कुछ दिनों में हुई घटनाओं को देखें तो हम पाते हैं कि उनकी कार्रवाइयों ने सत्ताधारी और विपक्षी दलों की बत्ती गुल कर रखी है, कॉरपोरेट की रीढ़ में सुरसुरी दौड़ा दी है और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नींद हराम कर दी है. उन्होंने मीडिया का काम भी अपने हाथ में ले लिया है. अकेले अरविंद नगर निगम से लेकर संसद भवन तक की राजनीति को गर्माए हुए हैं. लेकिन उनकी इस छापामार शैली पर कई सवाल भी उठाए जाने लगे हैं.

पांच अक्टूबर यानी अपनी राजनीतिक पार्टी की घोषणा के ठीक तीन दिन बाद अरविंद ने संसद भवन से महज कुछ सौ मीटर दूर स्थित कंस्टीट्यूशन क्लब में देश की सत्ताधारी पार्टी के प्रथम परिवार की चूलें हिला दीं. उन्होंने सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के बीच भ्रष्ट गठजोड़ का आरोप लगाया और उस आरोप के समर्थन में कुछ दस्तावेज भी मीडिया को बांटे. उनके द्वारा लगाए गए आरोप कम से कम ऐसे तो थे ही कि देश और मीडिया को इससे आने वाले कई दिनों का मसाला मिल जाता पर अरविंद ने इसके तुरंत बाद कुछ और भी कर डाला. अगले ही दिन वे दक्षिणी दिल्ली की एक अर्ध विकसित कॉलोनी खानपुर में बाना राम के घर का बिजली कनेक्शन जोड़ने खुद पहुंच गए. बीएसईएस वालों ने उनका कनेक्शन काट दिया था. इसके बाद का घटनाक्रम और भी दिलचस्प है. कानूनन उनका यह कारनामा अपराध की श्रेणी में आता है. इस तरह के किसी अपराध पर बीएसईएस संबंधित व्यक्ति को सीधा जेल पहुंचवा देती है. लेकिन इस मामले में सभी संबंधित विभाग अपनी टोपी दूसरे के सिर डालकर अपना पिंड छुड़ाते नजर आए.

राज्य के विद्युत मंत्री का कहना था कि यह बिजली कंपनी का मामला है. बिजली कंपनी कह रही थी कि इस पर दिल्ली विद्युत नियामक आयोग (डीईआरसी) ही कोई कार्रवाई कर सकता है. उधर डीईआरसी भी बिजली कंपनी को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहा था. कानून-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार पुलिस का कहना था कि हमारे पास जब तक कोई शिकायत नहीं दर्ज होगी तब तक हम कोई कार्रवाई नहीं कर सकते. साफ दिखा कि कोई भी अरविंद से सीधे उलझना नहीं चाहता था. 9 अक्टूबर को डिस्कॉम ने मजबूरन एक एफआईआर दर्ज करवाई, लेकिन उसमें भी अरविंद केजरीवाल का कहीं जिक्र नहीं था. बिजली दिल्ली सरकार की दुखती रग है जिसे अरविंद ने सियासी फायदे के मद्देनजर बिल्कुल सही समय पर दबा दिया है. दिल्ली में बिजली की आसमानी कीमतों का संबंध अरविंद ने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से जोड़ा और कहा कि वे जनता के भले के लिए नहीं बल्कि बिजली कंपनियों के भले के जरिए अपने भले के लिए काम कर रही हैं.

वे यहीं नहीं रुके. आठ अक्टूबर को मालवीय नगर में बिजली दरों के निर्धारण को लेकर डीईआरसी ने जनसुनवाई आयोजित की थी. भाजपा नेता विजय गोयल अपने समर्थकों समेत वहां पहले से ही विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. उनकी मांग थी कि डीईआरसी द्वारा 2010 में प्रस्तावित बिजली दरों में 23 फीसदी की कमी को दिल्ली सरकार लागू करे. इतने में अरविंद वहां पहुंच गए. उन्होंने विजय गोयल से मंच साझा करने का अनुरोध किया, गोयल ने उन्हें मंच पर बुला लिया. यहां से प्रतिरोध का पूरा परिदृश्य ही बदल गया. भाजपा के मंच पर, भाजपा समर्थकों के बीच अरविंद ने पहला सवाल किया, ‘भाजपा दो साल तक इस मामले पर चुप क्यों रही? इन सालों के दौरान उसने विधानसभा में मामला क्यों नहीं उठाया?’ सभा में सन्नाटा था और विजय गोयल के चेहरे पर असहजता. आखिरी बात अरविंद ने यह रखी कि भाजपा बिजली कीमतों में बढ़ोतरी के मुद्दे पर कांग्रेस के साथ मिली हुई है. भीड़ के बीच नारा गूंजने लगा- अरविंद, तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं. विजय गोयल मंच से ओझल हो गए, भाजपा का मंच आईएसी या यों कहें कि अरविंद ने हड़प लिया था. खुलासों की कड़ी में अरविंद ने अगला निशाना 17 अक्टूबर को नितिन गडकरी पर साधा. हालांकि तुरंत तो ऐसा लगा कि अरविंद का यह पटाखा फुस्स हो गया है, मगर बाद में मीडिया ने इस मामले को ऐसा उठाया कि अब गडकरी अपने राजनीतिक जीवन के सबसे बुरे दौर से घिरे नजर आ रहे हैं.

‘अभी जो चर्चाएं चल रही हैं उसके पीछे मीडिया की सक्रियता एक बड़ी वजह है. जल्द ही इसका चौंकाने वाला तत्व समाप्त हो सकता है’

इसके बाद केजी बेसिन मामले में मुकेश अंबानी वाली रिलायंस, भाजपा, कांग्रेस और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आदि को 31 अक्टूबर को लपेटे में लेने के बाद नौ नवंबर को एक बार फिर से केंद्र सरकार का नंबर आया. अरविंद ने आरोप लगाया कि सरकार विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के प्रति गंभीर नहीं है और जिन विदेशी खातों के बारे में उसे जानकारी है भी वह उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है. उन्होंने अंबानी बंधु, डाबर समूह वाले बर्मन परिवार, यश बिरला, जेट एयरवेज के मालिक नरेश गोयल और राहुल गांधी की करीबी कांग्रेसी सासंद अनु टंडन सहित कुल 10 लोगों के नाम और कुछ दस्तावेज यह कहते हुए जारी किए कि इनके एचएसबीसी की स्विटजरलैंड शाखाओं में बैंक खाते हैं, जिनमें करीब 3,000 करोड़ रुपये जमा हैं. अरविंद का कहना था कि इन दस नामों की जानकारी उन्हें एक कांग्रेसी नेता ने ही दी है और ये उस सूची का हिस्सा हैं जिसमें 700 नाम हैं और जो स्विटजरलैंड की सरकार ने भारत सरकार को पिछले साल दी थी. इन सबसे ऊपर अरविंद ने अंतरराष्ट्रीय बैंक एचएसबीसी पर देश की सुरक्षा को ताक पर रखते हुए हवाला के जरिए इन खातों में लेन-देन करने के गंभीर आरोप भी लगाए. अंबानी बंधुओं, बिरला और एचएसबीसी आदि ने इन सभी आरोपों को गलत करार दिया है. तहलका से बातचीत में अनु टंडन का कहती हैं, ‘मेरा स्विस बैंक में न तो कोई खाता है और न ही कोई पैसा. इस तरह के बेबुनियाद और मनगढ़ंत आरोपों को मैं जवाब देने लायक भी नहीं मानती हूं.’ अभी अरविंद की इस छापामारी की खबरें अखबार के पन्नों से गायब भी नहीं हुई थीं कि उन्होंने इसके ठीक दो दिन बाद ही दिल्ली के बिजली कर्मचारियों के एक संगठन को संबोधित करते हुए अपना अगला निशाना शीला दीक्षित को बनाने की घोषणा कर डाली.

राजनीति की जो गैरपरंपरागत छापामार शैली अरविंद ने ईजाद की है, अब उसके सकारात्मक-नकारात्मक पहलुओं पर बहस होने लगी है. टीम अरविंद के सदस्य बिभव इसे चुनावी राजनीति नहीं बल्कि भ्रष्टाचारियों को सामने लाने की रणनीति करार देते हैं. उनके शब्दों में, ‘यह राजनीति नहीं है. चुनावी राजनीति तो जब चुनाव आएगा तब देखी जाएगी. मौजूदा खुलासे जनता को यह दिखाने के लिए किए जा रहे हैं कि हमारी जो स्थापित व्यवस्था है उसका ये लोग किस तरह से दुरुपयोग कर रहे हैं. हम 2014 से पहले हर हफ्ते इस तरह के खुलासे करते रहेंगे ताकि जनता के सामने तब तक ये लोग पूरी तरह से बेनकाब हो चुके हों.’  मगर बिभव की यह बात कई लोगों के गले नहीं उतरती. अरविंद के पुराने सहयोगी और टीम अन्ना की नई कोर कमेटी के एक सदस्य कहते हैं  ‘कल को अरविंद ये कहने लगेंगे कि खुलासों से कुछ होता नहीं इसलिए जब हमें सत्ता मिलेगी तभी कुछ होगा. ऐसे ही उन्होंने पिछली बार भी किया था कि अनशन से अब कुछ नहीं होगा इसलिए हमें राजनीति में आना पड़ा. इस लिहाज से ये पूरा हो-हल्ला संदेहास्पद हो जाता है.’ वैसे भी अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के कथित बुरे कार्यों को सामने लाना, उन्हें ठिकाने लगाना राजनीति से अलग है, यह सोचना किसी के लिए भी जरा मुश्किल है.

और अरविंद भले भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाकर लोगों को बेनकाब करने की बात कर रहे हों लेकिन कई लोगों के मुताबिक इनका तब तक कोई मतलब नहीं जब तक इन पर कोई कार्रवाई न हो. फिलहाल अरविंद के उठाए वाड्रा से लेकर गडकरी और अन्य मामलों में ऐसा होता नहीं दिखाई देता. इसके बावजूद अरविंद की इस छापामार शैली से पूरी राजनीतिक जमात में एक बदहवासी का आलम देखने को मिल रहा है. सलमान खुर्शीद खून-खराबे की धमकी पर उतर आए हैं तो हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ भाजपा नेता शांता कुमार ने अपनी पार्टी की मर्यादा को ताक पर रख कर अरविंद केजरीवाल को पत्र लिख मारा कि हिमाचल प्रदेश में प्रियंका गांधी का भी एक विशाल बंगला है, आप उसकी भी जांच करें. यह हास्यास्पद स्थिति थी. जो भाजपा राज्य की सत्ता में है, जिसके पास जांच की ताकत है, उसका एक वरिष्ठ नेता केजरीवाल से जांच करने की मांग कर रहा था. यह भाजपा के लिए मुंह छिपाने की घड़ी थी.

जनता के बीच नेताओं की नकारात्मक छवि अपने चरम पर है. लंबे समय से वैकल्पिक राजनीति के लिए रिक्तता बनी हुई है. तो ऐसे में अरविंद की छापामार शैली को फिलहाल मिल रही सफलता और लोकप्रियता कितनी स्थायी साबित होने वाली है? एक के बाद एक खुलासे करते जाने से क्या अरविंद राजनीति में एक स्थापित चेहरा बन पाएंगे? क्या जनता उन पर सिर्फ इसी आधार पर भरोसा कर पाएगी? अरविंद केजरीवाल के पुराने सहयोगी और नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इन्फॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) के सदस्य निखिल डे कहते हैं, ‘अरविंद का मानना है कि जनांदोलनों का रास्ता असफल हो चुका है, इसलिए राजनीतिक रास्ता चुनना पड़ा है. राजनीति में उतरना बहुत अच्छी बात है. लेकिन यह रास्ता बहुत चुनौती भरा है. जिन ऊंचे मूल्यों की वे बात कर रहे हैं, उस पर खुद उनके लोग कितना खरा उतरेंगे यह सुनिश्चित करना मुश्किल होगा. क्या इतने सारे ईमानदार लोग अरविंद सामने ला पाएंगे? एक बात और, जनांदोलनों का महत्व खत्म नहीं हुआ है, ये हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे.’

पिछले दो दशक के दौरान देश में हुए बड़े राजनीतिक आंदोलनों पर नजर दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि नब्बे के शुरुआती दशक में भाजपा का राम मंदिर आंदोलन देश का सबसे बड़ा और सफल आंदोलन था. हालांकि इस आंदोलन का स्वरूप सांप्रदायिक था, लेकिन इतने बड़े आंदोलन के बावजूद भाजपा गांव-देहात और दूर-दराज की पार्टी आज तक नहीं बन पाई है. देश के  तमाम हिस्से आज भी ऐसे हैं जहां भाजपा की कोई पैठ नहीं है. तो एक बार फिर से वही सवाल कि क्या भ्रष्टाचार के लिए अन्ना के साथ चलाए गए आंदोलन और खुलासों की आंदोलननुमा राजनीति के दम पर अरविंद अपनी पार्टी को घर-घर की पार्टी में बदल पाएंगे.

‘अरविंद के सामने दिक्कत सिर्फ यही है कि अगर दिल्ली के चुनाव से पहले आम चुनाव होते हैं तो उनका भ्रष्टाचार विरोधी अभियान असफल हो सकता है’

वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी कहते हैं, ‘अभी जो चर्चाएं चल रही हैं उसके पीछे मीडिया की सक्रियता एक बड़ी वजह है. लेकिन मीडिया भी यह तेजी ज्यादा दिन तक बनाए नहीं रख पाएगा. जल्द ही इसका चौंकाने वाला तत्व खत्म हो जाएगा. जरूरत इस समय खुलासों के साथ इतने विशाल देश में एक विश्वसनीय संगठन खड़ा करने की है. व्यक्तिगत तौर पर तो मैं भी अरविंद की ईमानदारी का कायल हूं लेकिन अरविंद के कहने पर मैं किसी भी व्यक्ति को अपना वोट नहीं दे सकता.’ अरविंद के आंदोलन की तुलना आपातकाल में हुए जेपी आंदोलन से भी की जा रही है लेकिन उस समय देश, काल और परिस्थितियां अलग थीं. और अरविंद जेपी भी नहीं हैं. और अब अन्ना भी उनके साथ नहीं हैं. तो ऐसे में ताबड़-तोड़ किए जा रहे खुलासे, अरंविद को लोगों की निगाह में तो रख सकते हैं लेकिन क्या ये चुनावी सफलता में भी तब्दील होंगे, यह एक बड़ा सवाल है.

अरविंद के अब तक के अभियान पर अगर थोड़ी बारीक निगाह डाली जाए तो हम पाते हैं कि इनके निशाने पर दिल्ली और इसके आस-पास का पढ़ा-लिखा और अन्ना के आंदोलन में जोर-शोर से भाग लेने वाला वर्ग है. वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी, अरविंद के छापामार अभियान को इसी निगाह से देखती हैं, ‘निश्चित तौर पर इस समय अरविंद की निगाह में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हैं. और उनका भ्रष्टाचार विरोधी अभियान उसमें बहुत उपयोगी हथियार है. जिस तरह से वे खुलासों के जरिए जनता को अपने पक्ष में गोलबंद कर रहे हैं, उसके पीछे एक सोची-समझी रणनीति है. अरविंद के सामने दिक्कत सिर्फ यही है कि अगर दिल्ली विधानसभा के चुनाव से पहले देश के आम चुनाव होते हैं तो उनका भ्रष्टाचार विरोधी अभियान असफल हो सकता है क्योंकि तब उनके पास पूरे देश में पहुंचने के लायक न तो साधन होगें, न संगठन. जबकि दिल्ली के चुनाव में अगर वे कुछ असर डाल पाते हैं तो उसका फायदा बाद में उन्हें लोकसभा के चुनावों में जरूर मिलेगा.’ केजरीवाल की गुरिल्ला राजनीति आगे क्या गुल खिलाएगी यह तो भविष्य ही बताएगा मगर उनके ऐसा करने से देश की राजनीति पर क्या असर पड़ा है? थानवी कहते हैं, ‘हमारी राजनीति में ताकतवर और ‘होली काउ’ का जो मिथक था, अरविंद केजरीवाल ने उसे तोड़ दिया है. उनका यह योगदान बहुत बड़ा है.’

सवाल उठता है कि अगर केजरीवाल इस तरह के खुलासे और आंदोलन न करें तो फिर उनके पास विकल्प क्या है. जवाब में फिर वही प्रश्न सामने आता है कि क्या जनता अरविंद को नेताओं की भीड़ में एक और नेता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार है. उत्तर निश्चित ही नकारात्मक होगा. अगर केजरीवाल कुछ नया नहीं करेंगे या कोई उम्मीद नहीं जगाएंगे तो उन्हें देश की जनता शायद ही स्वीकार करे. और फिर परंपरागत शैली में अगर अरविंद अपनी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे तो यहां उस शैली के धुरंधर पहले से ही इफरात में हैं. अरविंद के तरीके पर आपत्ति के बावजूद थानवी इसे वैकल्पिक राजनीति करार देते हैं.

अरविंद के सामने एक और चुनौती समय की है. उनके सामने स्थापित मानकों के हिसाब से अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने का विकल्प मौजूद था. लेकिन यह लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है. जो रास्ता उन्होंने चुना है उसमें तत्काल नतीजों की संभावना तो है लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं. नीरजा इतिहास का उदाहरण देती हैं, ‘आपातकाल के बाद हमने देखा किस तरह से जेपी का आंदोलन सत्ता में आने के ढाई साल बाद ही बिखर गया. वीपी सिंह के सामने भी यह समस्या आई थी. उन्होंने भी शॉर्टकट चुना. 87 में उन्होंने आंदोलन शुरू किया था, 90 तक आते-आते उनका आंदोलन बेपटरी हो चुका था.’ यह चेतावनी केजरीवाल को याद रखनी चाहिए. जहां तक राजनेताओं की बात है तो जब अरविंद आंदोलन कर रहे थे तब वे बात-बात पर केजरीवाल को चुनाव लड़कर संसद में आने की चुनौती देते ही आ रहे थे. वही राजनेता जब अरविंद राजनीति में आए तो उन्हें राजनीतिक सत्ता का महत्वाकांक्षी बताकर जनता के साथ विश्वासघात करने वाला बताने लगे. अब यही राजनेता उनके तौर-तरीकों पर तरह-तरह के सवाल उठा रहे हैं. अरविंद को लेकर उनकी बार-बार बदलती सोच उनकी बदहवासी की निशानी भी हो सकती है और अपने जमे-जमाए तरीकों से लड़ने की कोशिश भी. मगर केजरीवाल के बारे में फैसला आखिर में जनता को ही करना है जो फिलहाल उनमें संभावनाएं टटोलने में लगी है. उसका फैसला क्या होगा, यह भविष्य के गर्भ में है. मगर यह भविष्य उतना दूर भी नहीं है.