मणिपुरः नाै लाशें, सात महीने अाैर एक अांदाेलन

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फोटो : अमरजीत सिंह

ह्वाट अ फ्रेंड वी हैव इन जीसस,

आॅल आवर सिंस एंड ग्रीफ टू बीयर!

यानी ईश्वर के रूप में हमारे पास एक ऐसा दोस्त है जो हमारे सारे दुखों और पापों को सहन कर लेता है… दिल्ली के जंतर मंतर पर बने एक अस्थायी टेंट के पास मणिपुर की रहने वाली जेनेट बाल्टे इस कविता का गान कर रही हैं. इसमें कुछ और लोग भी उनका साथ दे रहे हैं. सभी के चेहरे पर उदासी और हताशा का भाव साफ देखा जा सकता है. दरअसल ये लोग तकरीबन सात महीने से यहां शांतिपूर्ण ढंग से मणिपुर के चूराचांदपुर जिले में एक और दो सितंबर को प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोलियों का शिकार हुए नौ लोगों के लिए न्याय की मांग कर रहे हैं. इन नौ लोगों में एक नाबालिग भी शामिल है.

ये लोग 31 अगस्त, 2015 को मणिपुर विधानसभा द्वारा पास किए गए तीन विधेयकों के विरोध में सड़क पर उतर गए थे, जहां  पुलिस ने इन्हें गोली मार दी थी. घटना के विरोध में मृतकों के परिवारवालों ने शव लेने और दफनाने से मना कर दिया है. मणिपुर की राजधानी इंफाल से करीब 70 किमी. दूर चूराचांदपुर जिला अस्पताल के मुर्दाघर में इन लोगों के शव अब भी रखे हुए हैं. इधर, जंतर मंतर पर इस प्रदर्शन की अगुआई कर रहे मणिपुर आदिवासी फोरम, दिल्ली (एमटीएफडी) ने भी टेंट के अंदर नौ प्रतीकात्मक ताबूत रखे हैं. विधेयकों को आदिवासी विरोधी बताया जा रहा है.

कविता पूरी हो जाने के बाद जेनेट जोर-जोर से नारा लगाते हुए आदिवासियों के लिए न्याय की मांग करती हैं. वहां मौजूद सारे लोग उनका साथ देते हैं. जेनेट दिल्ली के तीस हजारी स्थित सेंट स्टीफन हॉस्पिटल में नर्स हैं. वे पिछले चार सालों से दिल्ली में रह रही हैं और पिछले कई महीनों से काम खत्म करके अस्पताल से सीधे जंतर मंतर आकर इस प्रदर्शन में शामिल होती हैं.

बीते साल पास किए गए तीन विधेयकों के विरोध में सड़क पर उतर गए थे. इस बीच पुलिस फायरिंग में नौ लोगों की मौत हो गई थी. मृतकों के परिवारवालों ने शव दफनाने से मना कर दिया है. तब से ही जंतर मंतर में भी विरोध प्रदर्शन हो रहा है

जेनेट कहती हैं, ‘मणिपुर में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. हमारे हक की लड़ाई लड़ने वाले लोगों को मार दिया जाता है और जब हम पुलिसकर्मियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज किए जाने की मांग करते हैं, तो किसी भी कार्रवाई से इनकार कर दिया जाता है. यहां दिल्ली से लेकर मणिपुर तक फैली यह लड़ाई हमारी पहचान और अस्तित्व की है. जब तक इन नौ लोगों को न्याय नहीं मिल जाता है, तब तक मैं यहां आती रहूंगी.’

कुछ ऐसी ही बात आरबीआई में काम करने वाले पीएस ख्वाल करते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर दो हिस्सों में बंटा हुआ है. हिल एरिया (पहाड़ी) और वैली (घाटी). घाटी में जब प्रदर्शन होता है, तो पुलिसकर्मी रबर की गोलियां चलाते हैं, वहीं जब पहाड़ी क्षेत्र में प्रदर्शन होता है तो वे भीड़ को रोकने के लिए असल गोलियों का इस्तेमाल करते हैं. आप हमारे साथ होने वाले अन्याय का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं. सबसे दुखद बात यह है कि हमारी मांग को सुनने वाला कोई नहीं है. हम इतने दिनों से जंतर मंतर में प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन पुलिसकर्मियों से लेकर राज्य और केंद्र सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है.’

अपनी बात कहकर जेनेट और ख्वाल समेत दूसरे प्रदर्शनकारी खामोशी से कैंडल जलाने में जुट जाते हैं और फिर कैंडल लेकर प्रतीकात्मक ताबूतों के सामने प्रार्थना करने लगते हैं. दरअसल मणिपुर में पिछले कुछ महीनों से तनाव की स्थिति बनी हुई है. यहां पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लोग राज्य विधानसभा द्वारा पास किए गए उन तीन विधेयकों का विरोध कर रहे हैं जो जमीन खरीदने और दुकानों में काम करने वाले बाहरी लोगों की पहचान से संबंधित हैं. इन आदिवासियों को डर है कि नया कानून आने के बाद पहाड़ी क्षेत्र में गैर-आदिवासी बसने लगेंगे. जबकि वहां जमीन खरीदने पर अब तक पाबंदी है.

31 अगस्त को मणिपुर विधानसभा द्वारा तीन विधेयक- मणिपुर जन संरक्षण विधेयक-2015, मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक-2015 और मणिपुर दुकान एवं प्रतिष्ठान (दूसरा संशोधन) विधेयक-2015 पारित किए जाने के बाद राज्य के आदिवासी छात्र संगठनों द्वारा बंद का आह्वान किया गया था. इस दौरान भड़की हिंसा में पुलिस फायरिंग के दौरान नौ लोगों की मौत हो गई जबकि 35 से अधिक लोग घायल हो गए थे.

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पुलिस के अनुसार, प्रदर्शनकारियों ने बाहरी मणिपुर लोकसभा सीट के सांसद थांगसो बाइते, राज्य के परिवार कल्याण मंत्री फुंगजथंग तोनसिंग, हेंगलेप विधानसभा क्षेत्र के विधायक मंगा वेईफेई और थानलोम के वुनगजागीन सहित पांच विधायकों के मकान को आग के हवाले कर दिया. पुलिस का कहना है कि हिंसक हो चुके प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मजबूरन फायरिंग करनी पड़ी, जिसमें कुछ लोगों की मौत हो गई.

देखा जाए तो मणिपुर का यह पूरा मामला भावनात्मक और संवेदनशील होने के साथ जटिल भी है. घाटी में रह रहे मेइतेई समुदाय का तर्क है कि जनसंख्या का सारा दबाव उनकी जमीन पर है. उनके अनुसार, घाटी में संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है लेकिन पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने पर मनाही है. वहीं पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी समुदाय के नुमाइंदे आरोप लगाते हैं कि सरकार ने कभी आदिवासियों से इस बारे में बात करके उनका भरोसा जीतने की कोशिश नहीं की और विधेयक पास कर दिया.

जंतर मंतर पर प्रदर्शन करने आए एमटीएफडी के सदस्य और दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एमए कर रहे सैम कहते हैं, ‘हमें इस वक्त इन विधेयकों का विरोध करना ही होगा क्योंकि ये कानून बनते ही मेइतेई समुदाय को अधिकार देने के लिए नहीं बल्कि आदिवासियों से उनका संवैधानिक अधिकार छीनने की कोशिश है. हम अपनों का अंतिम संस्कार तब तक नहीं करेंगे जब तक हमारी मांगें नहीं मानी जातीं, हालांकि यह इंतजार कितना लंबा होगा अभी इसका पता नहीं है.’

अगर हम हालिया विवाद पर नजर डालें तो इसकी शुरुआत गैर-आदिवासी बहुसंख्यक मेइतेई समुदाय द्वारा जॉइंट कमेटी आॅन इनर लाइन परमिट सिस्टम (जेसीआईएलपीएस) स्थापित करने के बाद हुई. यह संगठन 30 सामाजिक संगठनों का प्रतिनिधित्व करता है. गौरतलब है कि इनर लाइन परमिट का मकसद बाहरी लोगों के मणिपुर राज्य में प्रवेश को नियंत्रित करना था. जेसीआईएलपीएस आंदोलन के जवाब में राज्य सरकार तीन विधेयक ले आई. विधेयकों का विरोध करने वालों का कहना है कि इससे जमीन के हस्तांतरण में तेजी आएगी और आदिवासियों के वजूद पर ही संकट मंडरा सकता है.  दरअसल मणिपुर के चूराचांदपुर, चंदेल, उखरुल, सेनापति, और तमेंगलाॅन्ग जिले पहाड़ी क्षेत्र में आते हैं. वहीं थॉबल, बिष्णुपुर, इंफाल ईस्ट और इंफाल वेस्ट जिले घाटी में आते हैं. यहां मेइतेई समुदाय का दबदबा है. लैंड बिल में कहा गया है कि क्षेत्रफल के हिसाब से मणिपुर का 10 फीसदी हिस्सा घाटी का है. हालांकि राज्य की 60 प्रतिशत जनता घाटी में रहती है. इस कारण मेइतेई समुदाय पहाड़ी क्षेत्र में जमीन दिए जाने की मांग करता रहता है. मार्च, 2015 में मणिपुर सरकार ने रेगुलेशन आॅफ विजिटर, टीनेंट्स एेंड माइग्रेंट वर्कर्स बिल पारित कर दिया था. इसका मकसद राज्य में बाहरी लोगों के प्रवेश की निगरानी करना था. हालांकि बाद में सरकार ने इसे वापस ले लिया.

Photo : tribal.unity.in
Photo : tribal.unity.in

सरकार द्वारा लाए गए तीनों विधेयकों के विरोध में चल रहे आंदोलन की अगुवाई कर रही जॉइंट एक्शन कमेटी (जेएसी) के संयोजक एच. मांगचिनखुप गाइते कहते हैं, ‘पहले विधेयक से हमारी आदिवासी पहचान का उल्लंघन होता है, दूसरा विधेयक भूमि संबंधी हमारे अधिकारों की अवहेलना करता है जबकि तीसरा हमारे जीवनयापन को नुकसान पहुंचाता है.’

वहीं एमटीएफडी के संयोजक रोमियो हमर कहते हैं, ‘पहाड़ी क्षेत्र को सरकार ने कभी मणिपुर का हिस्सा नहीं माना. हमारा विकास नहीं किया गया. हमेशा से पहाड़ के लोगों के साथ भेदभाव किया गया. अब भी यह जारी है. इन विधेयकों को देखने-समझने के बाद यह बात साफ हो जाती है. अब घाटी में जमीन को लेकर बढ़ता दबाव संशोधन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारण रहा है. इसके लिए पहाड़ी क्षेत्र तो जिम्मेदार नहीं है. इसके अलावा संशोधित बिल में भ्रमित करने वाली कई चीजें हैं. इसका इस्तेमाल आदिवासियों के खिलाफ आसानी से किया जा सकता है. बिल में मणिपुर के मूल निवासी को सही तरीके से परिभाषित नहीं किया गया है. हम अगर आज इसका विरोध नहीं करेंगे तो प्रशासन बाद में इसका हमारे खिलाफ ही इस्तेमाल करेगा. दरअसल सरकार की मंशा जमीन हड़पने की लगती है.’

हालांकि इस पूरे मसले को दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया के सेंटर फॉर नाॅर्थ ईस्ट स्टडीज एेंड पॉलिसीज रिसर्च में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. एम. अमरजीत सिंह दूसरे नजरिये से देखते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर के लोग बहुत भावुक हैं. उन्हें अपनी जमीन से बहुत प्यार है. वे दूसरों की तर्कपूर्ण बात भी नहीं सुनना चाहते हैं. अब मणिपुर के साथ समस्या यह है कि करीब 90 प्रतिशत जमीन पहाड़ी क्षेत्र में है और 60 प्रतिशत आबादी घाटी में रहती है. अब आप देखिए कि घाटी में रहने वाले मेइतेई समुदाय को पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने की अनुमति नहीं है जबकि घाटी में किसी को भी जमीन खरीदने की अनुमति है. इस कारण मेइतेई समुदाय को लगता है कि उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है. इसी तरह पहाड़ी क्षेत्र की आबादी जो राज्य की कुल आबादी का 30 प्रतिशत है, चाहती है कि बाहरी लोगों को पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने की अनुमति न दी जाए. इससे उनकी आबादी में बदलाव आ जाएगा और उनकी निजता का हनन होगा.’

इस मामले में सभी पक्षों के बीच बातचीत न होने पर भी अमरजीत सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘मणिपुर की सबसे बड़ी समस्या यह है कि पहाड़ी और घाटी दोनों जगहों पर रहने वाले समुदाय खुद को बहुत असुरक्षित महसूस करते हैं. चाहे बात मेइतेई, नगा, कुकी या किसी और समुदाय की हो. अब ये जो विधेयक पास हुए हैं, मेइतेई समुदाय उसका समर्थन कर रहा है. कुकी और नगा उसका विरोध कर रहे हैं. हालत यह है कि पहाड़ी क्षेत्र के लोग कुछ कहते हैं तो घाटी के लोग उसका विरोध करते हैं और अगर घाटी के लोग कुछ कहते हैं तो पहाड़ी क्षेत्र के लोग उसका विरोध करते हैं. अगर आप इन तीनों विधेयकों को देखेंगे तो जो इसका विरोध कर रहे हैं वे गलत नहीं हैं. जो इसके पक्ष में हैं वे भी बहुत हद तक गलत नहीं हैं. मेरे ख्याल से अब वह वक्त आ गया है कि मणिपुर की समस्या को सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करना चाहिए, क्योंकि पहाड़ी क्षेत्र और घाटी के लोगों के लिए यह संभव नहीं है कि वे इस मामले को अपने स्तर पर सुलझा सकें. केंद्र को मामले में हस्तक्षेप करके एक कमेटी का गठन करना चाहिए जो यह निश्चित करे कि मणिपुर के लिए बेहतर क्या है. वैसे भी इन तीन विधेयकों को लागू होने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी की जरूरत होगी. अगर एक्सपर्ट कमेटी यह सलाह देती है कि ये विधेयक मणिपुर के लिए फायदेमंद हैं तो इनको पास कर देना चाहिए और अगर उन्हें लगता है कि ठीक नहीं हैं तो इन्हें मणिपुर विधानसभा को वापस भेज देना चाहिए. इतने दिनों बाद भी बिल का विरोध करने वाले लोगों और राज्य सरकार के बीच किसी भी तरह की बातचीत अंतिम रूप नहीं ले पाई है. ऐसे में राज्य की कानून व्यवस्था बहुत ही खराब हो जाएगी.’ 

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