पूरब के ऑक्सफोर्ड के नाम से मशहूर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जब ‘जय श्रीराम’ के नारे सुनाई देने लगे तो यह तय हो गया कि मौजूदा सियासत की गंदगी ने इस ऐतिहासिक परिसर में घुसपैठ कर ली है. निराला, महादेवी और बच्चन की परंपरा वाले इस विश्वविद्यालय के लिए इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता. हालिया निर्वाचित छात्रसंघ के उद्घाटन के लिए कट्टर हिंदूवादी नेता योगी आदित्यनाथ को आमंत्रित किया गया तो छात्रों के एक बड़े समूह ने इसे विश्वविद्यालय के लोकतांत्रिक माहौल पर कट्टरता के हमले के रूप में देखा. इलाहाबाद के बुद्धिजीवियों ने भी विश्वविद्यालय परिसर में हिंदूवादी नेता के प्रवेश को सर्वथा वर्जित करार दिया और योगी आदित्यनाथ को बैरंग लौटना पड़ा. जिस इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रों ने बाबरी ध्वंस के बाद विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल को परिसर में नहीं घुसने दिया था, उसी विश्वविद्यालय के छात्रों ने वहां पर योगी आदित्यनाथ को भी नहीं आने दिया. लेकिन मसला योगी का विश्वविद्यालय में आना या न आना नहीं था, मसला यह था कि राजनीति के कट्टर और विवादित चेहरों की किसी विश्वविद्यालय परिसर को जरूरत ही क्या है? हालांकि, यह मसला यहीं नहीं खत्म हो गया. जिस भय से योगी आदित्यनाथ को विश्वविद्यालय में जाने से रोका गया था, वह सामने आया. विश्वविद्यालय परिसर योगी के समर्थन और विरोध को लेकर दो खेमों में बंट गया.
हाल ही में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्रसंघ का चुनाव हुआ, जिसमें निर्दलीय प्रत्याशी ऋचा सिंह अध्यक्ष चुनी गईं. पैनल के बाकी पद अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को मिले. 20 नवंबर को छात्रसंघ उद्घाटन का कार्यक्रम रखा गया. इसके लिए भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ को आमंत्रित किया गया. यह कार्यक्रम एबीवीपी ने आयोजित किया था और योगी को छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह की असहमति के बावजूद बुलाया गया था. ऋचा सिंह के विरोध को जब नजरअंदाज किया गया तो ऋचा ने विश्वविद्यालय से लिखित में शिकायत की. ऋचा का तर्क था कि एक तो ‘मेरे अध्यक्ष होने के बावजूद योगी को बुलाने या आयोजन की निर्णय प्रक्रिया में मुझे शामिल नहीं किया गया. दूसरे, योगी लगातार धर्म और संस्कृति के नाम पर भड़काऊ बातें करते हैं. वे ऐसी शख्सियत नहीं हैं जो विश्वविद्यालय की गरिमा के अनुरूप हो. छात्रसंघ को संबोधित करने के लिए किसी अकादमिक शख्सियत को बुलाया जाना चाहिए.’
इस विरोध के बावजूद जब गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ का कार्यक्रम रद्द नहीं हुआ तो ऋचा अपने समर्थक छात्रों-छात्राओं के साथ अनशन पर बैठ गईं. इस विरोध का इलाहाबाद के बुद्धिजीवियों ने भी समर्थन किया और प्रशासन से अपील की कि योगी को विश्वविद्यालय में आने देना एक गलत परंपरा की शुरुआत होगी, इसे रोका जाए. अंतत: प्रशासन ने योगी का कार्यक्रम रद्द कर दिया.
भारतीय छात्र आंदोलन का संगठित रूप सबसे पहले 1828 में कलकत्ता में ‘एकेडमिक एसोसिएशन’ के रूप में सामने आया. इसकी स्थापना एक पुर्तगाली छात्र हेनरी विवियन डीरोजियो द्वारा की गई
इलाहाबाद विश्वविद्यालय जैसे कैंपस में 90 साल बाद किसी महिला को छात्रसंघ अध्यक्ष चुना गया है. ऋचा का आरोप है, ‘चुनाव के दौरान मुझपर लगातार जातिवादी और लैंगिक हमले हुए. यह परिसर लड़कियों के लिए बेहद डरावना है.’ अब ऋचा सिंह की अगुआई में छात्राएं दीवारों पर उनके नाम के साथ लिखी अश्लील गालियों के विरोध में आंदोलन कर रही हैं. इतने पुराने विश्वविद्यालय में भी अगर छात्राएं इस बात के लिए आंदोलन करें कि उनको गालियां न दी जाएं तो विश्वविद्यालय प्रशासन, छात्रसंघ और उस परिसर की छीजती परंपरा पर गंभीर सवाल उठते हैं.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जहां की अकादमिक परंपरा और छात्रसंघ का बेहद गौरवशाली इतिहास रहा है, वहां ऐसे हालात क्यों पैदा हुए? जिस परिसर से युवा तुर्क कहे जाने वाले चंद्रशेखर, सामाजिक न्याय के पुरोधा वीपी सिंह समेत दर्जनों नेता निकले हों, उस परिसर की छात्र राजनीति का स्तर यहां तक कैसे पहुंच गया? छात्र हित के जरूरी मुद्दों से लेकर सामाजिक-आर्थिक सवालों पर लड़ने वाले छात्रसंघ की फिसलन उसे यहां तक कैसे ले आई कि अब वह योगी आदित्यनाथ को शैक्षिक परिसर में घुसाने पर आमादा हो गया?
इन सवालों के जवाब पिछले दो-तीन दशक की छात्र राजनीति के अवसान में छुपे हैं. देश भर के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ पर प्रतिबंध है. छात्रसंघ अब वहीं बचा है, जहां पर छात्र राजनीति की पुरानी परंपरा रही है और छात्रों ने लड़-भिड़ कर छात्रसंघ बहाल करा लिया है. आज पूरे देश में कहीं भी छात्रसंघ ऐसी हालत में नहीं हैं जो व्यापक स्तर पर सरकार, यहां तक कि विश्वविद्यालयों के किसी गलत निर्णय पर दबाव समूह की भूमिका में आएं और उस निर्णय को बदलवा सकें.
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वतंत्रता के बाद के सालों में जितने भी बड़े आंदोलन हुए, उनमें छात्रों की सक्रिय भागीदारी रही है. स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े नेताओं के नेतृत्व में जितने भी उल्लेखनीय आंदोलन हुए, उन सभी आंदोलनों की सफलता की इबारत युवाओं ने ही लिखी. पहली बार 1905 के स्वदेशी आंदोलन में युवाओं ने बड़े पैमाने पर भागीदारी की. 1920 में महात्मा गांधी ने जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो देश भर के युवा इसमें कूद पड़े. पहले महीने में ही 90,000 छात्र स्कूल-कॉलेज छोड़कर आंदोलन में शामिल हो गए थे. 1922 में चौरीचौरा कांड को राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में युवाओं ने ही अंजाम दिया था. 1930-31 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी व्यापक स्तर पर युवाओं ने भागीदारी की. 1942 में गांधीजी के आह्वान पर ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन छिड़ा तो सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. यह पूरा आंदोलन युवाओं और छात्रों के हाथ में आ गया था. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, रोशन सिंह, राजेंद्र सिंह लाहिड़ी, भगत सिंह आदि शहीदों के अलावा बलिदान देने वाले ज्यादातर क्रांतिकारी युवा ही थे. 1936 में ‘आल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन’ (एआईएसएफ) की स्थापना हुई जिसका स्वतंत्रता आंदोलन में बेहद उल्लेखनीय योगदान रहा.
भारतीय छात्र आंदोलन का संगठित रूप सबसे पहले 1828 में कलकत्ता में ‘एकेडमिक एसोसिएशन’ के रूप में सामने आया. इसकी स्थापना एक पुर्तगाली छात्र हेनरी विवियन डीरोजियो द्वारा की गई. 1840 से 1860 के मध्य ‘यंग बंगाल मूवमेंट’ के रूप में दूसरे छात्र आंदोलन का संगठित प्रयास हुआ. 1848 में दादा भाई नौरोजी की पहलकदमी पर मुंबई में ‘स्टूडेंट्स लिटरेरी एंड साइंटिफिक सोसाइटी’ की स्थापना हुई. आनंद मोहन बोस और सुरेंद्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 में ‘स्टूडेंट्स एसोसिएशन’ की स्थापना हुई. इस संगठन ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में अहम भूमिका निभाई. डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अगुआई में 1906 में ‘बिहारी स्टूडेंट्स सेंट्रल एसोसिएशन’ की स्थापना हुई थी, जिसने बनारस से कलकत्ता तक अपना विस्तार किया. 1920 में नागपुर में ‘ऑल इंडिया कॉलेज स्टूडेंट्स कॉन्फ्रेंस’ की शुरुआत हुई. इसका उद्घाटन लाला लाजपत राय ने किया था. 26 मार्च, 1931 को कराची में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें देश भर से 700 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था. आजादी के बाद के वर्षों में भी देश में जो भी बड़े आंदोलन हुए, उनमें छात्रों की निर्णायक या नेतृत्वकारी भूमिका रही. 1969 में तेलंगाना आंदोलन, 1974-75 में इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन और आपातकाल, 1981 में असम आंदोलन और बोफोर्स घोटाले के बाद वीपी सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में छात्रों की ही अहम भूमिका रही.
आज पूरे देश में कहीं भी छात्रसंघ ऐसी हालत में नहीं हैं जो व्यापक स्तर पर सरकार, यहां तक कि विश्वविद्यालयों के किसी गलत निर्णय पर दबाव समूह की भूमिका में आएं और उस निर्णय को बदलवा सकें
आजादी के बाद हैदराबाद निजाम का हिस्सा रहे तेलंगाना को 1956 में नवगठित आंध्र प्रदेश में मिला दिया गया था. 40 के दशक से ही कॉमरेड वासुपुन्यया की अगुवाई में वामपंथी अलग तेलंगाना राज्य की मांग के लिए अभियान चला रहे थे. तेलंगाना के छात्रों ने इस आंदोलन को आगे बढ़ाया. 1969 में यह हिंसक हो गया. इस आंदोलन का केंद्र उस्मानिया विश्वविद्यालय था. 6 अप्रैल, 1969 को तेलंगाना के समर्थन में उस्मानिया विश्वविद्यालय के हजारों छात्रों ने मिलकर उस मीटिंग का घेराव किया जो आंध्र प्रदेश के तेलंगाना विरोधियों ने बुलाई थी. छात्रों की जबरदस्त भीड़ पर पुलिस की ओर से फायरिंग कर दी गई. तीन छात्र मारे गए.
एक मई को एक बार फिर उस्मानिया के छात्रों और तेलंगाना क्षेत्र के लोगों ने बड़ी रैली निकाली. रैली पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाने के बावजूद हजारों की भीड़ एकत्र हो गई. इस रैली में भी पुलिस फायरिंग हुई जिसमें बड़ी संख्या में लोग घायल हुए थे. 1969 के पूरे तेलंगाना आंदोलन के दौरान पुलिस की गोली से 369 लोगों की जान गई थी. मारे गए लोगों में ज्यादातर उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्र थे. हालांकि, उस वक्त एम. चेन्ना रेड्डी की अगुआई वाली तेलंगाना प्रजा समिति के कांग्रेस में विलय के साथ यह आंदोलन शांत हो गया. 2000 में भाजपा सरकार ने जब तीन नए राज्यों-उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ का गठन किया तो तेलंगाना आंदोलन फिर से शुरू हो गया. 2001 में के. चंद्रशेखर राव अलग तेलंगाना का मुद्दा उठाते हुए तेलुगू देशम पार्टी से अलग हुए और तेलंगाना राष्ट्र समिति बना ली. लंबे संघर्ष के बाद अंतत: 2 जून, 2014 को अलग तेलंगाना राज्य का गठन हुआ.
आजादी के बाद छात्र आंदोलन की सबसे मुखर भूमिका 70 के दशक में देखने को मिली. 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लोकप्रियता की बुलंदियों पर थीं लेकिन 1973 से इंदिरा गांधी के लिए सियासत का रुख बदलने लगा. आजादी के 25 साल बाद भी जनता की आकांक्षाएं अधूरी थीं. गरीबी एवं आर्थिक विषमता के मोर्चे पर कोई उल्लेखनीय काम नहीं हो सका था. जनता में अलग-अलग कारणों से असंतोष उभर रहा था. मंदी, बढ़ती बेरोजगारी, आकाश छूती महंगाई और खाद्य पदार्थों की कमी ने मिलजुल कर एक गंभीर संकट खड़ा कर दिया. देश के कई हिस्सों में सूखे की वजह से दंगे होने लगे और देश भर में बड़े पैमाने पर अशांति उत्पन्न हो गई थी. हड़तालों का दौर शुरू हुआ. इस खराब होते हालात में छात्रों के आंदोलन, प्रदर्शन और जुलूस अक्सर हिंसक होने लगे.
संजय गांधी को मारुति कार बनाने का लाइसेंस मिलने के बाद भ्रष्टाचार से व्याप्त घोर असंतोष और बढ़ गया. देश में बढ़ता जनाक्रोश जनवरी, 1974 में गुजरात में छात्र आंदोलन के रूप में फूट पड़ा. राज्य के कई शहरों में छात्र सड़क पर उतर आए. छात्रों के इस प्रदर्शन में विपक्षी दलों ने भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया. दस सप्ताह तक लगातार गुजरात अशांत रहा और अंतत: इंदिरा गांधी ने वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया. गुजरात के नक्श-ए-कदम पर बिहार के छात्रों ने भी मार्च में आंदोलन शुरू कर दिया. बिहार विधानसभा के घेराव से शुरू हुआ यह आंदोलन बार-बार छात्रों और पुलिस की मुठभेड़ में तब्दील होने लगा. एक सप्ताह में 27 लोग मारे गए. इस आंदोलन में जयप्रकाश नारायण भी शामिल हो गए और आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया. जेपी ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया जो ‘उस पूरी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष था जिसने हर व्यक्ति को भ्रष्ट बनने के लिए मजबूर कर दिया था.’ जेपी के नेतृत्व में यह आंदोलन बिहार से निकलकर पूरे देश में फैल गया. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इस आंदोलन के प्रति लगातार उग्र होती गईं और इसकी परिणति आपातकाल के रूप में सामने आई जिसके बाद पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी.
‘विश्वविद्यालय में चुनाव लड़ने के लिए कोई छात्र फर्जी एडमिशन नहीं लेता था. सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर मूल्यों में गिरावट आई तो छात्रसंघ भी उसके शिकार हुए. अब परिसर में ‘दुधमुंहे’ युवा गोलियां तक चलाते हैं’
असम छात्र आंदोलन आजादी के बाद के बड़े छात्र आंदोलनों में से एक है, जिसने सत्ता परिवर्तन का सूत्रपात किया. 50 के दशक में यहां राज्य सरकार की नौकरियों में असमिया लोगों को प्राथमिकता देने और असमिया भाषा को कामकाज की भाषा बनाने की मांग हुई. 1979 के विधानसभा चुनाव के गैर-कानूनी प्रवासियों के बड़ी संख्या में मतदाता सूची में शामिल होने की बात सामने आई. ‘ऑल असम स्टूडेंट यूनियन’ ने क्षेत्रीय, भाषाई और सांस्कृतिक संगठनों के गठबंधन ‘असम गण संग्राम परिषद’ के साथ मिलकर इसके विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया. इस आंदोलन के चलते 16 में से 14 चुनाव क्षेत्रों में चुनाव नहीं कराए जा सके. इसी आंदोलन के दौरान 7 अप्रैल, 1979 को उल्फा का गठन हुआ जिसका मकसद एक समाजवादी असम राज्य की स्थापना बताया गया. बाद में यह संगठन हिंसक कार्रवाइयां करने लगा और आगे चलकर 1990 में इसे आतंकवादी संगठनों की सूची में डाल दिया गया.
इस छात्र आंदोलन का परिणाम यह हुआ कि 1985 में हुए चुनावों में 33 वर्षीय प्रफुल्ल महंत अपने कॉलेज से सीधे सीएम की कुर्सी पर पहुंच गए. महंत को 126 में से 67 सीटें मिली थीं. बहुत समय बाद असम में कोई ऐसी सरकार आई थी, जिसे पूर्ण बहुमत मिला था. जनता की आकांक्षाएं सातवें आसमान पर थीं. महंत की सरकार पांच साल तक चली तो लेकिन इस आंदोलन से उपजी जन आकांक्षाएं निराशा में तब्दील होती गईं. 1990 में हुए चुनावों में प्रफुल्ल महंत हार गए.
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चंद्रशेखर हत्याकांडः युवा संभावनाओं की हत्या
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ में कई ऐसे युवा सक्रिय रहे हैं जिनमें बेहतर नेतृत्व की संभावनाएं मौजूद रही हैं. ऐसा ही एक नाम था चंद्रशेखर प्रसाद. चंद्रशेखर 1994-95 में जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए थे. उन्होंने लगातार तीन साल तक छात्रसंघ चुनाव जीतकर कीर्तिमान बनाया था. उन्होंने जेएनयू में आईसा का जनाधार बढ़ाने के साथ-साथ वहां के कर्मचारियों और शिक्षकों के साझे मोर्चे को भी पुख्ता किया था. 31 मार्च 1997 को बिहार के सिवान जिले में वे बथानी टोला नरसंहार के खिलाफ आयोजित एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे, तभी उनकी हत्या कर दी गई थी. उनके साथ दो अन्य पार्टी कार्यकर्ता श्यामनारायण यादव और भुट्टी मियां की भी गोली लगने से मौत हो गई थी. चंद्रशेखर बिहार में राजनीति के अपराधीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर होकर अभियान चला रहे थे. आरोप लगा था कि यह हत्या बाहुबली नेता शहाबुद्दीन के इशारे पर की गई थी. भारत में युवा राजनीति की संभावनाओं को बर्बरतापूर्वक खत्म करने देने का यह सबसे घातक उदाहरण है.
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60 से 80 के दशक के बीच का दौर छात्र आंदोलनों का तूफानी दौर रहा. लेकिन आपातकाल के बाद छात्रों की आंदोलनकारी भूमिका को राजनीतिक दखल के जरिये नीतिगत स्तर पर लगातार हतोत्साहित किया गया. उसके बाद, खासकर पिछले दो-तीन दशकों में मंडल-मंदिर की राजनीतिक लड़ाई में युवा विभाजित हुए. उदारीकरण-भूमंडलीकरण की चमक से प्रभावित होकर जनहित के मुद्दे गायब होते गए और छात्र आंदोलन कमजोर होता गया. इसके अलावा, सत्ताधारी वर्ग ने छात्र आंदोलन को कमजोर करने के लिए सुनियोजित तरीके से देश भर के विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों को प्रतिबंधित किया. रही सही कसर लिंगदोह समिति की सिफारिशों ने पूरी कर दी. इस सिफारिश के जरिये छात्रसंघों को कमजोर बनाने की कोशिश की गई. उदारीकरण के बाद ही विश्वविद्यालयों के अराजनीतिकरण का फैशन चला और छात्रसंघों को राजनीतिक दलों का पालतू बताया जाने लगा.
बीएचयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके आनंद प्रधान कहते हैं, ‘छात्रसंघों को सायास कमजोर करने की वजह यह थी कि चाहे कांग्रेस या गैर-कांग्रेसी पार्टियों की केंद्र में सरकार रही हो या राज्य सरकारें, सभी छात्रसंघों और छात्र-युवा आंदोलनों से डरती रही हैं, क्योंकि 60 से 80 के दशक के दौरान देश में विभिन्न मुद्दों पर सत्ता को चुनौती देने वाले ज्यादातर छात्र-युवा आंदोलनों की अगुवाई छात्रसंघों ने ही की थी.’ तेलंगाना आंदोलन का केंद्र उस्मानिया विश्वविद्यालय था तो 1975 के आंदोलन में भी कॉलेज और विश्वविद्यालय ही आंदोलन के केंद्र बने.