भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने और मनुस्मृति को संविधान बनाने के उद्देश्यों के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करने वाले केशव बलिराम हेडगेवार ने कभी सोचा नहीं होगा कि एक दिन उन्हीं की विचारधारा का वाहक प्रधानमंत्री मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन करने वाले डॉ. आम्बेडकर को महानायक बताएगा. जो वर्ण व्यवस्था संघ के सपनों के हिंदू राष्ट्र का खाद पानी है, उसकी जड़ों पर प्रहार करने वाले आम्बेडकर अगर संघ के लिए सम्माननीय हो गए हैं तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह परिवर्तन कैसे हुआ? जिस वक्त गुरु गोलवलकर मनु को ‘दुनिया का पहला कानून बनाने वाला’ घोषित कर रहे थे, उस समय आम्बेडकर उसी वर्ण व्यवस्था को स्थापित करने वाले कानून के खिलाफ जंग छेड़े हुए थे. जब संघ आजाद भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली, तिरंगे और संविधान तक को खारिज कर रहा था, तब संविधान लागू हो चुका था और आम्बेडकर सभी नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को भारतीय संविधान की मूल आत्मा बता रहे थे. जो आम्बेडकर पूरे जीवन हिंदू धर्म में व्याप्त जाति, वर्ण, छुआछूत और असमानता के खिलाफ लड़ते रहे, अंतत: उस धर्म का ही त्याग कर दिया, उन्हें अब हिंदू राष्ट्र के अलंबरदारों द्वारा अपने नायक के रूप में पेश करना अजूबे से कम नहीं है.
यह अजूबा उस राजनीतिक होड़ का हिस्सा है जिसके तहत सभी दल खुद को आम्बेडकर का असली वारिस साबित करने में जुटे हैं. संविधान दिवस मनाने की नई-नवेली रवायत के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद में जब संविधान की महत्ता और डॉ. आम्बेडकर की तारीफ में पुल बांध रहे थे, तब यह सवाल अनुत्तरित ही रह गया कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति या संविधान की शपथ लेने वाले सांसद जब-तब किस हैसियत से भारतीय गणतंत्र को हिंदू राष्ट्र घोषित करते रहते हैं? क्या हमारा संविधान हिंदू राष्ट्र, मुस्लिम राष्ट्र आदि बनाने की इजाजत देता है?
आम्बेडकर का 125वां जयंती वर्ष इस मायने में अभूतपूर्व रहा कि आम्बेडकर के घोर वैचारिक विरोधी भी उनकी जय-जयकार करते दिख रहे हैं. अगर आम्बेडकर की सामाजिक लोकतंत्र की विचारधारा को भारतीय राजनीति में उनकी जयंती और नारों की तरह जगह मिल जाए तो देश में जातिगत भेदभाव और आर्थिक विषमता मिट जाएगी. इसके अलावा आम्बेडकर की स्वीकार्यता से संविधान में विशेष रूप से उल्लिखित स्वाधीनता और बंधुत्व जैसे मूल्यों को भी मजबूती मिलेगी, लेकिन क्या यह होड़ असल में आम्बेडकर के मूल्यों और सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए है जिसके लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया?
आम्बेडकर के कट्टर विरोधी रहे संघ, उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा और उन्हें हाशिये पर डाल देने वाली कांग्रेस भी उन्हें अपनाने की प्रतियोगिता में शामिल हैं
आम्बेडकर के समानता और न्याय के प्रयासों के कट्टर विरोधी रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा, उनसे टकराने, फिर अपनाने और फिर हाशिये पर डाल देने वाली कांग्रेस भी उन्हें अपना बनाने की दौड़ में शामिल हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि दलित-पिछड़ी जातियों के ‘मसीहा’ कहे जाने वाले आम्बेडकर जो अब तक दो बड़े दलों में उपेक्षित थे, अचानक उन्हें गांधी-नेहरू के बराबर स्थापित करने की कोशिश क्यों की जा रही है? क्या गांधी-नेहरू की विरासत पर सवार कांग्रेस को नए नायक की जरूरत है? क्या वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अटल बिहारी वाजपेयी का नायकत्व भाजपा के लिए बौना साबित हो रहा है? या फिर सरदार पटेल और गांधी को अपनाने वाली भाजपा के ‘नायक हड़प अभियान’ का अगला निशाना आम्बेडकर हैं?
कांग्रेस की एक परिवार से नेतृत्व आपूर्ति की परियोजना फेल हो चुकी है. उसकी तो हालत यह है कि वह अपने पुरखे पंडित नेहरू तक को नहीं बचा पा रही है. नेहरू की 125वीं जयंती वर्ष में भाजपा की सरकार ने सुभाष चंद्र बोस के परिवार की जासूसी के बहाने नेहरू पर जोरदार हमला बोला. केंद्रीय नेतृत्व के स्तर पर राजनीतिक और वैचारिक संकट से जूझ रही कांग्रेस आम्बेडकर से नजदीकी बढ़ाने का प्रयत्न करते हुए संविधान में बदलाव की सूरत में ‘रक्तपात’ की धमकी दे रही है तो दूसरी ओर संघ परिवार और भाजपा अपने लाव-लश्कर के साथ आम्बेडकर पर कब्जा करने में लगी है.
आम्बेडकर की 125वीं जयंती पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से उन पर अब तक का सबसे बड़ा आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम में संघ के सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी ने कहा, ‘आम्बेडकर और हेडगेवार दोनों ने समाज के रोगों का निदान करने का काम किया.’ इस दौरान संघ के मुखपत्रों- ‘पांचजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ ने आम्बेडकर विशेषांक निकाले और उन्हें नायक के तौर पर पेश करने की कोशिश की. इस आयोजन में संघ ने आम्बेडकर को मुसलमानों के खिलाफ, घर वापसी का समर्थक और राष्ट्रवादी साबित करने की कोशिश की. संघ की पत्रिकाओं में छपे लेखों में कहा गया कि आम्बेडकर राष्ट्रवादी थे और उन्होंने अपने समर्थकों से कहा था कि वह देश को सबसे पहले ध्यान में रखें. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा, ‘डॉक्टर आम्बेडकर युगपुरुष हैं जो करोड़ों भारतीयों के दिलों में वास करते हैं. आइए हम सब देश को आम्बेडकर के सपनों का भारत बनाने के लिए प्रतिबद्ध करें. एक ऐसा भारत जिस पर उन्हें गर्व हो.’ हालांकि, यूपी में दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली मायावती ने कहा, ‘भाजपा और कांग्रेस का आम्बेडकर-प्रेम नाटक है. हमारे मतदाताओं को इनसे सावधान रहना चाहिए.’
भाजपा के आम्बेडकर प्रेम को नाटक क्यों माना जाए? लेखक सुभाष गाताडे अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘हेडगेवार, गोलवलकर बनाम डॉ. आम्बेडकर’ में लिखते हैं, ‘जिन्होंने जीते जी आम्बेडकर का मखौल बनाया, उनसे दूरी बनाए रखी और उनके विचारों के प्रतिकूल काम करते रहे, अब उनकी बढ़ती लोकप्रियता को भुनाने और दलित-शोषित अवाम के बीच पैठ बनाने के लिए उनके मुरीद बनते दिख रहे हैं. ऐसी ताकतों में सबसे आगे है हिंदुत्व ब्रिगेड के संगठन, जो डॉ. आम्बेडकर को- जिन्होंने हिंदू धर्म की आंतरिक बर्बरताओं के खिलाफ वैचारिक संघर्ष एवं व्यापक जनांदोलनों की पहल की, जिन्होंने 1935 में येवला के सम्मेलन में ऐलान किया कि मैं भले ही हिंदू पैदा हुआ, मगर हिंदू के तौर पर मरूंगा नहीं और अपनी मौत के कुछ समय पहले बौद्ध धर्म का स्वीकार किया (1956) और जो ‘हिंदू राज’ के खतरे के प्रति अपने अनुयायियों एवं अन्य जनता को बार-बार आगाह करते रहे, उन्हें हिंदू समाज सुधारक के रूप में गढ़ने में लगे हैं.’
भीमराव आम्बेडकर की विचारधारा के आधार पर काम करने वाली तमाम पार्टियां और संस्थाएं हैं. इस दावेदारी में नए दलों का प्रवेश आम्बेडकर की बढ़ती प्रासंगिकता का स्पष्ट संकेत है
इन आयोजनों के दिनों में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कानपुर में एक सभा में दावा किया कि वे ‘संघ की विचारधारा में यकीन रखते थे’ और हिंदू धर्म को चाहते थे. हाल में संघ और भाजपा की ओर से इस तरह की तमाम बातें कही गईं. सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘इनकी कोशिश यह भी है कि तमाम दलित जातियां- जिन्हें मनुवाद की व्यवस्था में मानवीय हकों से भी वंचित रखा गया- उन्हें यह कहकर अपने में मिला लिया जाए कि उनकी मौजूदा स्थितियों के लिए ‘बाहरी आक्रमण’ यानी इस्लाम जिम्मेदार है.’
तथ्य यही बताते हैं कि आम्बेडकर के जीते जी हिंदुत्ववादी संगठनों से उनके संबंध कभी सामान्य नहीं थे, यहां तक कि बंटवारे के उन दिनों में जब डॉ. आम्बेडकर बार-बार जनता को ‘हिंदू राज के खतरे के बारे में आगाह कर रहे थे’, वहीं गोलवलकर-सावरकर और उनके अनुयायियों का लक्ष्य भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना था. जब स्वतंत्र भारत के लिए संविधान-निर्माण की प्रक्रिया जोरों पर थी, तब डॉ. आम्बेडकर के नेतृत्व में जारी इस प्रक्रिया का संघ ने विरोध किया था और अपने मुखपत्रों में मनुस्मृति को ही आजाद भारत का संविधान बनाने की हिमायत की थी, संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर से लेकर सावरकर, सभी उसी पर जोर दे रहे थे.
उन दिनों जब डॉ. आम्बेडकर ने हिंदू कोड बिल के माध्यम से हिंदू स्त्रियों को पहली दफा सम्पत्ति और तलाक के मामले में अधिकार दिलाने की बात की थी, तब कांग्रेस के रूढ़िवादी धड़े से लेकर हिंदूवादी संगठनों ने इसे हिंदू संस्कृति पर हमला बताया था. उनके घर तक जुलूस निकाले गए थे. इतिहासकार रामचंद्र गुहा के मुताबिक, उन दिनों संघ की अगुवाई में आम्बेडकर का जबरदस्त विरोध किया गया था. अकेले दिल्ली में ही 79 रैलियों-सभाओं का आयोजन हुआ था और नेहरू-आम्बेडकर के पुतले जलाए गए थे.
अब सवाल है कि जिस संघ के सामने हिंदू राष्ट्र का स्पष्ट एजेंडा है, उसे हिंदू व्यवस्था के घोर विरोधी आम्बेडकर की जरूरत क्यों है? आम्बेडकर के नाम पर पहले से राजनीति करने वाली कई पार्टियां हैं और उनकी विचारधारा के आधार पर काम करने वाली सैकड़ों संस्थाएं हैं. इस दावेदारी में नए दलों का प्रवेश आम्बेडकर की बढ़ती प्रासंगिकता का स्पष्ट संकेत है. सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक आनंद तेलतुम्बड़े कहते हैं, ‘अगर मूर्तियां, निशानियां, तस्वीरें, पोस्टर, गीत और गाथाएं, किताबें और पर्चे या फिर स्मृति में बसे जलसों का आकार किसी की महानता को मापने के पैमाने होते तो शायद इतिहास में ऐसा कोई नहीं मिले जो बाबा साहेब आम्बेडकर की बराबरी कर सके. उनके स्मारकों की फेहरिस्त में नई जगहें और आयोजन जुड़ते जा रहे हैं. वे ऐसी परिघटना बन गए हैं कि कुछ वक्त बाद लोगों के लिए यकीन करना मुश्किल हो जाएगा कि ऐसा एक इंसान कभी धरती पर चला भी था, जिसे जानवरों तक के लिए पानी के सार्वजनिक स्रोत से पानी पीने के लिए संघर्ष करना पड़ा था. आज उनको अपनाने की होड़ है. संघ परिवार ने हाल में आम्बेडकर को जिस तरह से हथियाने की मंशा जाहिर की हैं, वे इतनी खुली है कि दलितों को उनकी भीतरी चालों को समझने में देर नहीं लगी है.’