अब की बार, किसका बिहार ?

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फोटो- विजय पांडेय

इंजीनियर संतोष यादव बिहार के एक युवा राजनेता हैं. राजनीति में बेहद सक्रिय. उनके लिए राजनीति ही ओढ़ना-बिछौना जैसा है. वह जदयू से ताल्लुक रखते हैं. सामाजिक न्याय की राजनीति के पक्षधर हैं और उसकी समझ भी रखते हैं. वैचारिक नजरिये और व्यावहारिक रूप से भी. मधुबनी जिले के युवा हैं रामकुमार मंडल. वह राष्ट्रीय लोक समता पार्टी से ताल्लुक रखते हैं. इनके लिए भी राजनीति ही ओढ़ना-बिछौना है. वे अतिपिछड़ा समूह से आते हैं. टिकट पाने की लाइन में थे, लेकिन संयोग न बन सका. पेशे से वकील मनीष रंजन भी राजनीति की गहरी समझ रखते हैं. दलितों-वंचितों के हक की आवाज को बुलंद करने में ऊर्जा लगाते हैं. वैचारिक राजनीति की ये भी समझ रखते हैं और बामसेफ से भी इनका ताल्लुक है. पटना में एक मशहूर राजनीतिक बैठकी वाले चौपाल में कई और लोगों के साथ ये तीनों युवा नेता मौजूद होते हैं. बातचीत की शुरू होती है, जो जल्द ही बहस का रूप ले लेती है.

संतोष के अपने तर्क होते हैं कि चूंकि लालू प्रसाद यादव ने पिछड़ा कार्ड सही समय पर, सही तरीके से खेल दिया है इसलिए अब बाजी उसके पाले में है. संतोष अपने तर्क और तथ्य गिनाते हैं, रामकुमार पिछड़ों के साथ अतिपिछड़ों का समूह बनाने को तैयार नहीं होते. संतोष बहुत कोशिश करते हैं कि रामकुमार को अपनी बातों से समझा दें, लेकिन नहीं कर पाते और इन दोनों के बीच में मनीष रंजन जैसे कार्यकर्ता साफ कहते हैं कि अभी दलितों का वोट किधर जा रहा है, यह आसानी से नहीं कहा जा सकता. तीन घंटे तक बहस चलती है, कोई नतीजा नहीं निकल पाता. तीनों तीन छोर पर अपनी बात रखते हैं. ऐसा नहीं कि संतोष, मनीष या रामकुमार की ही बातों और बहसों का परिणाम यह निकला कि तय नहीं हो सका कि कौन किधर जाएगा.

अतिपिछड़ों और दलितों और पिछड़ों के भी एक बड़े हिस्से के वोट को लेकर इस बार के बिहार के चुनाव में स्थिति ही ऐसी बनी है कि बड़े से बड़े राजनीतिक दिग्गज सफल विश्लेषण नहीं कर पा रहे हैं. संयोग से विकास के छोटे हिस्से को मिलाकर जाति के बड़े हिस्से के साथ बने कॉकटेल के कारण बिहार का चुनाव इस बार इन्हीं तीन जातीय समूहों के वोटिंग पैटर्न पर जाकर टिक गया है. बात सिर्फ इतनी भी नहीं. यह आकलन करना इस बार इसलिए भी मुश्किल हो गया है, क्योंकि जो चुनाव लड़ रहे हैं, वे अपने दुश्मनों से भी लड़ रहे हैं और दोस्तों से भी. यह दुविधा यूं ही नहीं बनी है. मसले और एजेंडे रोज बदल रहे हैं. विकास से बात की शुरुआत हुई थी. पैकेज वार चला था लेकिन अचानक ही बात जाति और मंडल पर आ गई. बात इतनी ही नहीं हुई, रातोंरात इतने लोग पाले बदलते रहे कि उससे भी बने-बनाए कई समीकरण ध्वस्त होते दिख रहे हैं.

हालांकि बिहार में राह चलते विश्लेषकों से बात कीजिए तो वे फटाफट यह बता देंगे कि देखिए यादवों का 14 प्रतिशत, मुस्लिमों का 16 प्रतिशत और कुर्मियों का तीन प्रतिशत तीन मिलाकर 33 प्रतिशत वोट तो सीधे-सीधे लालू प्रसाद नीतीश कुमार के कोर वोट में हैं, फिर मुश्किल कहां है. दूसरी ओर भाजपा समर्थक विश्लेषकों से बात कीजिए तो वे सीधे समझा देंगे कि कुशवाहा का पांच प्रतिशत, अगड़ों का करीब 14 प्रतिशत, वैश्यों का सात प्रतिशत, पासवानों का तीन प्रतिशत और मांझियों का तीन प्रतिशत इधर भी बराबर कोर वोट बैंक बनाते हैं. फिर सारी बात दलितों और अतिपिछड़ों पर ही जाकर टिक जाती है. हालांकि यह समीकरण भी कोई एक लकीर जैसी नहीं क्योंकि लालू प्रसाद नीतीश कुमार के समूह को भी इस बार पता है कि यादव वोटों पर शत-प्रतिशत की दावेदारी उनके समूह की नहीं रह गई और मुस्लिम भी ओवैसी के प्रवाह में आकर सीमांचल में हिंदुओं को ध्रुवीकृत करके मंडल की राजनीति की धार को 24 सीटों पर कुंद कर सकते हैं.

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फोटो- विजय पांडेय

यादव और मुस्लिम राजनीति इस बार दूसरे किस्म के मुहाने पर खड़ी है. मुस्लिम वोटों का बिखराव ओवैसी और तीसरा मोर्चा के जरिये होने की गुंजाइश है तो इन वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा को फायदा पहुंचाने की स्थिति बनाएगा. यादव राजनीति की कहानी बिल्कुल ही अलग दिशा में है. मंडल टू के बहाने पिछड़ी जातियों और दलितों की बजाय लालू अपने बिखरते कोर समूह यादव वोटरों को समेटने में ऊर्जा लगाए हुए हैं. उनकी पार्टी राजद 101 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जिसमें उन्होंने 48 सीटों पर यादवों को टिकट देकर संकेत साफ दे दिए गए हैं. यह बताता है कि वे मंडल टू के बहाने अपने कोर समूह को बचाने की जुगत में लगे हैं. हालांकि लालू ने दूसरी ओर सवर्णों की सबसे आक्रामक राजनीतिक जाति भूमिहारों को एक भी टिकट न देकर यह संकेत देने की भी कोशिश की है कि वे दलितों और अतिपिछड़ों के हितैषी हैं. हालांकि सैद्धांतिक तौर पर लालू प्रसाद की यह कोशिश ठीक है, लेकिन बिहार को जानने वाले जानते हैं कि 15 सालों तक सत्ता में रहने के कारण यादव पिछड़ों से एक अलग समूह के रूप में विकसित हो चुके हैं. यादवों के खिलाफ गोलबंदी होने के कारण ही सभी दूसरे पिछड़ों और अतिपिछड़ों को गोलबंद कर नीतीश कुमार सत्ता तक पहुंचने के सफर को आसानी से पार कर सके थे. यादव राजनीति को संतुलित करने के लिए 101 सीटों पर लड़ रहे नीतीश कुमार ने भी अपनी पार्टी से 12 टिकट दिए हैं और कांग्रेस ने भी 41 सीटों में चार टिकट यादवों को दिए हैं. दूसरी ओर भाजपा और एनडीए ने भी यादव राजनीति को साधने की कोशिश की है. एनडीए ने कुल 26 यादव प्रत्याशियों को उतारा है, जिनमें 22 भाजपा, दो लोजपा और दो मांझी की पार्टी ‘हम’ की ओर से हैं. भाजपा यादवों को संतुलित करके दूसरे पिछड़ों को अपने समूह में लाना चाहती है. लालू प्रसाद ने महागठबंधन की ओर से समग्रता में पिछड़ों को अधिक टिकट दिए जाने का ऐलान कर कुछ और बताने की कोशिश की है लेकिन जानकार बताते हैं कि भाजपा और राजग ने ये फैसला यूं ही नहीं लिया है. पहली बात कि यह कोशिश यादवों के एक हिस्से को बिना यादववादी राजनीति किए अपने पाले में लाने में सफल रही थी, दूसरी बात यह कि बिहार विधानसभा में हालिया वर्षों में यादव प्रतिनिधियों की संख्या भी तेजी से घटी है. 2000 यादव विधायकों की संख्या बिहार में 64 थी जो 2005 में 54 हो गई और फिर 2010 में 39. महागठबंधन को यादव मतों के ध्रुवीकरण से मंडल टू आने की उम्मीद है. भाजपा और एनडीए को यादवों के एक हिस्से और गैर यादव पिछड़ों को अपने साथ करके सियासत का गणित साध लेने की उम्मीद है.

बिहार की सियासत में यादवों पर इतनी बात इसलिए हो रही है क्योंकि भाजपा और एनडीए को भी पता है कि यदि मुस्लिम और यादव समूह में सेंधमारी हो गई या वह बिखर गया तो फिर राजग के लिए जीत की राह आसान हो जाएगी. दूसरी ओर लालू प्रसाद को भी पता है कि अगर वे यादव मतदाताओं को नहीं संभाल सके तो फिर उनकी भावी पीढ़ी की सियासत कहीं की नहीं बचेगी. नीतीश भी लालू के इसी कोर जनाधार को अपने पाले में लाकर फिर से सत्ता पाने के लिए अपने मूल स्वरूप में बदलाव लाकर लालू से समझौता किया है.

भाजपा ने यादव राजनीति को साधने के लिए इस बार सवर्णों का कार्ड खुले तौर पर खेला है. राजग ने इस बार 18 ब्राह्मणों को मैदान में उतारा है, जबकि महागठबंधन ने नौ ब्राह्मणों को टिकट दिए हैं. इसी तरह राजग ने 29 भूमिहारों और महागठबंधन ने 13 को टिकट दिया है. कायस्थों को टिकट देने में महागठबंधन राजग से आगे रहा है. इस जाति को महागठबंधन ने चार टिकट दिया हैं, जबकि राजग ने तीन ही उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. कायस्थों को लेकर महागठबंधन की यह सोच इसलिए भी है, क्योंकि उसके एक बड़े नेता शत्रुघ्न सिन्हा भाजपा से नाराज चल रहे हैं. उधर, लालू कायस्थों को दलित बनाने का लॉलीपॉप भी दिखा चुके हैं. इसके अलावा एक महत्वपूर्ण जाति राजपूत है, जिसे राजग की ओर से 35 टिकट और तो महागठबंधन की ओर से 12 टिकट मिले हैं. राजपूत एक ऐसी जाति रही है, जिसका एक हिस्सा पिछले दो चुनाव से लालू प्रसाद के साथ रहा है. राजपूतों के कई बड़े नेता जगतानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, प्रभुनाथ सिंह वगैरह भी लालू के साथ रहे हैं. लेकिन इस बार राजपूतों का टिकट कम करने की पीछे की वजह यह बताई जा रही है कि लाल जान चुके हैं कि राजपूत उम्मीदवार उतारने पर वे उनके मतदाताओं का वोट पाकर विधायक तो बन जाएंगे लेकिन दूसरे इलाके में राजपूतों का वोट महागठबंधन की ओर ट्रांसफर नहीं करवा पाएंगे.

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