
ठीक सौ साल पहले यही हुआ था. केवल तीन गोलियां चली थीं. पहला विश्वयुद्ध छिड़ गया था. आज का बोस्निया तब ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य का हिस्सा था. साम्राज्य के युवराज फ्रांत्स फर्डिनान्ड अपनी पत्नी सोफी के साथ दौरे पर सरायेवो आए थे. 28 जून 1914 का दिन था. पौने ग्यारह बजे थे. तभी 19 साल के एक बोस्नियाई-सर्ब छात्र गवरीलो प्रिंत्सिप ने देशभक्ति के जोश में होश गंवा कर युवराज और उनकी गर्भवती पत्नी पर गोली चला दी. दोनों की मृत्यु हो गई. युद्ध की आग फैलने के और भी कई कारण थे लेकिन, आग भड़काने वाली चिनगारी गवरीलो की गोलियां ही बनीं. पकड़े जाने पर उसने कहा कि उसे पता होता कि युवराज की पत्नी गर्भवती हैं तो वह यह काम कभी नहीं करता.
17 जुलाई 2014 को जिस किसी ने पूर्वी यूक्रेन के अशांत क्षेत्र के ऊपर मलेशियाई यात्री विमान को मार गिराया, वह भी अपने बचाव में शायद यही कहेगा कि उसे यदि पता रहा होता कि विमान में सवार 298 लोगों में तीन नवविवाहित जोड़ों और तीन दुधमुंहों सहित 80 बच्चे भी थे, तो वह ऐसा नहीं करता. 298 निर्दोष जीवनों का अनायास अंत अपने आप में चाहे जितना दुखद व निंदनीय है, उससे भी निंदनीय और वीभत्स है इस घटना के बहाने से राजनीतिक लाभ उठाने की घटिया हेराफेरी. सभी प्रमुख समाचार एजेंसियां और टेलीविजन चैनल क्योंकि अमेरिका और यूरोप के पश्चिमी देशों के हाथों में हैं, इसलिए ऐसी हेराफेरी में उन्हीं का हाथ सबसे ऊपर रहता है. वे जिस सफेद को काला कह दें, वह काला है और जिस काले को सफेद कह दें, वह सफेद है.
मलेशियाई विमान यूक्रेन के दोनबास कहलाने वाले और रूसी सीमा से सटे जिस पूर्वी भूभाग पर गिरा, वहां यूक्रेन से अलग होने के लिए लड़ रहे रूसी-भाषी विद्रोहियों का बोलबाला है. पश्चिमी देशों और यूक्रेनी सरकार की शब्दावली में वे रूस समर्थक ‘आतंकवादी’ हैं. इसलिए यह आरोप पहली नजर में काफी विश्वसनीय लगना स्वाभाविक ही है कि विमान को इन्हीं रूस समर्थक और रूस द्वारा समर्थित- ‘आतंकवादियों’ ने ही मार गिराया होगा.
इस वर्ष के शुरू में यूक्रेन में कथित ‘जनक्रांति’ के बाद से जब से वहां अमेरिका और उसके साथी यूरोपीय संघ की मनभावन सरकार सत्ता में आई है, दोनबास के रूसी-भाषी तभी से अपने आप को उपेक्षित एवं अवांछित महसूस कर रहे हैं. वहां के पृथकतावादियों को इसी जनभावना के कारण रूसी बिरादरी का व्यापक जनसमर्थन भी मिला. वे आशा करने लगे कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, क्रीमिया की ही तरह, दोनबास को भी रूस में मिला लेंगे. पश्चिमी देश भी यही प्रचार करते रहे हैं, जबकि पुतिन और उनके विदेशमंत्री लावरोव कई बार दुहरा चुके हैं कि यूक्रेन को खंडित करना न तो रूस की मंशा है और न ही यह उसके हित में है.
श्रीलंका के तमिल विद्रोह से समानता
यह स्थित कुछ वैसी ही है, जैसी श्रीलंका में तमिल विद्रोह के समय भारत की थी. तब भारत पर भी आरोप लगाए जाते थे कि वह तमिलों को उकसा कर श्रीलंका का बंटवारा करना चाहता है. सारी सहानुभूति के बावजूद जिस तरह भारत ने श्रीलंकाई तमिलों की मनोकामना कभी पूरी नहीं की, उसी तरह रूस भी यूक्रेन के रूसी-भाषियों की मनोकामना पूरी करने से कतरा रहा है. यही नहीं, श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे ने जिस तरह सत्ता में आते ही पूरी निर्ममता के साथ तमिल विद्रोह को कुचल कर रख दिया, उसी तरह यूक्रेन के नए राष्ट्रपति पेत्रो पोरोशेंको भी, सत्ता में आते ही, दोनबास के पृथकतावादी संघर्ष को मसल देने पर उतारू हैं. अमेरिकी नेतृत्व वाला सारा पश्चिमी जगत न केवल उनकी पीठ थपथपा रहा है बल्कि तन-मन-धन से उनका साथ भी दे रहा है. पोरोशेंको ने जून में सत्ता संभालते ही रूसी-भाषी कथित ‘आतंकवादियों’ के विरुद्ध बाकायदा ‘युद्ध’ छेड़ दिया है. मलेशियाई विमान की त्रासदी के चार ही दिन बाद, 21 जुलाई से, विद्रोहियों वाले हिस्से पर तोपों और टैंको से गोले ही नहीं दागे जा रहे हैं, अब तो विमानों से बम भी बरसाए जा रहे हैं. कल तक जिसे पृथकतावाद कहा जा सकता था, सरकारी बमबारी से अब वह एक गृहयुद्ध बन गया है. पहली अगस्त से देश के नागरिकों को अपनी आय का डेढ़ प्रतिशत ‘युद्ध-कर’ के तौर पर देना पड़ रहा है. इस गृहयुद्ध में पश्चिमी देश यूक्रेनी सरकार का साथ देना यदि अपना अधिकार समझते हैं, तो अपने समर्थकों का साथ देने में रूस ही भला क्यों पीछे रहना चाहेगा?
युद्ध छिड़ जाने के सारे बहाने
17 जुलाई को एम्स्टर्डम से कुआलालंपुर जा रहे उड़ान संख्या ‘एमएच17’ वाले मलेशियाई बोइंग-777 को चाहे जिसने मार गिराया हो, उसका राजनीतिकरण कुछ ही दिनों में इतना अवसरवादी रूप ले चुका है कि यूरोप में, जाने-अनजाने, 21वीं सदी का पहला युद्ध छिड़ जाने के सारे बहाने मौजूद हैं. पश्चिमी मीडिया और सरकारों ने पहले ही क्षण से यही राग आलापना शुरू कर दिया था कि विमान का मलबा क्योंकि पूर्वी यूक्रेन में गिरा है, इसलिए यह नीचतापूर्ण कार्य केवल वहां के रूस समर्थक पृथकतावादियों का ही कारनामा हो सकता है. कहा तो यह भी गया कि हो सकता है कि रूस ने स्वयं ही यह नीचता दिखाई हो, या फिर विमानभेदी रॉकेट चलाने के रूसी जानकार दोनबास के पृथकतावादियों की मदद कर रहे हों. इन्हीं अनुमानों को सच्चाई मान कर रूस के विरुद्ध और भी कठोर दंडात्मक प्रतिबंधों की घोषणा कर दी गई.
सच्चाई यह है कि घटना के एक महीने बाद तक भी, पश्चिमी देश उपग्रहों द्वारा ली गई किन्हीं तस्वीरों, अपने राडार पर्यवेक्षणों के आंकड़ों, विमान के डेटा व वॉइस रिकॉर्डरों की आरंभिक जांच या जमीन पर मिले मलबे के आधार पर ऐसे कोई प्रमाण पेश नहीं कर सके हैं कि विमान यदि वाकई मार गिराया गया है, तो किसने मार गिराया. प्रमाणित केवल इतना ही किया जा सका है कि विमान के बाहरी आवरण में मिले वृत्ताकार छेद उसे किसी विमानभेदी अस्त्र द्वारा मार गिराने का संकेत देते हैं. ये छेद ‘बूक-एम1’ (अमेरिकी नाम एसए-11) कहलाने वाले उस विमानभेदी रॉकेट द्वारा भी बने हो सकते हैं, जो संभवतः पृथकतावादियों के पास भी हैं, और वे किसी युद्धक विमान द्वारा दागे गए रॉकेट से भी बने हो सकते हैं. ‘बूक’ रॉकेट यूक्रेनी सेना के अलावा पृथकतावादियों के पास भी हैं, जबकि युद्धक विमान केवल यूक्रेनी सेना के पास हैं. जरूरी नहीं कि पृथकतावादियों को ‘बूक-एम1’ रूस से ही मिले हों. बीते जून में पृथकतावादियों ने बड़े गर्व से खुद ही कहा था कि उनके नियंत्रण वाले इलाके से खदेड़ दी गई यूक्रेनी सेना की दो ‘बूक-एम1’ प्रणालियां उनके हाथ लगी हैं. उन्हें इन रॉकेटों को दागने के लिए रूसी प्रशिक्षण की भी जरूरत नहीं है. यूक्रेनी सेना के बहुत से रूसी-भाषी सैनिक और अफसर पहले ही पृथकतावादियों से मिल गए हैं. इसी कारण पृथकतावादी यूक्रेनी सेना के कम से कम आधा दर्जन परिवहन एवं युद्धक विमान 17 जुलाई से पहले ही धराशायी कर चुके थे. तब भी, उनकी इस कुशलता से यह प्रमाणित नहीं होता कि पूर्वी यूक्रेन से हर दिन गुजरने वाले लगभग 300 विमानों के बीच से मलेशियाई विमान को चुन कर मार गिराना भी उन्हीं का कारनामा है. यही नहीं, उस क्षेत्र के आस-पास यूक्रेनी सेना की ‘बूक-एम1’ प्रणालियां भी तैनात हैं, जबकि सभी जानते हैं कि पृथकतावादियों के पास अपने कोई विमान नहीं हैं. क्या यह संभव नहीं है कि पृथकतावादियों की जुझारुता के आगे दांत पीस रही और रूसी राष्ट्रपति से खार खाए बैठी यूक्रेन की दीवालिया सरकार कुछ ऐसा कमाल करना चाहती रही हो, जिससे सांप भी मर जाता और लाठी भी नहीं टूटती? कुछ ऐसा, जिससे अमेरिका के हाथों रूस की धुनाई भी हो जाती और यूक्रेन की कमाई भी! चार महीने पूर्व ही मलेशिया एयरलाइन्स का एक ऐसा ही बोइंग-777 ( उड़ान संख्या एमएच 370) पेकिंग जाते हुए ऐसे गायब हुआ कि आज तक उसका रत्ती भर भी नामोनिशान नहीं मिला है. मलेशिया की सरकार ने उस समय जिस निरीहता और नौसिखुएपन का परिचय दिया, उससे वहां के विमान एक ऐसा ‘सरल लक्ष्य’ (सॉफ्ट टार्गेट) तो बन ही गए थे जिन्हें साधने का लोभ बहुतों को हो सकता था. जब शक किसी दूसरे पर डालने का बहाना मौजूद हो, तब तो बात ही क्या है.